पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/१४४

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बनावन १९८३ चनीर दूसरे फालतू पदार्थ जो अन्न आदि को साफ करने पर (शब्द०)। (ग) इनपर घर उत है घरा पनिजन पाए हाट । निकलें । जैसे,—इस गेहूं में बनावन कम निकलेगा। करम करीना बेचि के उठि के चालो वाट ।-कवीर बनावन-संज्ञा पुं० [हिं० ] दे॰ 'वनवध' । (शब्द०)। २. मोल ले लेना । अपने अधीन कर लेना। वनावनहारा-संशा पुं० [हिं० बनाना + हारा (प्रत्य॰)] १. बनाने उ०-(क) गातन ही दिख राइ बटोहिन बातन ही बनिजे वाला। वह जिसने बनाया हो। रचयिता । २. सुधार धनिजारी। देव (शब्द॰) । (ख) थापन पाई थिर भया, करनेवाला । वह जो विगड़े हुए फो बनाए। सतगुरु दीन्ही धीर । कबीर हीरा बनिजिया, मानसरोवर तीर ।-कबीर० सा० स०, पृ०५। वनावना-क्रि० स० [हिं० घनाव +ना (प्रत्य॰)] दे० 'वनाना'। उ०-कोक विशाल मृणाल के केयूर वलय बनिजार, वनिजारा-सज्ञा पुं० [हिं०] सौदागर । दे० 'बनजारा' बनावते ।-प्रेमघन०, भा० १, पृ० ११३ । या 'बंजारा' । उ०-(क) हमें जिवे गिरल बम पनिजार । बनावरिg -संज्ञा स्त्री० [सं० वाणावलि ] दे० 'वाणावली' । विद्यापति०, ३५६ । (ख) हहु बनिजार त बनिज बेसाहह । उ०-बारहि पार बनावरि साधी । जासौ हेर लाग विष भरि वैपार लेहु जो चाहह । -जायसी ग्रं॰, पृ० २६७ । बांधी।-जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० १८६ । बनिजारिन, बनिजारीg+-संज्ञा स्त्री० [हिं० बंजारा ] बनजारा वनास-संज्ञा सी० [ देश०] राजपूताने की एक नदी का नाम जो जाति की स्त्री। उ०—(क) लीन्हे फिरति रूप त्रिभुवन को ए पारावली पर्वत से निकलकर चंबल में मिलती है । नोखी बनिजारिन । -सूर (शब्द०) (ख) गातन ही दिखराय वटोहिन, बातन ही वनिज बनिजारी।-देव (शब्द०)। धनासपती-संज्ञा स्त्री॰ [सं० वनस्पति ] १. जड़ो, बूटी, पत्र, पुष्प इत्यादि । पौधो, पेड़ो वा लतामों के पंचाग में से कोई घनितg+-संज्ञा स्त्री० [हिं० बनना ] बानक । वेश | साज बाज । अंग । फल, फूल, पत्ता प्रादि । उ०-पानि बनासपती बन ते उ०-चढ़ि यदुनंदन बनिय वनाप के। साजि वरात चले सब तीरथ के जल कुंभ भरे हैं। ग्राम को मोर धरौ तेहि यादव चाय के ।-सूर (शब्द)। ऊपर केसर सों लिखि पीत करे हैं । -हनुमान (शब्द॰) । वनिता-संज्ञा स्त्री० [सं० वनिता] १. स्त्री । औरत । २. भायं पत्नी । २. घास, साग, पात इत्यादि। घनिय-वि० [हिं० धनिया +ऊ (प्रत्य॰)] वणिक संबंधी। बनासपाती-संज्ञा स्त्री० [सं० घनस्पति ] घास, साग पात भादि वनियों की तरह । वणिक के समान । उ०-उपदेश करने वनस्पतिया। दे० 'बनासपती'। उ०-ऐसी परौं नरम हरम के लिये और बनियऊ झव झाव दिखलाने के लिये बनाया पातसाहन की, नासपाती खाती ते बनासपाती खाती हैं।- है। -प्रेमघन॰, भा॰ २, पृ० ४३६ । भूपण (शब्द०)। बनिया-संज्ञा पुं० [सं० वणिक ] [स्त्री० बनियाइन ] १. व्यापार बनि-वि० [हिं० बनना ] पूर्ण । समस्त । सब । उ०- करनेवाला व्यक्ति । व्यापारी । वैश्य । २. पाटा, दाल, चावल अमित काल में फीन्ह मजूरी। प्राजु दोन्ह विधि बनि भलि पादि बेचनेवाला मोदी। भूरी। -तुलसी (शब्द०)। बनियाइन-संज्ञा स्त्री० [अं० चेनियन ] जुर्राबी बुनावट की पनि-संशा ती [ देश० ] वह मजदुरी जो अन्न पादि के रूप में कुरती या वंडी जो शरीर से चिपकी रहती है । गंजी । दी जाय । बनी। उ०-खेती, बनि, विद्या, बनिज, सेवा बनिस्बत-अव्य० [फा०] अपेक्षा । मुकाबले में । जैसे,—उस कपड़े सिलिपि सुकाज । तुलसी सुरतरु सरिस सब सुफल राम के की बनिस्वत यह कपड़ा कहीं अच्छा है। राज -तुलसी ग०, पृ० १६८ । बनिहार-संज्ञा पुं० [हिं० वन + हार (पत्य०) अथवा हिं० बन्नी ] पनिक-संज्ञा पुं० [सं० वणिक् ] दे० 'वरिणक' । उ०-बैठे बजाज वह प्रादमी जो कुछ वेतन अथवा उपज का अंश देने के वादे सराफ बनिक भनेक मनहु कुबेर ते ।-मानस, ७।२८ । पर जमीन जोतने, बोने, फसल प्रादि काटने और खेत की बनिज-संज्ञा पुं० [सं० वाणिज्य ] १. व्यापार । वस्तुपो का क्रय- रखवाली करने के लिये रखा जाय । विक्रय । रोजगार | उ०-वनिजा कयल लाम नहि पा बनी-संज्ञा स्त्री० [सं० वनी ] १. वनस्थली । वन का एक टुकड़ा। ओल अलप निकट भेल घोर ।-विद्यापति, पृ० ४०३ । २. वाटिका । वाग । जैसे, अशोक बनी। उ०-प्रति चंचल २. व्यापार की वस्तु। सौदा। उ०—(क) कलियुग वर जहूँ पलदलै बिधवा बनी न नारि । मन मोह्यो ऋषिराज विपुल वनिज नाम नगर खपत ।-तुलसी (शब्द०)। ३. को अद्भुत नगर निहारि ।-केशव (शब्द॰) । मालदार मुसाफिर । धनी यात्री । (ठग)। बनी-संञ्चा स्त्री० [हिं० 'बना' का स्त्री लि. या सं० वनिता, प्रा० यनिजना@+-क्रि० स० [सं० वाणिज्य, हिं० पनिज+ना यनिश्रा, हिं० वनी] १. नवववू । दुलहिन । २. स्त्री। (प्रत्य॰)] १. व्यापार करना । लेन देन करना । खरीदना नायिका । उ-प्रोगिया की तनी खुलि जात धनी सु बनी और बेचना उ०-(क) जो जस बनिजए लाभ तस पावए फिरि बांधति है कसिके ।-देव (शब्द०)। सुपुरुस मरहि गमार। -विद्यापति, ४०३ । (ख) यह बनी-संशा स्त्री० [हिं० वन ] दक्षिण देश में उत्पन्न होनेवाली वनिजति वृषभान सुता तुम हम सो वैर बढ़ावति ।-सूर एक प्रकार की कपास।