पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/२१

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30- प्र० फकड़ी ३२६० फगफूर का अलग अलग होना । मोक्ष । छूटना। २. जवड़ा (को०) । फक्कर-संज्ञा पुं० [अ० फक्क ] मोचन । सोलना । संयुक्त वस्तुप्रो ३. खोलना। को प्रलगाना या पृथफ करना । मुहा०-फक रेहन = बंधन से मुक्त होना । फक कराना= फक्कड़-संशा पु० [सं० फक्किका ] गालीगलौज । फुवाच्य । छुडाना। क्रि० प्र०-चकना। फकड़ी -सशा सी० [हिं० फक्कड़ +ई (प्रत्य०) ] दुर्दशा । दुर्गति । मुहा०—फक्कड़ तौलना = गालीगुपता वकना । फुवाच्य कहना । -खूबो में अगर जावै तो होती यह फकड़ी। बैचे है फक्कड़-वि० १. जो अपने पास कुछ भी न रसता हो, सब कुछ कोई हाथ कोई छीने है लकड़ी।-नजीर (शब्द॰) । उड़ा डालता हो। मस्त मौला। २. उच्सल । उक्त । फकत-वि० [अ० फ़क़त ] १. वस । अलम् । पर्याप्त । २. फेवल । ३. फकीर । भिसमगा। सिर्फ । उ०-एक मौरत ने फस्त कहा है कि नाक कान काट फक्कड़याज-वि० [हिं० फक्कड़+फा० वाज] १. गाली बकनेवाला । लूगी और तुम यहाँ दौड़े पाए । तुम्हें शरम नहीं पाती।- २.निघंन या कंगाल। दुर्गाप्रसाद (शब्द०)। फकर'-संज्ञा पुं० [अ० फकीर ] ० 'फकीर'। उ०-दुइ पासाही फक्कड़याजी-संश स्त्री० [हिं० फक्कड़ + फ्रा० याजी ] १. गालियां बफना । गाली गलौज करना । २. निर्धनता। फकर की इक दुनियाँ इक दीन ।-पलटू०, भा०१, फक्क-संशा पुं० [ फ़िक, हिं० फिकर ] दे० 'फिक' । उ०- पृ०६३। पर इसफो क्या चिंता फक्कर तो होना ही था, जप न हो फकर-सज्ञा पुं० [अ० फक्र ] निधनता । गरीबी । दरिद्रता । उ०- सकी।-श्यामा०, पृ० १११ । कबही फाका फकर कवही लाख करोर।-पलटु, फक्किका--सरा सी० [सं०] १. ग्रंथ का वह अंश जो शास्त्राय, गूढ भा० १, पृ० १४ । व्याख्या मे दुरूह स्थल को स्पष्ट करने के लिये कहा जाय । फका-संज्ञा पु० [हिं० फाँक ] फोक । टुकड़ा । यूट प्रश्न । २. अनुचित व्यवहार । ३. घोसेवाजी। फकिरवाज-सज्ञा पुं० [हिं० फकीर+वा (प्रत्य०)] दे० 'फकीर' । उ-तोहि मोरि लगन लगाए रे फकिरवा ।-कवीर श०, फक्कीरी-संघा पुं० [हिं० ] ३० 'फकीर'। उ०-दास पलटू कहे यार फकीर को।-पलटु०, भा०२, ५० १० । भा०२, पृ०४५1 फकीर-सशा पुं० [अ० फकीर ] [ खो० फकीरन, फकीरनी ] १. फक्कुल रिहन, फक्के रिहन-सगा पुं० [अ०] गिरवी या बंधक रखी चीज को छुड़ाना। भीख मांगनेवाला। भिखमगा। भिक्षुक । उ०-साहिन के उमराव जितेक सिवा सरजा सब लूट लिए हैं । भूपन ते विनु फक्रोफाका-वंश पुं० [अ० फ़क व फाकट् ] निर्धनता और भूस दौलत ह के फकीर हृ देस विदेस गए हैं।-भूपण गरीवी पौर उपवास । उ०-कहाँ तक मैं भव फक्रोफाका (शब्द०)। २. साधु । संसारत्यागी। उ०-उदर समाता सहूँ, नहीं मुज में बर्दाश्त ता पुप रहूँ ।-दक्खिनी॰, पृ. अन्न ले तनहि समाता चीर । अधिकहि संग्रह ना करे तिसका २११। नाम फकीर । —कबीर (शब्द०)। ३. निर्धन मनुष्य । वह फखर-सरा पुं० [फा० फाखर या फरन] गौरव । गर्व । मभिमान । जिसके पास कुछ न हो। जैसे,-पापको मपने इल्म का बहुत फसर है। मुहा०- फकीर का घर बड़ा है = फकीर को अपनी फकीरी की फखीर-वि० [फा० फ़ख़ीर ] मभिमानी । घमंडो। शक्ति से सब कुछ प्राप्त है। फकीर की सदा = मांगने के लिये फरन-संज्ञा पुं० [फा० फस् ] गर्व । मभिमान । दे० 'फखर' । उ०- फकीर की आवाज या पुकार । मिश्र जी भी चलते चलते अपनी ढाई चावलो की खिचड़ी फकीराना-वि० [अ० फकीरानह ] फकीर जैसा। फकीरों की पकाते रहे। वह सरकार के प्रादमी हैं, इसपर उनको फस तरह । साधुओं के समान । भी है।-काले०, पृ० ४२॥ फकीरी-संज्ञा स्त्री० [अ० फकीरी, हिं० फकीर+ई ] १. भिखमंगा फनिया-कि० वि० [फा० फ़खियह ] सगर्व । गर्वपूर्वक । साभिमान । पन । २. साधुता । उ०-मन लागो मेरो यार फकीरी मे । अभिमान सहित । जो सुख पावो नाम भजन में, जो सुख नाहिं अमीरी में। फग-संशा पु० [हिं० फंग] दे० 'फंग'। उ०-घरो मघम कबीर श०, भा०१, पृ० ७० । ३. निर्धनता । ४. एक प्रकार जड़ जाजरो जराजवन सूकर के सावक ढका ठकेलो. मग मे । फा अंगूर। गिरो हिए हहरि हराम हो हराम हन्यौ हाय हाय करत फकीरी लटका-संज्ञा पुं० [हिं० फकीरी + लटका ] फकीर की दी परीगो काल फग में । तुलसी बिसोक ह्र प्रिलोकपति लोक हुई या कही हुई दवा या जड़ी बूटी। गयो नाम को प्रताप वात विदित है जग में । सोई राम नाम फकीह-संज्ञा पुं० [अ० फकीह ] धर्मशास्त्र का ज्ञाता । मुसलिम धर्म जो सनेह सो जपत जन ताकी महिमा क्यों कही है जात मग शास्त्र का विद्वान को॰] । में। -तुलसी पं., पृ० २१५ । फक्क'-संज्ञा पुं० [सं०] पंगु या विकलांग व्यक्ति । मंगहीन [को०] । फगफूर-संशा ० [फा० फरफूर ] चीन के बादशाहों की उपाधि । pi