पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/२१८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

धापा बापुरा बापुरा-वि० [सं० बर्वर (= तुच्छ, मूढ़ ?) या देश०] [स्त्री० बापुरी] विशेष-- इस शब्द का प्रयोग प्रधिकरण का चिह्न 'में' लुप्त १. तुच्छ । जिनकी कोई गिनती न हो। उ०-तव प्रताप करके अव्ययवत् ही होता है । महिमा भगवाना। का बापुरो पिनाक पुराना । —तुलसी बाबननेट-संज्ञा वी० [अं० वाविननेट ] एक प्रकार का जालीदार (शब्द०)। (ख) कहाँ तुम त्रिभुवनपति गोपाल । कहाँ बापुरो कपड़ा जिसमें गोल गोल षट्कोण छोटे छोटे छेद होते हैं । नर शिशुपाल ।—सूर (शब्द॰) । २. दीन । बेचारा । उ०- यह मसहरी प्रादि के काम माता है। संसय साउज देह मे संगहि खेल जुआरि | ऐसा घायल बापुरा बाबर-वि० [सं० वातुल ] दे० 'वाउर' । उ०-आपुहिं वावर जोवन मारै झारि ।- बीर (शब्द०) । प्रापु सयाना । हृदय वसु तेहि राम न जाना ।-कवीर बी० बापू- ज्ञा पु० [हिं०] १. दे० 'बाप'। २. दे० 'वावू'। ३. (शिशु०), पृ० १६२ । महात्मा गांधी का एक प्रादरसूचक संबोधन | घाबर-पंज्ञा पुं० [ तु० घाबुर, फा० बाबर ] पहला मुगल सम्राट वाप्पा-संज्ञा पुं० [ देश० ] चारणों द्वारा वरिणत इतिहास के अनुसार जिसने राणा सांगा को पराजित किया था। हुमायू इसका बब्लभी वंश के महाराज गुहादित्य से आठवीं पीढ़ी में उत्पन्न पुत्र था। नागादित्य का पुत्र । वाबरा3--वि० [सं० वर्वर ] निम्न जाति का । क्रूर । अंत्यज । विशेष-जब वह छोटा था तव इसके पिता को भीलों ने मार बाबरची-संज्ञा पुं० [फा० बावरची ] दे॰ 'वावरची' । डाला था। इसकी रक्षा इसकी माता ने और ब्राह्मण यौ०-बाबरचीखाना-पाकणाला। पुरोहितो ने की थी। यह नागोद मे ब्राह्मणों की गाएँ बावरलेट-संज्ञा स्त्री० [हिं० बायननेट ] दे॰ 'बावननेट' । चराया करता था, जहां इसको हारीत ऋषि और एकलिंग बाबरासंज्ञा पु० [हिं०] दे० 'बावला'। उ०—कोउ बाबरे शिव का दर्शन हुमा था और हारीत ने उसे शिव की दीक्षा भए गुलालहिं गगन उड़ावत ।-पोद्दार अभि० न०, दी थी। इसने चित्तोर जाकर वहां अपना अधिकार जमाया पृ० ८६५॥ और पश्चिम के देशों का भी विजय किया। मेवाड़ के राज- बाबरी-संज्ञा स्त्री० [हिं० बबर ( =सिंह) ] लंबे लंबे बाल जो वंश का यह प्रादिपुरुष था। इसका जन्मकाल टाड साहब लोग सिर पर रखते हैं । जुल्फ। पट्टा। ने सं० ७६६ वि० या ७४४ ई० लिखा है। बाबला-संशा पुं० [हिं०] दे० 'बाबुल'। उ०-वाबल बैद बुला- बाफ-संज्ञा स्त्री० [सं० वाप्प ] कोई तरल पदार्थ खौलाने से उसमें इया रे, पकड़ दिखाई म्हारी बांह । मूरख वैद मरम नहिं से उठा हुआ धुएँ के आकार का पदार्थ । विशेष—दे० 'भाप । जाने, करक कलेजे माह ।-संतवानी०, भा॰ २, पृ० ७१ । वाफक- संज्ञा पुं॰ [ सं० वाष्पक ] प्रश्रु । प्रा सू । ७०--- मिलत बावहिया@+-संज्ञा पुं॰ [ अप० बप्पीहा, राज० बाबीहा, पपीहा, परस्पर दोउब रानिय । बाफक भी ज बसन रस सानिय ।- पपइया ] दे॰ 'पपीहा'। उ०—(क) वावहियउ प्रासाढ़ प० रा०, पृ० १२२ । जिम विरहणि करइ विलाप ।-ढोला०, दु० २६ । (ख) बाफता संज्ञा पु० [फा० याफतह , बाफ्तह ] एक प्रकार का रेशमी चार्वाहया चढि डूंगरे चढ़ि ऊँचइरी पाज ।-ढोला०, दू० कपड़ा जिसपर कलाबत्त और रेशम की बूटियां होती हैं । २६ । (ग) बाबहियउ पिउ पिउ करइ कोयल सुरंगइ यह दोरुखा भी होता है । उ०-सुदर जाकै बाफता खासा साद ।-ढोला०, दू० २५२ । मलमल ढेर । ताकै प्रागे चौसई पानि धरै बहुतेर ।-सुदर वाबा'--संज्ञा पुं० [तु• तुल० अप० बप्पा, बब्बा] १. पिता । उ०- न०, भा२, पृ०७३७ । (क) दादा वावा भाई के लेखे चरन होइगा बंधा। अव की बाब'-संज्ञा पुं० [अ०] १. पुस्तक का कोई विभाग । परिच्छेद । बेरियां जो न समुझे सोई है अंधा ।-कबीर (शब्द॰) । (ख) अध्याय । उ०-दरीचा तू इस बार का मुज पो खोल । बैठे संग वावा के चारों भइया जेंवन लागे। दसरथ राय पापु मिल उस यार सूक्यू गहूँ मुज कू बोल |-दविखनी०, जेवत हैं घति पानंद रस पागे । —सूर (शब्द०)। २. पितामह । पृ० ८४ । २. मुकदमा । ३. प्रकार | तरह । ४. विषय । दादा । ३. साधु संन्यासियों के लिये एक शादरसूचक शब्द । ५. माशय । मतलब । अभिप्राय । ६. द्वार । दरवाजा। जैसे, बाबा रामानंद । ४. बूढ़ा पुरुष । उ०-केशव केशन अस करी, बैरी हूँ न कराहिं । चंद्रवदन मृगलोचनी बाबा बाब-सज्ञा स्त्री॰ [ स० वायु] वायु । पवन । उ०-दिण परषो कहि कहि जाहिं ।-केशव (शब्द०)। ५. एक संबोधन दिस पालटइ सखी वाब फरूकती जाइ संसार ।-बी० रासो, जिसका व्यवहार साधु फकीर करते है। जैसे,—मला पृ०६८। हो, बावा। वायची-संज्ञा स्त्री॰ [ देश० ] दे॰ 'बकुची' । विशेष-झगड़े या बातचीत में जव फोई कोई बहुत साधु बाबत-संज्ञा स्त्री० [१०] १. संबंध। २. विषय । जैसे,—इस या शांत भाव प्रकट करना चाहता है और दूसरे से न्यायपूर्वक आदमी की बावत तुम क्या जानते हो। विचार करने या शांत होने के लिये कहता है तब वह प्रायः ७-२६ ।