पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/१४१

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घनमानुष ३३५० धनवध फुरैया। उ०-वनवेले ने फूलकर बाग के बेलों को सजाया। जंगली जानवरों को घेरकर सामने लाते हैं और उनका प्रेमघन०, भा०२, पृ० १२ । शिकार कराते है। वनमानुप-संज्ञा पुं॰ [ हिं० घन+मानुप ] १. बंदरो से कुछ उन्नत बनरा'-सग पुं० [हिं० [१० बगरी, पनरिया]" और मनुष्य से मिलता जुलता कोई जंगली जतु । जैसे 'बंदर'। उ०-गय पाहन मे बनवाहन से उबरे वनग जप गोरिल्ला, चिपैजो, प्रादि । २. बिल्कुल जंगली प्रादमी राम रदै । -तुलसी (शब्द०)। (परिहास)। धनरा---गंगा पुं० [हिं० घनना] १. बर । दुम्हा । २. विवाह मम घनमाल-संशा सी० [सं० वनमाल ] दे० 'धनमाला' । उ०-है का एक प्रकार फा मंगसगीत । उ०-गावै विधा प्रपन धनमाल हिए लगिए अरु ह मुरली प्रधरा रस पीये। पाहि यनरा दुलहिन फेर ।-नायदाग (प्रा.)। पोद्दार अभि० प्र०. पृ० १३६ । वनराई-संमा स्त्री० [i० बरामि, प्रा० घगणराह ] १० घनमाला-सश सी० [सं० चनमाला] तुलसी, कुंद, मंदार, परजाता बनराजि'। उ०-दाद मरही गुरु लिए. पमु पंधी बनगा। और कमल इन पांच चीजो की बनी हुई माला । तीनि लोक गुग्ण पंचमी, मयदी मांदि मादा-दादू. विशेष- ऐसी माला का वर्णन हमारे यहां के प्राचीन साहित्य पृ० ३१ । में विष्णु, कृष्ण, राम प्रादि देवतानो के सबंध में बहुत वनराज+-जा . [२० वनराज] १. यन का रामा। मिह । पाता है। कहा है, यह माला गले से पैरो तक लबी होनी शेर । २. बहुत बड़ा पेद। चाहिए। वनराजि, वनराजी-शा सी० [म. बनगजि ] वृक्षगमूह । घनमालो-संश पुं० [ स० वनमालिन् ] १. वनमाला धारण करने घुक्षायली । तरपक्ति । उ०-गुमुमित वनरामी प्रति गजी। वाला । २. कृष्ण । ३. विष्णु । नारायण । ४. मेष । बादल । -नंद००, ० २२७ । (म) अपना दस पंचन पसार उ०-बनमाली प्रज पर बरसत वनमाली वनमाली दूर कर वनराजी मांगी है।-नहर, पृ० ७६ । दुख केशव कैसे सहीं ।- पेशव (शब्द०)। ५. वन से पिरा वनराय-स[सं० यनराग, प्रा० वणराप] १. दे० 'वनराज' । हुमा देश। जिस प्रदेश में घने वन हों। उ०-बनमाली प्रज २.दे० 'वनराजी'। 10-सब घरती कागद पर, लेपनि पर वरसत बनमाली बनमाली दूर दुख केशव कैसे सहौं । सब वनराय । सात समुद्र की गसि करू, गुरु गुन लिखा न -केशव (शब्द॰) । जाय-वीर सा•०, भा० १. पृ०२। घनमुर्गा -संज्ञा पुं० [हिं० पन+फ्रा० मुर्गा ] जंगली मुरगा। वनरी-संक्षा पी० [हिं० यनरा का स्त्री.] नववा । नई व्याही बनमुर्गिया-संज्ञा सी० [हिं० यन +फा मुर्गी + हिं० इया हुई वधू । उ०-सी लगु सिप वनरी घर आई। परिधन (प्रत्य॰)] हिमालय की तराई मे रहनेवाला एक प्रकार का फरि सव सासु उतारी पुनि पुनि लेत बलाई।-रघुराव ( शन्द०)। विशेप--इस पक्षी का गला और सीना सफेद सारा शरीर बनरीठा-ज्ञा पुं० [हिं० यन+रीठा ] एक प्रकार का जंगलो रीठा प्रासमानी रंग का और चोच जंगली रंग की होती है। यह जिसकी फलियो से लोग सिर के बाल माफ करते हैं । एना । पक्षी भूमि पर भी चलता भोर पानी में भी तैर सकता है । विशेष-इसका पेड कांटेदार होता है पौर नारे भारत में पाया इसका मांस खाया जाता है। जाता है। इनके पत्ते पट्टे होते हैं. इसलिये कही कही लोग घनमूग-संज्ञा पुं० [सं० वनमुद्ग ] मुगयन या मोठ नाम फा उसकी तरवारी बनाकर भी साते हैं। कदन्न । घनरीहा-संशा ग्री० [हिं० बन रीहा ( रीस ) या सं० रुह बनर-सज्ञा पुं॰ [देश॰] एक प्रकार फा पस्त्र । उ०-तिमि विभूति (= पौधा) ] एक प्रकार की घास जिसकी छाल से सुनली अरु वनर कह्यो युग तेसहि बन कर वीरा। कामरूप मोहन या सून बनाया जाता है। प्रावरणह पड़े काम रुचि वीरा। रघुराज (शब्द०)। विशेप-यह घास खसिया पहाड़ी पर बहुतायत से होती है । वनरखता-संशा पु० [हिं० बंदर+खत<म० उत] बंदर का इसे रीसा या वनकट रा भी कहते हैं। कुछ लोग इसी का घाव या क्षत जिसे वे वरावर कुरेदते रहते है और इससे वह बनरीठा भी कहते हैं परंतु वह इससे भिन्न है । ठीक नही हो पाता। बनरुह-संज्ञा पुं० [सं० वनरह ] १. जंगल मे मापसे माप होनेवाला वनरखना-संशा पु० [हिं० वन+रखना] बन का रक्षक । वनरखा। वृक्ष या पोषा । जंगली पेह । २. कमल । उ०-रिपु रन घनरखा--संज्ञा पु० [हिं० घन+रखना (= रक्षा करना) ] १. जीति मनुज सँग सोभित फेरत चाप विशिप बनरह कर । जंगल की रक्षा करनेवाला । बन का रक्षक । २. बहेलियों —तुलसी (शब्द०)। तथा जगल में रहनेवालों की एक जाति । बनरुहिया-संशा सी० [हिं० बनरह+ इया (प्रत्य०) ] एक विशेष -इस जाति के लोग प्रायः राजा महाराजामों को प्रकार की कपास। शिकार के संबंध में सूचनाएं देते हैं। और शिकार के समय पनवध-संज्ञा पुं० [हिं० पनना ] एक प्राचीन प्रांत । पक्षी।