पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/२४६

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उ०- बिगाना विगीना उत्पन्न कर देना जिससे वह ठीक या पूरा न उतरे । जैसे, चिगुन -वि० [सं० विगुण] जिसमें कोई गुण न हो । निर्गुण । इतना सब कुछ करके भी अंत में तुमने जरा से के लिये बात गुणरहित । बिगाड़ दी। ३. दुरवस्था को प्राप्त कराना। बुरी दशा में विगुर-वि० [सं० वि+ गुरु ] जिसने किसी गुरु से शिक्षा या लाना । जैसे,—दुर्व्यसन ही युवको को बिगाड़ते हैं । ४. नीति दीक्षा न लो हो । निगुरा। उ०-हरि विनु मर्म बिगुर बिनु पथ से भ्रष्ट करना । कुमार्ग में लगाना। जैसे,—महाजनों ने फंदा । जहं जहँ गए अपनपो खोए तेहि फंदे बहु फंदा।- रुपए देकर उनके लड़के को बिगाड़ दिया। ५. स्त्री का कबीर (शब्द०)। सतीत्व नष्ट करना । पातिव्रत्य भंग करना ६. स्वभाव बिगुरचिन-संज्ञा स्त्री० [सं० विकुञ्चन ? या देश० ] दे० 'बिगू- खराव करना । बुरी आदत लगाना। ७. बहकाना। ८. व्यर्थ चन' । उ०-कविरा परजा साह की तू जिन करे खुवार । व्यय करना । जैसे,—तुम तो यों ही अनावश्यक कामों मे खरी विगुरचिन होयगी लेखा देती बार ।-कबीर (शब्द०)। रुपए विगाड़ा करते हो। विगुरदा-सज्ञा पु० [देश॰] प्राचीन काल का एक प्रकार का बिगाना-वि० [फा० बेग़ाना ] १. जो अपना न हो। जिससे हथियार । उ०-कपटी जब लो कपट नहि साच बिगुरदा मापसदारी का कोई सबंध न हो। पराया। गैर । उ०- धार। तब लो कैसे मिलेगो प्रभु साँचो रिझवार ।-रसनिधि किंतु फिर भी बन रहे हैं आज अपने ही विगाने ।-क्वासि, (शब्द०)। पृ०६५। २. अजनवी । अनजान । विगुर्चन - संज्ञा स्त्री० [हिं० विगूचन ] दे० 'बिगूचन' । बिगारी -संज्ञा पुं० [हिं० ] दे० 'निगाड़' । उ०-बुधि न विचार, बिगुल -संज्ञा पुं॰ [पं०] अंगरेजी ढग की एक प्रकार की तुरही जो न बिगार, न सुधार सुषि देह गेह नेह नाते मन से निसरिगे। प्रायः सैनिकों को एकत्र करने अथवा इसी प्रकार का कोई -तुलसी ग्रं॰, पृ० ३३६ । और काम करने के लिये संकेत रूप में बजाई जाती है। बिगार-संज्ञा स्त्री० [हिं० ] दे० 'वेगार' । मुहा०-बिगुल बजना = (१) किसी कार्य के लिये प्रादेश होना। बिगारना -क्रि० सं० [हिं०] दे० 'बिगाड़ना'। (क) सरिता (२) कूच होना। निज तट तोरि जो रूखन लेति खसाय । नीरि विगारति बिगुलर-पंज्ञा पुं० [अं॰] फौज में बिगुल बजानेवाला। प्रापनो सोभा देति नसाय । --शकुंतला, पृ०६२ । (ख) बिगूचन--संज्ञा स्त्री॰ [ सं० विकुञ्चन अथवा विवेचन ? ] १. वह मापनों वनाइवे कों और कों विगारिबे को सावधान हवे अवस्था जिसमे मनुष्य किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है। प्रस- परद्रोह सो हुनर है।-ठाकुर०, पृ० १३ । मंजस । अड़चन । उ०-ऐसा भेद विगूचन भारी । वेद कतेब विगारिg+-संज्ञा सी० [हिं०] दे० 'बेगार' । उ॰ नाहिं तौ भव दीन अस दुनियां, कौन पुरिप कौन नारी। बीर ग्रं०, विगारि मह परिही छूटत अति कठिनाई हो।-तुलसी पृ० १०६ । २. कठिनता। दिक्कत । उ०-सूरदास प्रव (शब्द०)। होत विगूचन भजि ले सारंगपान ।—सूर (शब्द०)। बिगारी'-संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'वेगारी'। बिगूचना १-क्रि० प्र० [स० विकुञ्चन ? ] १. संकोच में पड़ना। बिगारी-संश पुं० [हिं०] दे० 'बेगारी' । दिक्कत मे पड़ना। अड़चन या असमंजस में पड़ना । उ०- बिगास+-संज्ञा पुं० [सं० विकास ] दे० 'विकास' । उ०-बतखन (क) संगति सोइ विगूचन, जो है साकट साथ । कंचन कटोरा भान कीन्ह परगासू । केवल करी मन कीन्ह विगासू ।- छाडि के सनहक लोन्ही हाथ-कवीर (शब्द॰) । (ख) ताकर जायसी पं० (गुप्त०), पृ० ३४० । हाल होल अधकूचा । छह दरशन में जैन विगूचा ।-कबीर बिगासना-क्रि० स० [सं० विकास ] विकसित करना। (शब्द०) । २. दबाया जाना । पकड़ा जाना । उ०-राम ही खिलाना। उ०-प्रभी अधर अस राजा सब जग पास करे । के कोप मधुकैटभ संभारे अरि ताही ते विगूचे बलराम सों न मेल है। -हृदयराम (शब्द०)। केहि कह कँवल विगासा की मधुकर रस लेई ।—जायसी (शब्द०)। बिगूचना-क्रि० सं० [सं० विकुञ्चन ] दवोचना । धर दबाना । छोप लेना। उ०-लै परनालो सिवा सरजा करनाटक लौ बिगाहा-संज्ञा पुं० [प्रा० विग्गाहा ] दे० 'बिग्गाहा' । विगिंध-संञ्चा पुं० [सं० वि (= विकृत)+गन्ध ] प्रसह्य दुर्गध । सब देस बिगूचे ।- भूषन (शब्द०)। उ०-सुदर नर तन पाइ के भगति न कीन्ह बिचारि । भयो बिगूतना-क्रि० अ० [हिं०] दे० 'विगूचना' । उ०—जोगी जती तपी क्रिमी विनु नैन को बास विगिध संवारि ।-संत० दरिया, सन्यासी, मह निसि खोज काया । मैं मेरी फरि बहुत बिगूते, पृ० १७॥ बिप बाघ जग खाया ।-कवोर नं०, पृ० १५३ । विगिर, विगिरि@f-क्रि० वि० [फा० बगैर, हिं० बिगर, विगिरि] बिगृह-संज्ञा पु० [सं० विग्रह ] विग्रह । शरीर । देह । उ०—सुध दे० 'बगैर'। उ०-ता विगिरि ह· करि निकाम निज धाम ' मीन लग्न बिगृह सु त्यागि । करि हवन जवन सुख हृदय फंह प्राकुत महाउत सु ांकुस ले सटक्यो।-भूषण ग्रं०, 'पागि । -ह. रासो, पृ० २६ । पु.४३ । विगोना-क्रि० सं० [स० विगोपन ] १. वष्ठ करना । विवाय ।