पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/१९९

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वीर ५४३ पाकुमा मानस, २।२०० । (ख) ताति बाउ लागे नही, पाठी पहर बाकरी'-संशा स्त्री॰ [देश॰] पांच महीने की व्याई गाय । अनंद ।-संतबानी०, भा०१, पृ० १३५ । बाकरी-संज्ञा स्त्री० [हिं० बकरी ] दे० 'वकरी' । उ०—सहजो बाउरी-वि० [सं० बातुज ] [वि॰ स्त्री० बाउरी ] १. बावला । नन्ही बाकरी, प्यार करे ससार ।-संतवानी०, भा० १, पागल । उ०-करम लिखा जो बाउर नाहू । ती कत दोसु पृ० १६०। लगाइय काहू।-मानस, ११९७ । २. भोला भाला । सीधा बाकल-सञ्ज्ञा पु० [सं० वल्कल, प्रा० चकाल ] दे० 'वल्कल'। सादा। ३. मूर्ख । अज्ञान । ४. जो बोल न सके । मूक । उ.-सिरसि जटा वाकल वपु धारी। -केशव (शब्द०)। गूगा । । ५. बुरा। पाकला-पंज्ञा पुं० [अ०] एक प्रकार को बड़ी मटर के समान दालों बाउरि, बाऊरी-सज्ञा स्त्री॰ [हिं० बाउर ] बौरी । पगली । वाली छीमी जिसकी फलियो की तरकारी बनती है। बारी-संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बावली' । वाकलो- शा ी० [सं० बकुत्त ] एक प्रकार का वृक्ष जिसके पत्ते रेशम के कीड़ों को खिलाए जाते हैं । बाउरी- संज्ञा स्त्री॰ [ देश० ] एक प्रकार की घास । चाउलि-वि० [हिं० ] पगली । वावरी । उ०-हृदय का बाउलि विशेष -यह वृक्ष बहुन ऊंचा होता है। इसकी लकड़ी भूरे रंग कहिए पर जनु तोही कही सयानी-विद्यापति, पृ० २१३ । की और बहुत मजबूत होती है तथा खेती प्रादि के औजार बनाने के काम में प्राती है। इसकी छाल से चमड़ा भी थाऊ'-संज्ञा पुं० [सं० वायु ] हवा। पवन | उ०-सीतल मंद सिझाया जाता है। यह प्रासाम और मध्यप्रदेश में बहुत सुरभि बह वाऊ ।-मानस, १।१६१ । अधिकता से होता है । इसे घौरा और बोंदार भी कहते हैं । पाऊ-संज्ञा पु० [हिं० ] पिता । वाबू । बापू । बाकस-मज्ञा पुं० [पं० बॉक्स ] दे० बक्स' । वाएँ-कि० वि० [हिं० बायां ] बाई पोर | बाई तरफ । बाकसो-कि० प्र. [पं० वैकसेल ] जहाज के पाल को एक बाक-संज्ञा पु० स० ] बकपक्ति । बकयूथ [को॰] । पोर से दूसरी पोर करने का काम । बाक-संज्ञा पुं॰ [सं० वक्त्र; प्रा० वक्क, राज० बाक ] मुख । पाका@+-ज्ञा स्त्री॰ [ स० वाक् ] वाणी । बोलने की शक्ति । उ०-वाक घणा फाटा रहै, नाहर डाच निहाल |-बांकी, बाकायदा-क्रि० वि० [फा० बाकायदह.] कायदे के साथ । ढंग ग्रं॰, भा॰ १. पृ० २६ । से । नियमानुकूल । उ०-वह वहां क्यों है, उसे वाकायदा बाक-सञ्ज्ञा स्त्री० [सं० वाक्, प्रा. वाक ] वाक् । वाणी। दीवार पर टंगा होना चाहिए था।-सुनाता, पृ० १५१ । उ०-नटनागर की न गली तजिही, गुरु लोक के बाक गजे बाकी'-वि० [ प्र० घाकी ] जो बच रहा हो । अवशिष्ठ । शेष । न गजै ।-नट०, पृ०५८ । उ०-मन धन हानो बिसात जो सो तोहि दियो वताय । बाकी मुहा०-बाक न थाना= कुछ कह न पाना। मुख से बोल न बाकी विरह की प्रीतम भरी न जाय ।-रसनिधि (शब्द॰) । निकलना । उ०-बंध नाहिं औ कंध न कोई। बाक न पाव क्रि० प्र०-निकलना ।-बचना । -रहना । कही केहि रोइ । —जायसी | (गुप्त), पृ० ३६२ । यौ०-चाकीदार = जिसके यहाँ लगान वकाया हो। पाकी- बाकचाल-वि० [सं० वाक् + चल ] बहुत अधिक बोलनेवाला । साकी = बचा खुचा। शेष । उ०-दुजा टोला नमाज अपनी वक्की । बातूनी। मुहजोर । उ०-बड़ो वाकचाल याहि भी बाकी। गुजारें वारिवरात बाकी साकी ।-दक्खिनी०, सूझत न काल निज, कहो तो बिचारि कपि कौन विधि पृ० २०६। मारिए। हनुमान (शब्द॰) । बाकी-संज्ञा स्त्री० १. गणित में वह रीति जिसके अनुसार किसी एक संख्या या मान को किसी दूसरी सख्या या मान में से घटाते बाकता- वि० [सं० वक्ता ] बोलनेवाला । कहनेवाला । वक्ता । हैं। दो संख्यामो या मानों का अंतर निकालने की रीति । उ०-सत्य बैन को वाकता, बुल्लिव जगनिक राय | -१० २. वह सख्या जो एक सख्या को दूसरी संख्या में से घठाने रासो, पृ०६७। पर निकले । घटाने के पीछे बची हुई संख्या या मान । पाकना-क्रि अ० [सं० वाक् से हिं० वकना, बाकनां ] बकना । क्रि० प्र०—निकालना। प्रलाप करना । उ०-साँवरे जू रावरे यों बिरह बिकानी वाल, पाकी-प्रन्य० [अ० बाको ] लेकिन । मगर । परंतु । पर । बन बन बावरी लौ बाकिबो करति है। -पद्माकर (शब्द॰) । (बोलचाल ) । उ०—मन धन हतो बिसात जो सो तोहि बाकवानी-संज्ञा स्त्री० [सं० वाक् + वाणी ] वाक्यरूपा वाणी । दियो वताय । बाकी बाकी विरह की प्रीतम भरी न वचनरूपा सरस्वती। उ०-पासन मिल्यो है पाकसासन जाय ।-रसनिषि (शब्द०)। को सेय तिन्हैं, जिन की कृपा तै बोल कढ़े बाकबानी के ।-- वाकी -संज्ञा स्त्री॰ [ देश० ] एक प्रकार का धान । इसे वक्की भी ग्रं॰, प्रज० पृ० १२६ । कहते हैं। उ०-पाही सो सीधी लाची बाकी। सुभटी वगरी चाकमाल-वि० [फा० घा+अ. कमाल ] कमालवाला । चमत्कारी। बरहन हाकी ।-जायसी (शब्द०)। गुणी । उ०—ऐसे ऐसे बाकमाल पड़े हुए हैं। -मान०, भा. बाकुंभा-संशा सी० [हिं० कुभी ] कुंभी के फूल का सुखाया हमा ५, पृ० २०६। केसर जो खाँसी मोर सर्दी मे दवा की तरह दिया जाता है।