पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/२०२

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बाछायत ३४४१ बाजरा माही । -जग० श०, पृ० ५१ । २. लड़का । बच्चा । मधुर बहु बाज बजाई । गावहिं रामायन सुर छाई ।- उ.-मैं प्रावत हो तुम्हरे पाछे । भवन जाहु तुम मेरे बाछे । रघुराज ( शब्द०)। २. बजने या बाजे का शब्द । ३. -सूर (शब्द॰) । बजाने की रीति । ४. सितार के पाच तारों में से पहला जो बाछायत-संज्ञा पुं० [फा० बादशाहत ] दे० 'बादशाहत' । उ०- पक्के लोहे का होता है। हत्ती, घोडे, दौलत दक्खन मुलूख वाचायत, वेदर सरीखा बाज-संज्ञा पुं॰ [ देश०] ताने के सूतों के बीच में देने की लकड़ी। तखत इस वक्त जाएगा।-दक्खिनी०, पृ० ४७ । वाज-वि० [सं० वाज ] गति । वेग |-अनेकार्थ०, पृ०६८ । बाजत्र-संज्ञा पुं० [सं० वादित्र, प्रा० बाजित्र वाद्य । बाजा। बाजड़ा-संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बाजरा'। उ०- वजि बाजत्र अनेक स वीरं ।-ह. रासो, पृ० १०५ । बाजदाबा-रांशा पुं० [फा० बाज़दावह ] अपने अधिकारों का बाज'-संज्ञा पुं० [अ० बाज़ ] १. एक प्रसिद्ध शिकारी पक्षी जो त्याग | अपने दावे या स्वत्व से बाज माना। प्रायः सारे संसार में पाया जाता है। क्रि० प्र०-लिखना। -लिखाना । विशेष- यह प्राय: चील से छोटा, पर उससे अधिक भयंकर वाजन@+-संज्ञा पुं० [सं० वादन ( = बाजा ) ] दे० 'बाजा'। होता है। इसका रंग मटमैला, पीठ काली और आँखें लाल उ०-कोटिन्ह बाजन बाजहिं दसरथ के गृह हो ।-तुलसी होती हैं । यह आकाश में उड़ती हुई छोटी मोटी चिडियों और ग्रं॰, पृ०३। कबूतरों आदि को झपटकर पकड़ लेता है । पुराने समय में बाजना'-क्रि० प्र० [हिं० बजना ] १. बाजे आदि का बजना । आखेट और युद्ध में भी इसका प्रयोग होता था जिसके उल्लेख उ०-गुजत अलिगन कुज बिहंगा । बाजत वाजन उठत मंथों में मिलते हैं। प्रायः शौकीन लोग इसे दूसरे पक्षियों का तरंगा ।—विश्राम० ( शब्द०)। २. लड़ना। भिड़ना। शिकार करने के लिये पालते भी हैं। इसकी कई जातियां झगड़ना। ३. कहलाना। प्रसिद्ध होना। पुकारा जाना । होती हैं । ४. लगना । प्राघात पहुँचना । उ०-उठि बहोरि मारुति २. एक प्रकार का वगला । ३. तीर में लगा हुप्रा पर । शरपुंख । युवराजा । हने कोपि तेहि घाव न बाजा । —तुलसी (शब्द०)। बाज-प्रत्य० [फा० बाज़ ] एक प्रत्यय जो शब्दों के अंत में बाजना--वि० बजनेवाला । जो बजता हो । लगकर रखने, खेलने, करने या शौक रखनेवाले मादि का अर्थ देता है। जैसे,—गावाज, कबूतरवाज, नशेबाज, बाजना -संज्ञा स्त्री० [सं० / ब्रज ] जा पहुंचना । सामने मौजूद दिल्लगीवाज, आदि। हो जाना। ( क्व० )। बाजर-वि० [फा० वाज़ ] वंचित । रहित । बाजनि-संज्ञा स्त्री० [हिं०] वजने का कार्य, भाव या स्थिति । उ०-पृथु फटि कल किकिनि की वाजनि । विलुलित वर मुहा०—बाज आना = (१) खोना। रहित होना । जैसे, हम कवरी की राजनि ।-नंद०, पृ० २४८ । दस रुपए से बाज पाए। (२) दूर होना । अलग होना । पास न जाना । जैसे,—तुमको कई बार मना किया पर तुम बाजरा-पंज्ञा पुं० [सं० वर्जरी ] एक प्रकार की बड़ी घास जिसकी शरारत से बाज नहीं पाते हो। बाज करना = रोकना । मना बालो मे हरे रंग के छोटे छोटे दाने लगते हैं। इन दानों की करना। वचित करना । उ०-देखिवे ते पॅखियान को बाज गिनती मोटे अन्नों में होती है। प्रायः सारे उत्तरी, पश्चिमी के लाज के भाजि के भीतर आई।-रघुनाथ (शब्द०)। पौर दक्षिणी भारत लोग इसे खाते हैं। जोंधरिया। बाज रखना रोकना । मना करना । बाज रहदा दूर वजड़ा। रहना। अलग रहना। विशेप-इस अनाज की खेती बहुत सी बातों में ज्वार की खेती बाज-वि० [अ० वनज़] कोई कोई । कुछ विशिष्ट । जैसे,—(क) से मिलती जुलती होती है। यह खरीफ की फसल है और बाज आदमी बड़े जिद्दी होते हैं । (ख) बाज मौको पर चुप प्रायः ज्वार के कुछ पीछे वर्षा ऋतु में बोई और उससे कुछ से भी काम बिगड़ जाता है । (ग) बाज चीजें देखने में तो पहले अर्यात् जाड़े के प्रारंभ में काटी जाती हैं। इसके खेतों बहुत अच्छी होती हैं पर मजबूत बिलकुल नहीं होती। में खाद देने या सिंचाई करने की विशेष प्रावश्यकता नहीं होती। इसके लिये पहले तीन चार बार जमीन जोत दी बाज-क्रि० वि० बगैर । बिना । (क्व०)। उ०-अब तेहि बाज जाती है और तब बीज बो दिए जाते हैं । एकाध वार राक भा डोलौ । होय सार तो बरगों बोली।-जायसी निराई करना अवश्य आवश्यक होता है। इसके लिये किसी (शब्द०)। वहुत अच्छी जमीन की आवश्यकता नहीं होती और यह बाज-संज्ञा पु० [सं० वाजिन् ] घोड़ा। उ०-इतने सातो जात साधारण से साधारण जमीन में भी प्रायः प्रच्छी तरह होता हरि उतते पावत राज । देखि हिए संशय कह्यो गह्यो चरन है। यहां तक कि राजपूताने की बलुई भूमि में भी यह तजि बाज ।-विश्राम (शब्द०)। अधिकता से होता है। गुजरात प्रादि देशों में तो अच्छी बाज-संज्ञा पुं० [सं० बाय ] १. वाद्य । वाजा | उ-महा बरारी रूई वोने से पहले जमीन तयार करने के लिये इसे ७-२४ --