पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/१९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

फंदरा ३२५८ फंदाना फंदरा-संज्ञा पु० [ हिं० फंद+रा (स्वा० प्रत्य०) ] दे० 'फंदा' । फंस -संज्ञा पुं॰ [देश० या सं० पाश] शाखा । टहनी । उ०-पश्चिम फंदवार-वि० [हिं० फंदा ] जो फंदा लगावे । फंदा लगानेवाला । की अोर मार्ग दो फँसों में फूटा है ।-झाँसी०, पृ० १५६ । फंदा-संज्ञा पु० [सं० पाश वा बन्ध ] १. रस्सी या बाल धादि की फँकनो-सज्ञा स्त्री॰ [हिं० फाँकना ] वह दवा प्रादि जो फांककर बनी हुई फाँस । रस्सी, तागे प्रादि का घेरा जो किसी को खाई जाय । चूर्ण । फंकी। फंसाने के लिये बनाया गया हो। फनी । फांद । क्रि० प्र०-फाँकना। मुहा०-फंदा देना या लगाना = गांठ लगाकर फदा तैयार फँग@-सज्ञा पुं० [सं० बन्ध ] फंग। बंधन । फंदा । उ०- जमुना चली राधिका गोरी। युवति वृद विच चतुर नागरी करना। देखे नंदसुमन तेहि हेरी । व्याकुल दशा जानि मोहन की मन यौ०-फंदादार = एक प्रकार की बेल जो गलीचे और कसीदे आदि मे बुनी या काढ़ी जाती है। ही मन डरपी उनको री। चतुर काम फेंग परे कन्हाई अब धौ इनहिं बुझा को री ।—सूर (शब्द॰) । २. पाश । फांस । जाल । उ०—(क) अक्षर पास ते फंदा परे । अक्षर लेखे तो फंदा टरे ।-कवीर : (शब्द॰) । (ख) ठगति फँदछ-संज्ञा पुं॰ [ हिं० फंद ] दे० 'फद' । उ०-जनु अकुलात कमल मडल में फंदे फंदन जुग खंजन ।-नंद० ग्र०, पृ० फिरति ठगिनी तुम नारि । 'फैसिहारिनि, बटपारिनि हम भई प्रापुन भए सुधर्मा भारि । फंदा फसि कमान बान सौं, काहूँ फंदना-क्रि० प्र० [सं० बन्धन या हिं० फंदा ] फंदे या बंधन ३८४। देख्यौ डारत मारि ।-सूर०, १०११५८१ । मे पड़ना । फेसना। उ०-(क) प्रान पखेरू परे तलफै लखि मुहा०—किसी पर फंदा पड़ना = जाल पड़ना । फंसना । फंदा रूप 'चुगो सु फेदे गुन गाथन ।-ग्रानंदघन (शब्द॰) । लगना = (१) जाल फैलना । (२) ढंग लगना । धोखा चल (ख) दुई प्रोर सो फाग मड़ी उमड़ी जहाँ श्री चढ़ी भीर ते जाना । जैसे,—इनपर तुम्हारा फंदा नहीं लगेगा। फंदा' भारी भिरी। धधकी दं गुलाल की धूपुर मे धरी गोरी लला लगाना = (१) जाल फैलाना । किसी को फंसाने के लिये मुख मीडि सिरी । कुच कचुकी कोर छुए छरकै पजनेस फंदी जाल लगाना । (२) किसी को अपनी चाल में लाने का प्रयत्न फरकै ज्यो चिरी। करपे झपै कोष कढ़ तरिता तरिपै मनो करना । धोखा देना। फंदे में पड़ना= (१) धोखे में पड़ना । लाल घटा मे घिरी।-पजनेस०, पृ० १६ । जाल में फंसना । (२) वशीभूत होना। किसी के वश में फंदना-क्रि० स० [हिं० फाँदना ] फाँदना । लाँघना । उल्लं- होना। घन • करना। उ०--बढयो वीर राजा करे जोर हल्ला । ३. बंधन । दुःख । कष्ट । उ०-परिवा छट्ठ एकादस नंदा । फंद्यो धाय खाई करयो लोग हल्ला।-सूदन (शब्द॰) । दुइज सत्तिमी द्वादस फंदा।—जायसी (शब्द॰) । फॅदवार-वि० [हिं० फंद+वार ] जो फंद या फंदा लगाए । फंदावली-संशा श्री० [हिं० फंदा+अवली ] जाल । फंदा। फंदा लगानेवाला। उ०—(क) पायन धरा ललाट तिन विनय उ०-सुनहु धर्मनि काल वाजी करहि बड़ फंदावली।- सुनहु हो राय | अलफ परी फॅदवार है कैसहि तब न पाय । कबीर सा०, पृ० २०४ । -जायसी (शब्द०)। (ख) अस फॅदवार केस वै परा सीस फंदी -संज्ञा सी० [हिं० फंद ] दे० 'फंदा' उ०-सुनहु काल ज्ञान के फाँद । अष्टाकुली नाग सब उरझे केस के बाद ।- की संघी। छोरो जीव सकल की फंदी।-कबीर सा०, जायसी (शब्द०)। पृ०८०७॥ फॅदवारि-वि० सी० [हिं० फंद+वारी ] फंदा लगानेवाली । फंधg+-सज्ञा पुं० [हिं० फंद या फंदा ] दे० 'द'। उ०—कबीर फंदा डालनेवाली। उ०-परम प्रेम फंदवारि है प्यारिनि माया पापणी फंध ले बैठी हाटि । सब जग तो फंधै पड़ या गहि पान । घनानंद, पृ० ४५५ । गया कवीरा काटि।-कबीर ग्रं॰, पृ० ३२ । फंदाना-क्रि० स० [हिं० फंदना ] फंदे में लाना । जाल में फंधा-संज्ञा पुं० [हिं० फंदा ] दे० 'फंदा'। उ०—(क) पुनि फंसाना । उ०—(क) लसत ललित कर कमलमाल पहिरावत। मोर अनेक सुगंधा । ये सकल जीव को फंधा। -सुदर ग्रं०, काम फंद जनु चंदहि बनज फंदावत ।-तुलसी (शब्द०)। भाग० १, पृ० १२८ । (ख) सब जग परयो काल के फघा । (ख) मेरै माई लोभी नैन भए । कहा करो ये कह्यौ न मानत बहु विघि तिनको बांधे बंधा । कबीर सा०, पृ० ४५६ । वरजत ही जु गए। रहत न घूघट भोट भवन में पलक फंध्या -संज्ञा पु० [हिं० फंदा ] दे० 'फंदा' । उ०—यही वचन कपाट दए । लए फंदाइ विहंगम मानों मदन व्याघ बिधए । में सब जग बंध्या । नाम बिना नहिं छूटत फंध्या ।-कबीर -सूर०, १०।२२६८ । (ग) मलक डोर मुख छवि नदी वेसर बंसी लाइ । दै चारा मुकतानि को मो चित चली सा०, पृ० १०१३ । फंदाइ ।-मुबारक (शब्द०)। (घ) जीवहिं राखे फंद फंफाना@-क्रि० प्र० [प्रा० फंफ (= उछलना) ] फों फो करना फॅदाई। शब्द बान मह मारो जाई।-कबीर सा०, पृ. फुकारना। फुफकारना । उ०-अवलंबने गोरी तोरए जाए, ८६१. कर कंकन फनि उठ फंफाए। -विद्यापति, पृ० ५१३ । फॅदाना-क्रि० अ० [हिं० फंदना ] फंसना । फंदे मे माना।