पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/१३२

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बैदवाली ३३७१ घहरीनारायण फा० बबू-संज्ञा स्त्री॰ [ २. बदबाछा-संज्ञा पुं० [फा० बद + हिं• बाछ ] वह हिस्सा जो वेईमानी बदर-संज्ञा पुं० [फा० वद् ] चंद्रमा । करने से मिला हो। यौ०-बदरे मुनीर = प्रकाशमान चंद्रमा । उ०-बदरे मुनीर ] दुर्गंध । बुरी बास । बेनजीर सीरी खुसरू में। -नट०, पृ० ७८ । क्रि० प्र०-भाना।-उठना ।—फैलना । बदरनवोसो-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [फा०] [ सज्ञा बदरनवीस ] १. हिसाब किताव की जांच । २. हिसाब में गड़बड़ रकम अलग करना । बदबूदार-वि० [फा० ] दुगंधयुक्त । वुरी गंधवाला। जिसमें से बुरी वास पाती हो। बदरा-संज्ञा पुं॰ [ सं० वारिद, प्रा० बद्दल, हिं० बादल, बादर ] बदबोया-संज्ञा स्त्री॰ [फा० बदबू ] दे० 'बदबू' । उ०—खुदी खुद बादल । मेघ । उ०-कौन सुनै कासों कही सुरति बिसारी खोय बदबोय रूह ना रखो ।-तुलसी० श०, पृ० १६ । नाह । बदावदी जिय लेते हैं ये बदरा बदराह ।-बिहारी बयोहा-सज्ञा स्त्री॰ [फा० बदबू ] दुर्गंध । बदबू । उ०—काटी V (शब्द०)। बदरा २-संशा स्त्री० [सं०] बराहपाती का पौधा । भूडो क्रपण, बय अपजस बदबोह ।-बाँकी, प्र० भा० ३, बदरामलक-संज्ञा पुं० [सं० ] एक पौधा । पानी प्रामला। पृ० ४८। विशेप-इसके पौधे जलाशयों के पास होते हैं । पत्ते लबे लबे बदमजा-वि० [फा० वदमजह ] [ संज्ञा बदमजगी] १. दुःस्वाद । बुरे स्वाद का । खराब जायके का । २. पानदरहित । जैसे,- और फल लाल लाल बेर के समान होते हैं। टहनियों में तबीयत बदमजा होना। छोटे छोटे काटे भी होते हैं। बदराह-वि० [फा० ] १. कुमार्गी । कुमार्गगामी। दुरी राह पर बदमस्त-वि० [फा०] १. नशे में चूर । अति उन्मत्त-। नशे में चलनेवाला। २. दुष्ट । बुरा । उ०-वदाबदी जिय लेत हैं वावला। उ०-जही प्रो कारो जहाँ से हूँ बेखवर वदमस्त । ये बदरा बदराह । -बिहारी (शब्द॰) । किधर जमी है जिधर पासमाँ नही मालूम । कविता को०, पदरि-संज्ञा पुं० [सं० ] बेर का पौधा या फल । उ०-जिनहि भा०४, पृ० ३८० | २. कामोन्मत्त । लपट । विश्व कर बदरि समाना ।—तुलसी (शब्द०)। बदमस्ती-संज्ञा स्त्री० [फा०] १. मतवालापन । उन्मत्तता। बदरिका-सज्ञा स्त्री॰ [सं०] १. वेर का पेड़ । २. बेर का फल । कामोन्मत्तता । कामुकता । लंपटता । ३. गगा के उद्गम स्थानों में से एक और उनके समीप का वदमाश-वि० [फा० बद+• मश्राश ( = जीविका.) ] १. बुरे आश्रम (को०] । कम से जीविका करनेवाला। दुवृत्त । २. खोटा । दुष्ट । वदरिकाश्रम-संज्ञा पुं० [सं० ] तीर्थविशेष जो हिमालय पर है । पाजी । लुच्चा । नटखट । ३. दुराचारी। बदचलन । यहां नर नारायण तथा व्यास का प्राश्रम है। बदमाशी-संज्ञा स्त्री० [फा० बद+० माश ] १. बुरी वृचि । विशेप-यह तीर्थ श्रीनगर (गढ़वाल) के पास अलकनंदा नदी जघन्य वृत्ति । दुष्कर्म । खोटाई । २. नीचता । दुष्टता। पश्चिमी किनारे पर है। कहते हैं, भृगुनुग नामक शृण पाजीपन । नटखटी । शरारत । ३. व्यभिचार । लंपटता। के ऊपर एक बदरी वृक्ष के कारण वदरिकाश्रम नाम पड़ा। यमिजाज-वि० [फा० बदमिज़ाज ] दुस्वभाव । बुरे स्वभाव महाभारत मे लिखा हैं, पहले यहाँ गगा की गरम और का । जो जल्दी प्रप्रसन्न हो जाय । चिड़चिड़ा। ठंढो दो घाराएँ थीं, और रेत सोने की थी। यहां पर देवतामों घमिजाजी-त्री० [फा० बदमिज़ाजी ] बुरा स्वभाव । चिड़ ने तप करके विष्णु को प्राप्त किया था। गधमादन, बदरी, चिढ़ापन । नरनारायण भौर कुवेरशृंग इसी तीर्थ के अंतर्गत हैं । नर- वरंग'-वि० [फा०] १. बुरे रंग का। जिसका रंग अच्छा न नारायण अर्जुन ने यहाँ बड़ा तप किया था। पांडव महा. हो। भद्दे रग का। २. जिसका रंग बिगड़ गया हो। प्रस्थान लिये इसी स्थान पर गए थे। पद्मपुराण में विवणं । उ०-ललार की खाल सिकुड़ गई थी। दांत मोठ वैष्णवों के सव तीर्थों मे बदरिकाश्रम श्रेष्ठ कहा गया है । दोनो बदरंग पड़ गए थे।-श्यामा०, पृ० १४५। बदरंग'-सञ्ज्ञा पुं० ताश के खेल में जो रंग दाव पर गिरना चाहिए बदरिया-सशा स्त्री॰ [हिं० ] दे० 'बदरी२', 'वदली" बदरी-सञ्ज्ञा स्त्री० [सं०] १. बेर का पेड़ या फल । २. कपास उससे भिन्न रंग । २. चौसर के खेल में एक एक खिलाड़ी की का पौधा (को०)। दो गोटियों में वह गोटी जो रग न हो। बदरी@संज्ञा स्त्री० [हिं० बादली ] दे० 'बदली'। बदरंगी-सज्ञा स्त्री॰ [फा०] रंग का फीकापन या भद्दापन । धदरीच्छदा-संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक प्रकार का बेर । २. एक वदर-संशा पुं० [सं०] १. वेर का पेड़ या फल । २. कपास । सुगंध द्रव्य जो शायद किसी समुद्री जतु का सूखा मास हो। ३. कपास का बीज । बिनोला। यौ०-बदरकुण बेर के फल के पकने का समय । बदरोछद-संज्ञा पु० [सं०] एक गंधद्रव्य । बदरीच्छदा । बदर-कि० वि० [फा०] बाहर । जैसे, शहर बदर करना । बदरीनाथ-संज्ञा पुं० [सं०] बदरिकाश्रम नाम का तीर्थ । मुहा०-घदर निकालना = जिम्मे रकम निकालना । किसी के बदरीनारायण-संशा पुं० [सं०] १. वदरिकाश्रम के प्रधान देवता । नाम हिसाब में बाकी बताना । २. नारायण की मूर्ति जो बदरिकाश्रम में है।