पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/२२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

फंगुश्री ३२६१ फजीहत उ०-(क) प्रो फगफूर की बारगाह बीच मा । -दक्खिनी०, हारी, फगुहारिन ] १. वह जो फाग खेलने के लिये होली में पृ० २७० । (ख) खिदमत में है सारे मेरे फगफूर के आगे। किसी के यहां जाय । उ०-मुद्यो व्रजमंडल मदन सूख सदन -कवीर मं०, पृ० ४६६ । में नंद को नंदन चित चोरन डरत है। अंबर में राधा मुख फगुआ-संज्ञा पुं० [हिं० फागुन ] १. होली। होलिकोत्सव का चंद्र उयो चाहे तो लो फगुहारे पाहरुनि सोर सरसत हैं।- दिन । २. फाल्गुन के महीने में लोगों का वह आमोद प्रमोद देव (शब्द०)। २. फगुआ गानेवाला पुरुष । जो वसंत ऋतु के आगमन के उपलक्ष मे माना जाता है। फजर-संज्ञा स्त्री० [अ०] प्रात:काल । सवेरा । उ० (क) मुझे इसमें लोग परस्पर एक दूसरे पर रंग कीच प्रादि डालते हैं प्राया जाने, जाया माने तो ठिकाने रहि, फजर की गजर और अनेक प्रकार के विशेषतः अश्लील गीत गाते है । फाग । वजाऊँ तेरे पास मैं ।-सूदन (शब्द०)। (ख) फजर उ०-~दीन्हें मारि असुर हरि ने तब दीन्हों देवन राज । उठि रेन की जागी। चलन दर मॅजल को लागी। -घट०, एकन को फगुणा इंद्रासन इक पताल को साज ।-सूर पृ० ३३४ । (शब्द०)। फजिर-संज्ञा स्त्री० [अ० फजर ] दे० 'फजर'। उ०-फजरि · मुहा०-फगुआ खेलना = होली के उत्सव में रंग गुलाल प्रादि एक प्रानि हाजरि भयो, सुरजव करी सलाम । -ह. रासो, दूसरे पर डालना। उ०-वन घन फूले टेसुमा बगियन वेलि । पृ० ११४॥ चले विदेस पियरवा फगुआ खेलि । -रहीम (शब्द०)। फजल'-संज्ञा पुं० [अ० ] अनुग्रह । कृपा। मेहरबानी । उ०-दिया फगुश्रा मानना = फागुन में स्त्री पुरुषों का परस्पर मिलकर जिवजान जो पिया पहिचान ले । राह से रोशनी फजल रंग खेलना और गुलाल मलना प्रादि । उ०-खेलत बसंत आवै ।-तुरसी० १०, पृ० २० । राजाधिराज । देखत नभ कौतुक सुर समाज। नूपुर किकिन फजला-संज्ञा पुं० [अ० फजर ] दे० 'फजर' । पुनि अति सुहाइ । ललनागन जब गहि धरहिं घाइ । लोचन फजिरी-संज्ञा स्त्री० [अ० फजर ] दे० 'फजर'। जिहि फगुमा मनाइ । छाहिं नचाइ हा हा कराइ ।- फजिला-संज्ञा पुं० [अ० फजल ] दे० 'फजल' । तुलसी (शब्द०)। फजिहता-सज्ञा स्त्री॰ [अ० फजीहत] प्रप्रतिष्ठा। फजीहत । ३. फाल्गुन के महीने में गाए जानेवाले गीत, विशेषतः अश्लील फजिहतिताईल-संशा स्री० [हिं० फजीहति+ताई (प्रत्य०)] गीत । ४. वह वस्तु जो किसी को फाग के उपलक्ष्य में दी फजीहत होने का भाव । अप्रतिष्ठा । बेइज्जती। उ०-काके जाय । फगुआ खेलने के उपलक्ष में दिया जानेवाला उपहार । ढिग जाई काहि कवित सुनाई भाई अब कबिताई रही उ०—(क) ज्यों ज्यों पट झटकति हटति हसति नचावति फजिहतिताई है । -कविता को०, भा० १, पृ० ३६१ । नैन । त्यों त्यों निपट उदार 8 फगुआ देत वनैन ।-बिहारी फजीत-संज्ञा स्त्री० [अ० फजीहत ] दे॰ 'फजीहत' । उ०- (शब्द॰) । (ख) कहैं कबीर ये हरि के दास । फगुमा मांग रसियो नागी राड़ सू, फसियो होण फजीत ।-चांकी. वैकुंठवास ।-कवीर (शब्द॰) । ग्रं॰, भा०२, पृ० २। क्रि० प्र०—देना ।-माँगना । फजीताg+-संशा पुं० [अ० फजीहत ] दे॰ 'फजीहत' । फगुआनाई-क्रि० स० [हिं० फगुश्रा ] किसी के ऊपर फागुन के फजीती -सज्ञा बी० [प्र. फजीहत ] दे० 'फजीहत'। महीने में रंग छोड़ना या उसे सुनाकर अश्लील गीत गाना । फजीलत-सञ्ज्ञा स्त्री० [अ० ] उत्कृष्टता । श्रेष्ठता । फगुन-संज्ञा पुं० [सं० ] एक गोत्रप्रवर्तक ऋषि का नाम । मुहा०-फजीलत की पगड़ी = विद्वत्तासूचक पदक वा चिह्न। फगुनहट-संज्ञा स्त्री॰ [हिं० फागुन + हट (प्रत्य०) ] १. फागुन में उ०-जिन्हें इस हुनर में फजीलत की पगड़ी हासिल है वे चलनेवाली तेज हवा जिसके साथ बहुत सी धूल और वृक्षों क्या नही कर सकते ।-भट्ट (शब्द०)। की पत्तियाँ आदि भी मिली रहती हैं । २. फागुन में होनेवाली विशेप-मुसलमानों में यह चाल है कि जब कोई पूर्ण विद्वान वर्षा। होता है और विद्वानों की सभा में अपनी विद्वत्ता को प्रमाणित फगुनियाँ -संज्ञा पुं० [हिं० फागुन+इयाँ (प्रत्य॰)] त्रिसंघि नामक करता है तब सब विद्वान् वा प्रधान उसके सिर पर पगड़ी बांधते हैं जिसे फजीलत की पगड़ी कहते हैं। इस पगड़ी को फगुवा-संज्ञा पुं० [हिं० फाग ] दे० 'फगुआ' । उ०-जो पै फगुवा बांधकर वह जिस सभा मे जाता है लोग उसका आदर और देत बनै नहिं, राधा पाइन लागु ।-नंद० ग्रं॰, पृ० ३८४ । प्रतिष्ठा करते हैं। फगुहरा-संज्ञा पुं० [हिं० फगुश्रा ] दे० 'फगुहारा'। फजीहत-संश सी० [अ०] दुर्दशा । दुर्गति । अपमान । बदनामी । फगुहार--संज्ञा पुं० [हिं० फगुना+हार (प्रत्य॰)] फाग खेलने- उ०-(क) तुलसी परिहरि हरिहरहिं पांवर पूजहिं मूत । वाला । उ०-बाहर सों फगुहार जुरे जुव जन रस राते ।- अंत फजीहत होहिंगे गनिका के से पूत ।-तुलसी (शब्द॰) । प्रेमघन, भा०१, पृ० ३८३ । (ख) साई नदी समुद्र को मिली बड़प्पन जानि । जाति नसायो फगुहारा-संशा पुं० [हिं० फगुना+हारा (प्रत्य॰)] [ सी० फगु- मिलत ही मान महत को हानि । मान महत की हानि, कहो 1