पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/१४०

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धान २३७६ पनवेला १६. खुब सिंगार करना | सजना । सजावट करना । यौ०-चनना सँवरना, बनना ठनना, = खूब अच्छी तरह अपनी सजावट करना । खुब शृगार करना । बननि-सज्ञा स्त्री० [हिं० बनना] १. बनावट । सजावट। २. वनाव सिंगार। बननिधि-संज्ञा पुं० [सं० यननिधि ] समुद्र । उ०-बांध्यो बन- निधि नीरनिघि जलघि सिंधु बारीस । -मानस, ६।५ । बननीबू-संज्ञा पुं० [हिं० वन + नीवू ] एक प्रकार का सदा- वहार क्षुप। विशेष-यह क्षुप प्रायः सारे भारत मे घोर हिमालय मे ७००० फुट तक की ऊंचाई तक पाया जाता है। इसकी टहनियाँ दतुअन के काम में प्राती हैं और इसके फल खाए जाते हैं । वनपट-संज्ञा पुं॰ [सं०] वृक्षों की छाल आदि से बनाया हुषा फपड़ा। बनपवि-संज्ञा पुं० [सं० वनपति ] सिंह । शेर | वनपथ-संज्ञा पुं० [सं० वनपथ ] १. समुद्र । २. वह रास्ता जिसमें जल बहुत पढ़ता है। ३. वह रास्ता जिसमें जंगल बहुत पड़ता हो। बनपाट-संशा सं० [हिं० बन + पाट] जंगली सन । जंगली पटुना । वनपाती-संज्ञा स्त्री० [सं० वनस्पति या हिं• बन+पत्ती] वनस्पति । धनपाल-सशा पुं० [सं० वनपाल ] बन या वाग का रपाक । माली। वाग का रखवाला। बनपिडालू-संशा पु० [हिं० घन + पिंडालू ] एक जंगली वृक्ष । विशेष-यह वृक्ष बहुत बड़ा नहीं होता। इसकी लकड़ी जर्दी लिए भूरे रंग की और कंघी, कलमदान या नक्काशीदार चीजें बनाने के काम पाती है। यह पेड़ मध्य देश, बंगाल और मद्रास मे होता है। बनप्रिय-संशा पुं० [सं० वनप्रिय ] कोयल । कोकिल । बनप्सा -संज्ञा पुं० [ बनफशह ] ० 'वनफ्शा' । वनफती-संज्ञा स्त्री० [सं० वनस्पति, प्रा. वणफ्फइ ] दे० 'बन- स्पति' । उ०-सहस भाव फूली बनफनी। मधुकर फिरहि संवरि मालती।—जायसी प्र० ( गुप्त ), पृ० ३६० । वनफल-संशा पुं० [हिं० बन + फल ] जगली मेवा । बनफशा-सज्ञा पुं॰ [फा० बनफ्शह ] दे० 'बनफ्शा' । उ०-नील नयन में फंसा रहा मन, फूल बनफशा गो घिर सुंदर ।- मधुज्वाल, पृ० २६ । बनपशई-वि० [ फा० यनफ्शा +६ ] बनपशे के रंग का । घनफ्शा-सजा पुं० [फा० चनपशह ] एक प्रकार की प्रसिद्ध वनस्पति। विशेष--यह वनस्पति नेपाल, काशमीर और हिमालय पर्वत के दूसरे स्पानों में ५००० फुट तक की ऊँचाई पर होती है। इसका पौधा बहुत छोटा होता है जिसमें बहुत पतली मोर छोटी शाखाएं निकालती हैं जिनके सिरे पर बैंगनी या नीले रंग के खुशबूदार फूल होते हैं। इसकी पत्तियां घनार की पत्तियों से कुछ मिलती जुलती हैं। इसकी जड़, फूल और पत्तियाँ तीनों हो घोपधि के काम पाते हैं । साधारणतः फूज और पत्तियों का व्यवहार जुकाम और घर आदि में होता है और जड़ दस्तावर दवाओं के साथ मिलाकर दी जाती है । फूलों और जड़ का व्यवहार वमन कराने के लिये भो होता है पोर ताली फूल पेशाब लानेवाले माने जाते हैं । बनवकरा-संज्ञा पुं० [हिं० बन + वारा ] एक प्रकार का पक्षी । विशेप-काशमीर और भूटान प्रादि ठढे देशों में यह पक्षो पाया जाता है। यह रंग में भूरा और लंबाई में तगमग एक फुट के होता है । यह घास और पत्तियों से भूमि पर या नीची झाड़ियों में घोंसला बनाता है। अप्रैल से जून तक इसके अंडे देने का समय है। यह एक बार में तीन चार घंडे देता है। बनवन्दि-संज्ञा स्त्री॰ [सं० वनवह्नि ] दावानल । वनाग्नि उ०-उठिहै निसि बनवन्दि प्रचान। पानी लौं हरि करिहैं पान । -नंद० प्र०, पृ० २०२ । बनव-संज्ञा पुं० [हिं०] जंगली कुसुम । खारेजा । बनवारी-संशा स्त्री० [हिं० बन+वारी] १. वन न्या। वन में रहनेवाली बालिका । २. उद्यान । पुष्पवाटिका । बनबास-संशा पुं० [सं० वनवास ] १. वन में वसने की जिया या अवस्था। २. प्राचीन काल का देश निकाले का दंड। जलावतनी। बनवासी-संज्ञा पुं० [सं० वनवासिन् ] [ग्नी बनवासिनी] १. वन में रहनेवाला । वह जो वन में वसे । २. जगली । धनवाहन-संज्ञा पुं० [सं० बनवाहन ] जलयान । नाव | नौका । उ०-जब पाहन भे बनवाहन से उतरे वनरा जय राम रहे । -तुलसी (शब्द०)। बनविलार-संशा पुं० [सं० वन + विडाल ] दे॰ 'बनबिलाव' । उ०-जब वे बूढ़े बनविलारों के समान धूरते । -प्रेमघन०, भा० २, पृ० ६४ वनविलाव-शा पुं० [हिं० वन+बिलात्र ( = बिल्ली)] उत्तर भारत. बंगाल और उड़ीसा में मिलनेवाला बिल्ली की जाति का और उससे बहुत ही मिलता जुलता एक जंगली जतु जिसे लोग प्रायः बिल्ली ही मानते हैं। विशेष-यह दिल्ली से कुछ बड़ा होता है और इसके हाथ पैर कुछ छोटे तथा दृढ़ होते हैं। इसका रंग मटमैला भूरा होता है पोर इसके शरीर पर काले लंबे दाग और पूछ पर गाले छल्ले होते हैं। यह प्रायः दलदलों में रहता है और वहीं मछली पकड़कर खाता है । यह कुछ अधिक भीषण होता है पौर कभी कभी कुतों या बछड़ों पर भी माफमण कर बैठता है। बनवेला-संज्ञा पुं० [हिं०] एक प्रकार का पुष्प । गुटज । कोरेगा।