पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/२५६

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वित्ती ३४६५ घिदरी' बित्ती-संज्ञा स्त्री० [सं० वृत्ति ] वह धन जो दूकानदार लोग गोशाला बिथुरना -क्रि० प्र० [सं० विस्तरण ] दे॰ 'विथरना' । उ०-पुहुप या और किसी धर्मकार्य के लिये माल या दाम चुकाने के परे बिथुरै पुनि वेही। ताते मैं मानत अब येही 1-पद्माकर समय, काटकर अलग रखते हैं। (शब्द०)। विथकना--क्रि० प्र० [हिं० थकना] १. थकना | २. चकित होना। बिथुरा-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [देश॰] पीड़ा । -नंद० म०, पृ० ६६ । हैरान होना । स्तब्ध होना । उ०-प्रति अनूप जहँ जनक बिथुराना-क्रि० स० [हिं० विथुरना ] दे० 'बिय राना' । निवासू । विथकहिं विबुध बिलोकि बिलासू । -तुलसी बिथुरित-वि० [हिं० विथुर + इत (प्रत्य॰)] लोल । चंचल । प्रस्त (शब्द०)। ३. मोहित होना । उ०—सूर अमर ललना गण व्यस्त ।-विथुरित कुडल प्रलक तिलक झुकि झाई लेही।- अमर विथकी लोक बिसारी ।—सूर ( शब्द०)। नंद० प्र०, पृ० ३२ । बिथकित-वि० [हिं० बिथकना ] थकित । मोहित । स्तब्ध । उ० - बिथोरना-क्रि० सं० [हिं०] दे० 'बिथराना'। तुलसी भइ गति बिथकित करि अनुमान । रामलषन के रूप बिदकना-क्रि० [अ० विदरण] १. फटना । चिरना। विदीर्ण होना। न देखेउ पान ।-तुलसी ग्रं॰, पृ० २१ । २. घायल होना । जख्मी होना । ३. भड़कना । चौंकना । बिथरना-त्रि० प्र० [सं० विस्तरण, प्रा० विथ्थरण या विकिरण] १.' बिदकाना-क्रि० स० [स० विदारण] १. फाडना । विदीणं करना। छितराना । बिखरना। इधर उधर होना । २. अलग अलग २. घायल करना । जख्मो करना । उ०-चोच चंगुलन तन होना । खिल जाना। उ०-परा पिरति कंचन मह सीसा । बिदकायो, मुछित ह पुनि श्रारी लै धायो ।-विश्राम बिथरि न मिलह सावं पइ सीसा । - जायसी (शब्द०) । (शब्द०)। ३. चौकाना । भड़काना । बिथरनीg+-संज्ञा स्त्री० [सं० वैतरणी ] दे० 'वैतरणी'। उ०- बिदरॅग-2० [फ़ा॰ बदरंग] दे० 'बदरग' । उ०-देह सुरंगी तब मन सूधा को कूच किया है, ग्यान विथरनी पाई। जीव की लग जब लग प्राण समीप । जीव जाति जाती रही सुंदर गांठि गुढी सब भ.गी, जहाँ की तहाँ ल्यो लाई। कबीर बिदरंग दीप ।-सुदर ग्रं॰, भा॰ २, पृ० ७१० । ०, पृ० १०६ । बिथराना-क्रि० स० [हिं० विथरना ] विखेरना । अस्त व्यस्त बिदरी-पज्ञा पु० [ सं० विदर्भ ] १. देश विशेष । विदर्भ नाम का करना। इधर उधर करना। उ०-हार तोरि विथराइ देश । बरार । उ०-दहिनइ बिदर चंदेरी वाए। दुहु को दियो । मैया ये तुम कहन चली कत दषि माखन सब छीन होब बाट दुहु ठाएं। -जायसी (शब्द०)। २. एक प्रकार लियो।-सूर (शब्द॰) । बिथाg+-संज्ञा स्त्री० [सं० व्यथा, प्रा० विथा ] दुःख । पीड़ा । विशेष-यह तांबे और जस्ते के मेल से बनती है और इसके क्लेश । कष्ट । तकलीफ। उ०—(क) हृदय की कबहुँ न पात्र भी बनते हैं। प्रारंभ में इसका बनना विदर्भ देश से ही जरनि घटी। बिन गोपाल विथा या तनु की कैसे जात कटी। प्रारंभ हुपा था, इसलिये इसका यह नाम पड़ा। —सूर (शब्द०)। (ख) नैना मोहन रूप सों मन कों देत बिदरदा-वि० [ फा० बेदर्द | दे० 'वेददं' । उ०-झमक सहचरी मिलाय । प्रीति लगै मन की विथा सकी न ये फिर पाय ।- सरन, बिदरदा, जुल्फ जाल झक मोरें। -पोद्दार अभि० -रसनिधि (शब्द०)। ग्रं॰, पृ० ३६३ | विथार-मंज्ञा पु० [सं० विस्तार, प्रा० विथ्यार, विथार ] दे० बिदरना-सञ्ज्ञा श्री० [सं० विदीर्ण ] दरार । दरज । शिगाफ । 'विस्तार' । उ-तनकहि बीज बोइ बिरख बिथार होइ, बिदरनाल-क्रि० प्र० [सं० विदीर्ण ] विदीण होना । तनक चिनग परै भसम समान है। -सुदर० ग्रं० (जी०), खड होना । फटना । उ०-(क) हृदय न विदरेउ पंक जिमि भा० १, पृ० १०३ । बिछुरत प्रीतम नीर । --मानस, २। १४६ । (ख) हृदय बिथारना-त्रि० स० [हिं० बिथरना का सक० रूप ] छितर ना। दाडिम ज्यों न विदरयो समुझि सील सुभाउ । -तुलसी , छिटकाना। बिखेरना । उ०-(क) मनहुँ रविबाल पृ. ३५२ । मृगराज तन निकर करि दलित अति ललित मनिगन बिदरना२-वि० [ वि०जी० विदरनि ] फाड़नेवाला। चीरने- विथारे ।—तुलसी (शब्द०)। (ख ) रावणहिं मारों पुर वाला। विदीर्ण करनेवाला । उ०-जोति रूप लिंगमई भली भांति जारों, अंड मुडन बिथारों प्राज राम बल अगनित लिंगमई मोक्ष बितरनि बिदरनि जग जाल की।- पाइ कै ।-हनुमान (शब्द०)। तुलसी म, पृ० २४५ । बिथित-वि० [स० व्यथित ] जिसे कष्ट पहुँचा हो । पीडित । बिदरनि-संज्ञा स्त्री० [हि. बिदरना) विदीर्ण करने अथवा होने की दुःखित । उ०-निंदा अपने भागि की चली करति वह तीय । क्रिया, भाव या स्थिति । उ०—हाथिन सों हाथी मारे, रोई बांह पसारि के भई विथित अति होय !-शकुतला, घोड़े घोड़े सों संहारे, रनि सो रथ विदरनि बलवान की।- तुलसी पं०, पृ० १६२। विथुआ-संशा पु० [देश॰] शीशम की जाति का एक प्रकार का बिदरी'-संज्ञा स्त्री० [सं० विदर्भ, हिं० विदर ] जस्ते और तांबे के वक्ष जिसे पस्सी भी कहते हैं। वि० दे० 'पस्सी'। मेल से बरतन मादि बनाने का काम जिसमें वीच बीच में की उपधातु । खड पृ०६६।