पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/१५८

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बरसानार ३३६७ विरही २. वर्षा के जल की तरह लगातार बहुत सा गिराना । जैसे, बरह-संज्ञा पुं० [सं० वर्ह ] १. वृक्ष आदि का पत्ता । २. पंख । फूल बरसाना। ३. बहुत अधिक संख्या या मात्रा में चारों पक्ष । उ०-बरहि वरह घरि अमित कलन करि नचत ओर से प्राप्त करना। ४. दाएं हुए अनाज को इस प्रकार पहीरन सगी बहुरंगी लाल त्रिभगी।-भिखारी० ग्र०, हवा में गिराना जिससे दाने पलग और भूसा अलग हो भा० १, पृ०२७३ । जाए । साना । डाली देना। बरहन-संज्ञा पुं० [हिं०]२० 'बड़हन' । संयो० कि०-देना -डालना । बरहना-वि० [फा० वरनह ] [सञ्चा बरहनगो] जिसके शरीर पर बरसाना-सज्ञा पुं० [हिं०] मथुरा जिले का एक गांव जो राधिका जी कोई वस्त्र न हो । नंगा । नग्न । उ०-कोई साफ बरहना का जन्मस्थान माना जाता है। फिरता है न पगड़ी है न जामा है। -राम० धर्म०, पृ०१२ । वरसायत'-संज्ञा स्त्री० [सं० बर+अ० सायत ] शुभ घड़ी। शुभ यौ०-बरहनागो = सष्टवक्ता । बरहनापा=नंगे पाव । बरह- मुहूर्त । उ०—संमत पंद्रा से बीस प्रमाना। मास जेठ नासर=नंगे सर । वरसायत जाना। कबीर सा०, पृ० ६३४ | बरहम-वि० [फा० यरह म ] १. जिसे गुस्सा पा गया हो । क्रुद्ध । बरसायत-संज्ञा स्त्री॰ [हिं० ] दे० 'बरसाइत'। २. उत्तेजित । भड़का हुना। ३. तितर बितर । उलट पलट । बरसाला-वि० [हिं० वरसालू ] वरसनेवाला। उ०-महर उ०-यही है पदना सी इक अदा से जिन्होने बरहम है की तीरा पूर सचाली, वरसे फिर माती वरसालौ।-रा० रू०, खुदाई।-भारतेंदु प्र०, २, पृ० ८५७ । पृ०२५३ । बरहमन--संज्ञा पुं० [फा० तुल० सं० ब्राह्मण ] पंडित । ब्राह्मण । बरसाल-वि० [सं० वर्षा+श्रालुच् (प्रत्य॰)] वर्षणशील । उ०-च्या शेख व क्या बरहमन जब पाशिकी में प्रावे। वरसनेवाला । उ०—अति अंबु कोपि कुँवर ऊफरिणयो तसवी करे फरामोश जन्नार भूल जावे।-कविता० को०, वरसालू बाहला बारि।-वेलि०, ८० ३४ । भा०४, पृ०१५। बरसावना-संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बरसाना'। बरहा-संज्ञा पुं० [हिं० बहा या बाहा ] [स्त्री० शल्पा० बरही] १. घरसावना-क्रि० सं० दे० 'बरसाना। खेतों में सिंचाई के लिये बनी हुई छोटी नाली । उ०--तरह बरसिंघा-संज्ञा [पुं० बर+हिं० सोंग ] वह बैल जिसका एक-सींग तरह के पक्षी फलोल कर रहे थे, बरहों में चारों तरफ जल खड़ा और दूसरा नीचे की ओर झुका हो । मैना । बह रहा था ।-रणधीर (शब्द०)। २. नाला । उ०-बरहे घरसिंघा-संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'वारहसिंगा'। हरे भरे सर जित तित । हित फुहार की झमक रहति नित । -घनानंद, पृ० २८८ । वरसी-संज्ञा स्त्री० [हिं० बरस+ई (प्रत्य०) ] वह श्राद्ध जो किसी मृतक के उद्देश्य से उसके मरने की तिथि के ठीक एक बरस बरहा-संज्ञा पुं॰ [देश॰ ] मोटा रस्सा । बाद होता है। मृतक के उद्देश्य से किया जानेवाला प्रथम बरहा-संज्ञा पुं॰ [सं० बहि] मयूर । मोर । उ०—(क) तह बरहा वार्षिक श्राद। निरतत बचन मुख दुति भलि चकोर विहंग। बलि भार बरसोला-वि० [हिं०] [ वि० स्त्री० घरसोली ] वरसनेवाला । उ० सहित गोपाल मूलत राधिका अरधंग।—सूर (शब्द०)। लाड़ लड़ीली रस बरसीली लसीली हंसीली सनेह सगमगी। (ख) उहाँ बरहा जनु उप्परि केल । किने तव दीठ हिया -घनानंद, पृ० ४४७ । छवि मेल ।-पृ० रा०, २५।२३४ । वरसू-संज्ञा पु० [ देश० ] एक प्रकार का वृक्ष । बरही-मंज्ञा पुं० [सं० वर्हि ] १. मयूर । मोर । उ०-लता लचत वरसोदिया-संज्ञा पुं० [हिं० परस+ोदिया (प्रत्य॰)] पूरे साल बरही नचत रचत सरस रसरंग। धन बरसत दरसत गन भर के लिये रखा हुमा नौकर । वह नौकर जो साल भर के सरसत हियै पनंग।-स० सप्तक, पृ० ३६० । २. साही लिये रखा जाय । नाम का जंगली जंतु । उ०—पुनि शत सर छाती महं दीन्हें । घरसौड़ी, परसौंडो -संज्ञा स्त्री० [हिं० बरस+ौड़ी वा प्रौदी बीसहु भुज वरही सम कीन्हे ।—विश्राम (शब्द०)। ३. (प्रत्य॰)] वार्षिक कर । प्रति वर्ष लिया, जानेवाला कर । अग्नि । प्राग । (डि०)। ४. मुरगा। ५. द्रुम । वृक्ष- बरसौंदी-संज्ञा स्त्री० [हिं० ] दे० 'बसोधी । उ०-जे वरसौंदी अनेकार्थ०, पृ० १४३ । ६. अग्नि |-अनेकाथ०, पृ० १४३ । खात, ते सब विप्र बुलाइयो।-नंद• ग्र०, पृ० ३३४ । वरही-संज्ञा स्त्री० [हिं० बारह+ई (प्रत्य॰)] १. प्रसूता का वह स्नान घरसौंहा-वि० [हिं० बरसना+ौहाँ (प्रत्य॰) ] बरसनेवाला । तथा अन्यान्य क्रियाएं जो संतान उत्पन्न होने के बारहवें दिन उ०—तिय तरसौहैं मुनि किए करि सरसौहे नेह । घर होती हैं । २. संतान उत्पन्न होने के दिन से वारहवां दिन । परसोहैं ह रहे झर वरसौहैं मेह । -बिहारी (शब्द॰) । बरहो-सज्ञा स्त्री॰ [देश॰] १. पत्थर आदि भारी वोझ उठाने का बरहंटा-संज्ञा पुं० [सं० भण्टाकी ] बड़ी कटाई । कड़वा भंटा । मोटा रस्सा । २. जलाने की लकड़ी का भारी बोझा । ईधन पर्या०-वार्ताकी । वृहती। महती । सिंहिका । राष्ट्रिका । स्थूल- का बोझा । उ०—(क) शक्ति भक्त नौं चोलि दिनहि प्रति कंटा। क्षुद्रमंटा। वरही डारै ।-नाभा जी (शब्द॰) । (ख) नित उठ नौवा