पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/१५९

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वरीना समूह, जिसमें बरहोपोड़ नाव चढ़त है वरही वेरा बारि उही ।- कबीर और सुगंध ह चंदन की ढिंग ढाक | -सुदर० प्र०, भा० २, (शब्द०)। पृ० ७४१ । घरहीपीड़ल-संज्ञा पु० [सं० वहिंपीड ] मोर के परों का बना बराट-संवा स्त्री० [सं० वराटिका ] फौढ़ी। कपदिका । उ०-भयो हुप्रा मुकुट । मोरमुकुट । उ०-वेणु बजाय बिलास कियो वन करतार बड़े कूर को कृपालु पायो नाम प्रेम पारस हौं धौरी धेनु बुलावत । बरहीपीड़ दाम गुजामणि अद्भुत वेष लालची बराट को।—तुलसी (शब्द॰) । बनावत । —सूर (शब्द०)। बराट-संज्ञा स्त्री॰ [ स० बरारी ] एक प्रकार की रागिनी जिसके बरहीमुख -संज्ञा पुं॰ [ स० वर्हिमुख ] देवता । गाने का समय दिन में २५ से २८ दंड तक है। हनुमत के बरहौं-शा पु० [हिं० बरही ] संतान उत्पन्न होने के दिन से मत से यह भैरव राग की रागिनी मानी गई है। वारहवां दिन । वरही । इसी दिन नामकरण होता है। विशेष बराटक-सज्ञा पुं० [सं० वराटक ] कौड़ी। उ०—कृपण बगटक -दे० 'बरही। उ०-चारों भाइन नामकरन हित बरही पावियाँ, नाटक करे निलज्ज ।-बाकी ग्र०, भा० २, साज सजायो।-रघुराज (शब्द॰) । पृ० ३२। घरांडल-सञ्ज्ञा पु० [ देश०] १. जहाज के उन रस्सों में कोई रस्सा बराड़ी-संज्ञा स्त्री० [हिं० बरार (देश) ] वरार और खानदेश की जो मस्तूल को सीधा खड़ा रखने के लिये उसके चारो मोर, ऊपरी सिरे से लेकर नीचे जहाज के भिन्न भिन्न भागो तक बराद-संज्ञा स्त्री० [हिं० बरार ] दे० 'बरार'। बांधे जाते हैं। बाराडा। बरांडाल । २. जहाज में इसी बरात-सञ्ज्ञा सी० [सं० वरयात्रा ] १. विवाह के समय वर के साथ प्रकार के और कामो में पानेवाला कोई रस्सा । (लश०) । कन्यापक्षवालों के यहां जानेवाले लोगों बरांडा-संज्ञा पुं० [हिं० ] दे० बरामदा' । २ दे० 'बरांडल' । शोभा के लिये बाजे, हाथी, घोडे, ऊंट या फुलवारा प्रादि भी बरांडाल-संज्ञा पु० । देश० ] दे० 'बरांडल'। रहती है। वरपक्ष के लोग, जो विवाह के समय वर के साथ कन्यावालों के यहां जाते हैं । जनेत । बरांडी-पंज्ञा स्त्री० [अ० ढी ] एक प्रकार की बिलायती शराब । ब्रांडो । उ०-शंपेन और बराडी को मात करनेवाली किन्नरी क्रि० प्र०-धाना।-जाना।-निकलना।-सजना ।-सजाना। सुरा यहां मौजूद है। किन्नर०, पृ० ३७ । २. कही एक साथ जानेवालो का बहुत लोगों का समूह । ३ बरा'-संज्ञा पुं० [सं० बटी ] उड़द की पीसी हुई दाल का बना हुमा, उन लोगों का समूह जो मुरदे के साथ श्मशान तक जाते हैं टिकिया के आकार का एक प्रकार का पक्वान्न जो घी या (क्व०) । तेल में पकाकर यों ही या दही, इमली के पानी में डालकर बराती-संज्ञा पुं० [हिं० बरात+ई (प्रत्य॰)] वरात में वर के खाया जाता है। वहा । उ०—(क) बरी बरा वेसन बहु साथ कन्या के घर तक जानेवाला। विवाह में वरपक्ष की भौतिन व्यंजन विविष प्रनगनियाँ। हारत खात लेत अपने मोर से संमिलित होने वाला। २. शव के साथ श्मशान तक कर रुचि मानत दधि धनियाँ ।—सूर (शब्द०)। (ख) सो जानेवाला (क्व०)। दारि भिजोइ धोइ पीसि के वाके बरा करति हती।-दो बरानकोट-संज्ञा पुं० [अं० ब्राउनकोट ] १. वह बड़ा कोट या सौ बावन०, मा० १, पृ० १७३ । लवादा जो जाड़े या बरसात मे सिपाही लोग अपनी वर्दी के बरा-संज्ञा पु० [सं० बट ] बरगद का पेड़ । ऊपर पहनते हैं । २. दे० 'प्रोवरकोट'। बरा–संज्ञा पुं॰ [ देश० ] भुजदंड पर पहनने का एक आभूषण । घराना'-क्रि० अ० [सं० धारण ] १. प्रसंग पड़ने पर भी कोई बात बहुँटा । टांड़। उ०—बांह उसारि सुघारि बरा बर बीर न कहना। मतलब की बात छोड़कर और पौर बातें छरा घरि ढूकति पावै ।-धनानंद, पृ. २१२ । करना । बचाना। उ०-वैठी सखीन की सोभे समा सबै के बराई'-सञ्ज्ञा स्त्री० [हिं० बड़ा+ई या श्राई (प्रत्य॰)] दे॰ 'बड़ाई' । जु नैनन माझ बसे। वूझ ते वात बराइ कहै मन ही मन उ०-सरधा भगति की बराई भले साधि पर बाघि ये सुदृष्टि केशवराइ कहै । -केशव (शब्द०)। २. बहुत सी वस्तुप्रो या विसवास सम तूल हैं ।-प्रियादास (शब्द०)। पातो में से किसी एक वस्तु या बात को किसी कारण छोड़ देना । जान बूझकर अलग करना। बचाना। उ०-सीवरे बराई–संज्ञा स्त्री॰ [ देश० ] एक प्रकार का गन्ना । कुंवर के चरन के चिह्न बराइ बवू पग धरति कहा धौ जिय बराक-सज्ञा पुं॰ [सं० वराक ] १. शिव । २. युद्ध । लड़ाई । जानि के । -तुलसी (शब्द०)। ३. रक्षा करना। हिफाजत बराकर-वि० १. शोचनीय । सोच करने के योग्य । २. नीच । फरना । बचाना । उ०—हम सब भांति करब सेवकाई। पघम | पापी। दुखिया। ३. बपुरा । वे चारा । उ०-सोहै करि कहरि अहि बाघ बराई । —तुलसी (शब्द०)। ४. जहँ वृषभान तह को है इंद्र वराक। अनेकार्थ०, पृ० १२ । खेतों में से चूहों प्रादि को भगाना । वराक–क्रि० वि० [हिं० बार+एक थोड़ा । नाममात्र । किंचित् । बराना-क्रि० स० [सं० वरण ] बहुत सी चीजों में से अपने मनाक् । उ०-सुदर जो सतसंग मैं बैठे आइ बराक । सीतल इच्छानुसार कुछ चीजें चुनना । देख देखकर अलग करना।