पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/१८१

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बहनापी ३४२० घहरिया (शब्द०)। @१७. धारण करना। रखना । उ०-छोनी बहर'-क्रि० वि० [हिं० घाहर ] दे० 'बाहर'। उ०-दरिया मे न छोड्यो छप्यो छोनिप को छोना छोटो छोनिपछपन गुर दरियाव की, साध चहूँ दिस नहर । संग रहै सोई पिए, वाको विरद वहत हो ।—तुलसी (शब्द०)। १८. उठना । नहिं फिर तृषाया वहर :-दरिया० बानी, पृ० ३१ । चलना। उ०-बहइ न हाथ दहइ रिस छाती।-तुलसी बहर २-सज्ञा स्त्री॰ [प्र. वह ] छंद । वृत्त । उ०-काम कामिनी ते (शब्द०)। १६. निर्वाह करना । निबाहना । उ०-गाडे भली ललित केलि कला कमनीय । रंग भरी राजत रवन बहर उखारे अनुचित बनि पाए बहिबे ही ।-तुलसी (शब्द०)। बनी रवनीय।-स० सप्तक, पृ० ३५२ । २०. बीतना। गुजरना। व्यतीत होना। उ०-बहुत काल विशेष-छंद को उर्दू मे वहर कहते हैं। मशहूर बहरें कुल बहि गए भरे जगल धर पूरन ।-पृ० रा०, ११५२० । उन्नीस हैं। उनमें से कुल पांच बहरें खास अरबी के लिये हैं । बहनापा-सशा पु० [हिं० बहिन+श्रापा (प्रत्य॰)] भगिनी की बाकी अरबी और फारसी दोनो में काम देती हैं । आत्मीयता । वहिन का सबध । बहर--संज्ञा पु० [अ० यह ] समुद्र । सागर । उ०-बहर रूप सम क्रि० प्र०-जोदना। भूप रूप अनभूत संचारिप -पृ० रा०, ७।६३ । बहनी'-संज्ञा स्त्री॰ [ देश० ] कोल्हू में से रस लेकर रखनेवाली । बहर--सज्ञा पुं० [अ० वहल ] पंक । कर्दम । कीचड़ । उ०-एक ठिलिया । लरत गिरत घुमत घटत भटक नट्ट मंडिय बहर ।-१० रा०, १३१७०। बहनी@२–संज्ञा स्त्री० [ सं० वह्नि ] अग्नि । प्राग । उ०—(क) तुम फाहे उड्डुराज अमृतमय तजि सुभाउ बरषत कत बहनी। बहरखा-सा पुं० [हिं० ] वोरखा नामक हाथ का गहना । -सूर (शब्द॰) । (ख) दार बहनी ज्यू होइबा भेवं । असंख उ०-माहे सुदरि बहरखा, चासू चुड़ स वचार । मनुहरि दल पखुडी गगन करि सेवं । -गोरख०, पृ० १६ । कटिथल मेखला पग झाझर झंकार ।-डोला०, ९० ४८१ । बहनी-संज्ञा स्त्री० [हिं० ] दे० 'वोहनी' । बहरतौर-वि० [फा० बहर +० तौर ] दे० 'बहरहाल' । बहरहाल -वि० [फा० बहर+० हाल ] प्रत्येक दशा मे हर बहनु-सञ्ज्ञा पु० [सं० वहन ] सवारी । उ०—देत संपदा समेत हालत में । जैसे भी हो। उ०-मामले को सच समझा हो या श्रीनिकेत जाचकनि भवन विभूत भाग वृषभ बहनु है । झूठ, मुशी का बहरहाल तबादला हो गया। काले०, -तुलसी (शब्द०)। बहनेली-संज्ञा स्त्री० [हिं० पहन + एली (प्रत्य॰) ] वह जिसके वहरा-वि० [सं० वधिर, प्रा० बहिर] [ग्नी० घहरी ] जो कान से साथ बहनापा या बहन का संबंध स्थापित किया गया सुन न सके । न सुननेवाला । जिसे श्रवण शक्ति न हो। मुंहबोली बहन । ( स्त्रियाँ )। उ०-हम दोनों बहनेली हो मुहा०-बहरा पत्यर, या बज्र बहरा = बहुत अधिक वहरा । गई हैं।-त्याग०, पृ० ५। जिसे कुछ भी न सुनाई पड़ता हो । बहनोई-संज्ञा पुं० [सं० भगिनीपति, प्रा० वहिणीवइ ] बहिन का बहराई-संज्ञा पुं० [हिं० बाहर ] बाहर होने या रहने की स्थिति । बाह्य स्थिति । बाहर होना । उ०-वासा सब मह अहै बहनौता-सज्ञा पुं० [सं० भगिनीपुत्र, प्रा० बहिणीउत्त ] बहिन का तुम्हारो, नहीं कहूँ बहराई।-जग० वानी, पृ० २६ । बहराना'-क्रि० स० [हिं० भुराना ( भ का उच्चारण वह के रूप बहनौरा-संज्ञा पुं० [हिं० बहिन+ौरा (प्रत्य॰)<i० श्रालय ] में हो गया ) या फ़ा बहाल ] १. जिस बात से जी कवा या बहिन की ससुराल । दुखी हो उसकी भोर से ध्यान हटाकर दूसरी पोर ले जाना । बबल-वि० [सं० विह्वल ] दे॰ 'विह्वल' । उ०—दे सिर फूटि ऐसी बात कहना या करना जिससे दुःख की बात भूल जाय परयो सु भयो पीड़ित पति कैदी। इंद्री बहबल भूख पिटारी और चित्त प्रसन्न हो जाय। उ०—मैं पठवत अपने लरिका मूसै छेदी । -बज० ० पृ० ७३ । को प्रावै मन बहराइ । —सूर (शब्द०)। २. बहकाना । षहबहा-वि० [हिं० बहना ] बहेतू । उ०-बहबहे कह रहे घोखे भुलाना । फुसलाना । उ०—(क) उरहन देत ग्वालि जे भाई काहु के प्रानंदघन भूले से फूले फिरौ तकि ताही ज्यों सिन्है जशोदा दियो बहराई।-सुर (शब्द०)। (ख) क्यों टकटोरी।-धनानंद०, पृ० ५६६ । बहरावत झूठ मोहिं और बढ़ावत सोग । मब भारत में नाहिं घहबूदी-सशा स्त्री० [फा० ] लाभ । भलाई । फायदा । वे रहे बीर जे लोग ।-हरिश्चंद्र (शब्द॰) । बहम-संज्ञा पुं० [अ० वहम ] दे॰ 'वहम'। वहराना-क्रि० स० [हिं० घाहर ] दे० 'वहरियाना' । बहमोल-वि० [सं० बहुमूल्य] बहुमूल्य । अधिक दामवाला । उ० बहराना-क्रि० स० बाहर होना । दे० 'बहरियाना' २।' उ०- इह अमोल मोलन बहमोल ग्रह फिरि साजिय । -पृ० भोर ठहरात न कपूर बहरात मेघ सरद उड़ात बात लाके रा०,१६।१८। दिसि दस को।-भूषण ग्रं॰, पृ०६। २. बहरा बनने का बहरंगी-वि० [हिं० बहुरंगी ] बहुत रगोंवाला। उ०—बहरंगी ची| लखी, प्रवरंगी नीसारण।-रा०६०, पृ० ८३ । वहरिया'-संज्ञा ० [हिं० बाहर+इया (प्रत्य॰)] बल्लभ संप्रदाय पृ०६७ पति । पुत्र । भांजा। नाटक करना।