पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/१५०

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बयासी ३६ धेरकते वयासी'-संज्ञा पुं० [सं० द्वा, द्वि+अशीति, प्रा. विक्षसी ] १. प्रस्सी और दो की संख्या। २. इस संख्या का सूचक अंक जो इस प्रकार लिखा जाता है-८२ । वयासो-वि० जो संख्या में अस्सी और दो हो। वयोरोल-संज्ञा पुं० [हिं० ] वृत्तांत । ब्योरा । उ०—राम सो धन ताके कहा बयोरो। अष्ट सिद्धि नव निधि करत निहोरो।-दक्खिनी०, पृ० २८ । बरंग-संज्ञा पुं॰ [देश॰] १. मध्यप्रदेश में होनेवाला छोटे कद का एक पेड़। पोला। विशेष- इसकी लकड़ी सफेद और मुलायम होती है घोर इमारत तथा खेती के प्रौजार बनाने के काम में आती है । इसकी छाल के रेशों से रस्से भी बनते हैं। इसे पोला भी कहते हैं। २. बख्तर । कवच ।- (डि०) । वरगा'-सश पुं॰ [देश॰] १. छत पाटने की पत्थर की छोटी पटिया जो प्रायः डेढ़ हाथ लंबी और एक वित्ता चौड़ी होती है । २. वे छोटी छोटी लकड़ियाँ जो छत पाटते समय धरनो के वीचवाला अंतर पाटने को लगाई जाती हैं। उ०-बरंगा वरंगी करी या जरी हैं। मनो ज्वाल ने बाहु लच्छी करी हैं। -सूदन (शब्द०)। वरंगा--संज्ञा स्त्री॰ [ सं० वराङ्गना ] अप्सरा ।-उ०-बरंगा राल वरमाल सूरा वरै। विपत पंखाल दिल खुले ताला।- रघु० रू०, पृ० २० । वर'-संज्ञा पुं० [सं० वर] १. वह जिसका विवाह होता हो । दूल्हा । दे० 'वर' । उ०-(क) जद्यपि वर अनेक जग माही । एहि कह सिव तजि दूसर नाहीं ।- तुलसी (शब्द॰) । (ख) वर अस बधू पाप जव जाने रुक्मिनि करत बधाई।-सूर (शब्द०)। मुहा०-वर का पानी = विवाह से पहले नहछू के समय का वर का स्नान किया हुआ पानी जो एक पात्र में एकत्र करके कन्या के घर भेजा जाता है और जिससे फिर कन्या नहलाई जाती है। जिस पात्र में वह जल जाता है वह पात्र चीनी, खांड़ प्रादि से भरकर लड़केवाले के घर लौटा दिया जाता है। २. वह माशीर्वाद सूचक वचन जो किसी की प्रार्थना पूरी करने के लिये कहा जाय । दे० 'वर'। उ०-यह बर माग्यो दियो न काहूं । तुम मम मन ते कहूँ न जाहू-केशव (शब्द०)। वर-व० १. श्रेष्ठ । प्रच्छा। उत्तम । २. सुंदर ।-अनेकार्थ, पृ० १४२ । मुहा०-वर परना = बढ़. निकलना। श्रेष्ठ होना। उ०-पर ते टरत न बर पर दई मरफि मनु मैन । होड़ाहोड़ी बढ़ि चले चित चतुराई नैन ।-विहारी (शब्द०)। वर-संज्ञा पुं० [सं० वट ] वट वृक्ष । बरगद । उ०-कौन सुभाव री तेरो परयो बर पूजत काहे हिए सकुचाती।-प्रताप (शब्द०)। वर@-संज्ञा पुं० [सं० बल ] वल । शक्ति । उ०—(क) परे भूमि नहिं उठत उठाए । वर करि कृपासिंधु उर लाए । —तुलसी (शब्द॰) । (ख) खीन लंक टूटी दुख भरी । विन रावन फेहि वर होय खरी। —जायसी (शब्द०) । (ग) देख्यो मैं राजकुमारन के बर । केशव (शब्द०)। बर"-प्रव्य० [फा०] १. वाहर । २. ऊपर । पर । मुहार माना या पाना = बढ़कर निकलना । मुकाबले में अच्छा ठहरना । जैसे,—झूठ बोलने में तुमसे कोई वर नहीं पा सकता। (या पा सकता)। बर-वि० १. बढ़ा चढ़ा । श्रेष्ठ । २. पूरा । पूर्ण । ( प्राज्ञा या कामना आदि के लिये ) जैसे, मुराद बर पाना । बर-१० १. शरीर । देह । २. गोद । कोड़ । (को०) । ३. फल | यौ०-बरे अबा = प्राम की फसल की प्राय या मालगुजारी। बर-संज्ञा पुं० [हिं० बल ( = सिकुड़न) रेखा । लकीर । मुहा०—बर खाँचना या खींचना = (१) किसी बात के संबंध में दृढ़ता सूचित करने के लिये लकीर खींचना । (प्रायः लोग दृढता दिखाने के लिये कहते हैं कि मै बर (लकीर) खीचकर यह बात कहता हूँ।) उ-तेहि पर राघव बर खाँचा। दुइज प्राजु तो पडित साँचा ।-जायसी (शब्द०)। २. हठ दिखलाना। अड़ना । जिद करना । उ०—हिंदू देष काह बर खांचा । सरगहु अब न सूर सो बाँचा। जायसी (शब्द॰) । बर बाँधना=प्रतिज्ञा करना। उ०-लॅघउर घरा देव जस प्रादी । और को वर बांध को बादी।—जायसी (शब्द॰) । बर-प्रज्ञा पुं॰ [ देश० ] एक प्रकार का कीड़ा जिसे खाने से पशु मर जाते हैं। बर-अव्य० [सं० वरम्, हिं० बरु ] वरन् । बल्कि उ०-सुनि रोवत सब हाय विरह ते मरन भलो बर ।-व्यास (शब्द०)। बर११-संज्ञा पुं० [हिं० ] बाल या बार का समस्त शब्दों में प्रयुक्त रूप जैसे, बरटुट । बरतोर । बरअंगो-संशा स्त्री॰ [सं० वराङ्ग ] योनि । (डि०)। बरई-संज्ञा पुं० [हिं० बाढ़ (= क्यारी) ] [स्त्री० बरइन ] १. एक जाति जिसका काम पान पैदा करना या वेचना होता है। २. इस जाति का कोई प्रादमी । तमोली। बरकंदाज-संज्ञा पुं॰ [फ़ा बरकंदाज़ ] १. वह सिपाही या चौकीदार आदि जिसके पास बड़ी लाठी रहती हो । २. तोड़ेदार बंदूक रखनेवाला सिपाही । ३. चौकीदार । रक्षक । घरक-संशा स्त्री० [अ० बर्क ] विजली। उ०-उन दुख नीर तडाग, रोग बिहगम रुखड़ो। विसन सलीमुख वाग, जरा वरक ऊतर जबल।-बांकी पं०, भा०२, पृ० ४१ । बरकर-संज्ञा पु० [५० वरक़ ] दे० 'वरफ' । उ०—कै वरक तिल्लई पं सीतल ए खेंच दई तहरीरें हैं । -पोद्दार अभि० म०, पृ० ३६२। बरकत-सशा स्त्री॰ [प०] १. किसी पदार्थ की अधिकता । बढ़ती। ज्यादती । बहुतायत । कमी न पड़ना । पूरा पड़ना। +