पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/१९०

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३४२६ महत् . - . उ.-विपूर्ण होती बहुशः शिला रही, कठोर उदबंधन सर्प वहिर्वास, खनित्र और कृपाण रसने का विधान है। इन्हें गार से ।-प्रिय० प्र०, पृ० १७७ । सर्वाग में भस्म और मम्नक में विट धारण करना चाहिए बहुशत्रु-संशा पुं० [मं०] चटक । गौरा पक्षी। तथा शिखासूच न छोड़ना चाहिए पोर योग्याभ्यास भी करना बहुशल्य-पंज्ञा पुं॰ [स०] रक्त खदिर । लाल खैर । चाहिए। बहुशस्त-वि० [सं०] अत्यंत सुदर । बहुत अच्छा । एकदम ठोक । बहूपमा-राशा री० [सं०] वह पर्थालंकार जिसमें एफ उपमेय के एक धर्म से पनेक उपमान रहे जायें । जैसे,—हिम हर हीरा बहुशाख-पंज पुं० [सं०] स्नुही । थूहर । हस सो जस तेरो जसवत ।-मुरारिदान (प.)। वहुशाल-संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'बहुशाख"। वहँगवा ---संज्ञा पुं० [सं० विहगम (बहिगम) ] १. एक पक्षी बहुशिख -पंज्ञा श्री० [सं०] गजपिप्पली।' जिसे भुजंगा या करचोटिया भी कहते हैं । २. घुमंतू या बहुशिर-संसा पुं० [सं०] विष्णु । प्रावारा व्यक्ति । ३. दे० 'बहेगवा'। बहुशृग -संज्ञा पुं० [सं० बहुशृङ्ग] विष्णु । बहँगवा २- [सं० विहगम ] १. घुमका, पर उपर घूमने- बहुश्रुत-वि० [सं०] १. जिसने बहुत सी पतें सुनी हों। जिसने वाला । २. आवारा । बहेतू । अनेक प्रकार के विद्वानों से भिन्न भिन्न शास्त्रों की बातें सुनी बहत-ज्ञा मो० [हिं० /यह (वहना) + गेस (प्रत्य॰) ] मह काली हों। अनेक विपपों का. जानकार । चतुर । २. बहुत लोगों मिट्टी जो तालों या गट्टो मे बहकर जमा हो जाती है। इसी द्वारा ज्ञात या चर्चित (व्यक्ति)। मिट्टी के खपड़े बनते है। बहुसंख्यक-मज्ञा पुं० [स० बहुसंख्यक ] गिनती में बहुत । अनेक। बहतू-वि० [हि० ] दे० 'वहेतू' । बहुत । उ०-फिर देखा, उस पुल के ऊपर बहुसंख्यक बैठे घहेगवा-सज्ञा पुं० [ देश० ] चौपायों को गुदा के पास पूछ फे नीचे हैं वानर ।-अनामिका, पृ. २४ । की मासप्रयि । बहुसार-संज्ञा पुं० [सं०] खदिर । खैर । बहेचा-संज्ञा पुं॰ [ देशा० ] घड़े का ढांचा जो चाक पर से गडकर बहुसुता-संञ्चा सी० [सं०] शतमूली नामक क्षुप [यो०] । उतारा जाता है। इसे जब थापी और पिटने से पीटकर बढ़ाते हैं तब यह घड़े के रूप में प्राता है । (युम्हार) । बहुसू-सञ्ज्ञा स्त्री० [सं०] १. शूकरी । मादा सूपर । २. अनेक पुलों की । माता (को०) । ३. गाय (को॰) । पहेड़ा-सशा पुं० [सं० विभीतक, प्रा० परिपथ] एक वडापौर केचा जंगली पेट जो प्रजुग की जाति का माना गया है। पंहुसूति-संशा स्त्री० [सं०] १. कई पुत्रों की जननी । '२. बहुत बच्चे देनेवाली गाय (को॰) । विशेष-यह पतझड़ में पत्ते झाड़ता है गौर सिंघ तथा राज- पूताने पादि सूपे स्थानों को छोड़कर भारत के जंगलों में बहुस्रव-संशा पुं० [ स्त्री० बहुलवा ] शल्लकी वृक्ष । सलई । सर्वत्र होता है। घरमा मौर सिंहल में भी यह पाया जाता बहुस्वन-संज्ञा पुं० [सं०] १. उल्लू । २. शंख । है । इसके पत्ते महुए के से होते हैं । फून बहुत छोटे छोटे बहुस्वामिक-वि० [सं०] अनेक मालिकोंवाला । जिसके कई स्वामी होते हैं जिनके झड़ने पर बड़ी वेर के इतने बड़े फल गुच्छों हों को॰] । मे लगते हैं। इनमें कसाव बहुत कम होता है, इससे ये वहूँटा--संज्ञा पुं॰ [सं० बाहुस्थ, प्रा० थाह ] [ स्त्री० पल्पा० यहूंटी] चमड़ा सिझाने भौर रंगाई के काम में पाते हैं। ताजे फलों को भेद चकरी खाती भी है। वैद्यरू में बहे का बहुन 'वाह पर पहनने का एक गहना । व्यवहार है। प्रसिद्ध पौषष त्रिफला में हद, बहेड़ा पौर बहू-संश स्त्री० [सं० वधू. प्रा० बहू ] १. पुत्रवधू । पतोहू । २. प्रावला ये तीन वस्तुएं होती हैं । वैद्यक में पहला स्वादपाकी, पत्नी। स्त्री । ३. कोई नवविवाहिता स्त्री । दुलहिन । कसेला, कफ-पिच-नाशक, उष्णवीयं, शीतल, भेदक, कास- बहूकरी-संज्ञा स्त्री [सं० बहुकरी.] दे० 'बहुकरी' । नाशक, रूखा, नेत्रों को हितकारी, केशों को सुंदर करनेवाला तथा कृमि और स्वरभंग को नष्ट करनेवाला माना गया है। बहूटी-संज्ञा स्त्री० [सं० वधूटी ] दे० 'वधूटी'। उ०-झडे लेकर बहेड़े के पेड़ से एक प्रकार का गोंद भी निकलता है जो पानी निकली थी पौर बहूटी पडित की।-बेला, पृ० ४७ । . : में नहीं घुलता। लकड़ी इसकी अच्छी नहीं होती पर तस्ते, चहूदक-संञ्चा-पु० [ सं०] संन्यासियों का एक भेद । एक प्रकार का हलके सदूक, हल या गाड़ी बनाने के काम में प्रावी है।.,. सिंन्यासी। पर्या-विभीतक । कलिदुम । कल्पवृक्ष । संवतं । विशेष-ऐसे संन्यासियो को सात घर में भिक्षा मांगकर निर्वाह तुप । कर्पफल। भूतयास । विशिक । बहुवीर्य । तेलफम ! करना चाहिए। यदि एक ही गृहस्थ भरपेट भोजन दे तो वारांत । हार्य। विपन्न । कलिंद। कासन-न-तोलफल । 1. भी नहीं लेना चाहिए । इनके लिये गाय की पूछ के रोप से तिलपुष्पक। '। वैधा विदंड, णिक्य, कोपीन, कमंडलु,' गावाच्छादन, कंपा, • पादुका, प, पवित्र, चम, सूची, पक्षिणी, रुद्राक्षमाला, बहेतू-वि० [हिं०] १. रहा यहा फिरनेवाला । भर पर