पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/२६२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

1 स० करना। विवादना ३५०५ विमर्दना स्वान विवादक निंदक, जानहिं लाभ न हानि |-जगला०, विभछ-संज्ञा पुं॰ [ सं० वीभत्स, प्रा० वीभच्छ ] दे० 'बीभत्स' । भा०२, पृ० १८ । उ०-जित्ती सु जग घारह घनिय विभछ वीर बित्ती विवादना-क्रि० स० [हिं० विवाद+ना (प्रत्य॰)] बहस जहाँ ।-१० रा०, १२६५४ । मुवाहसा करना । वादविवाद करना । झगड़ा करना । विभावरी-सशा स्त्री० [सं० विभावरी ] रात्रि। विभावरी । बिबाह-सज्ञा पुं० [सं० विवाह ) २० 'विवाह' । उ०-भयो बिवाह उ.-दिन ही मैं तिन सम कानि के कपाट तोरि, धरि परम रंग भीनी-नंद० प्र०, पृ० २२१ । अबीर की को मानत विभावरी ।-घनानंद, पृ० ५६० । विबाहना-क्रि० स० [हिं० विवाह+ना (प्रत्य॰)] विवाह विभिचार-संज्ञा पुं० [सं० व्यभिचार ] अनैतिक कार्य । नीच करना । शादी करना। कर्म । उ०-जानत सव विभिचार तब गुनत न नाह सुजान । विवि-वि० [सं० द्वि ] दो। उ०—(क) विवि रसना तनु स्याम -दीन० प्र०, पृ० ११६ । है बंक चलनि विष खानि ।- तुलसी न०, पृ० १०७ । विभिचारी-संज्ञा पु० [सं० व्यभिचारी] [[पी० व्याभचारिनी ] (ख) सखि कह राहु अमृत जब पियो । तेरे कंत खंड बिबि दे० 'व्यभिचारी'। कियो।-नंद० ग्र०, पृ० १३४ । (ग) माणिक निखर बिभित्सा-पंज्ञा स्त्री० [ स० ] भेदन करने वा किसी वस्तु को तोड़ने सुख मेरु के सिखर विवि कनक बनाए विधि कनक सरोज की इच्छा [को०] । के ।-देवदत्त (शब्द०)। बिभित्सु-वि० [सं०] भेदन करने या तोडने की इच्छावाला [को०] । विवुध-सज्ञा पुं० [ विबुध ] दे० 'विबुध' । विभिनाना-क्रि० स० [ स० विभिन्न ] अलग करना। विभाग विबुधेश-संज्ञा पुं० [सं० विवुधेश ] इंद्र। उ०—-जयति विवुधेश धनदादि दुर्लभ महाराज सम्राज सुखप्रद विरागी।-तुलसी (शब्द०)। विभीखा-सा पु० [ सं० विभीपण ] रावण का भाई । विशेष- दे० 'विभीषण"। उ०-विभीखन जब दीन भयो है, ताहि विवेकता-संज्ञा स्त्री० [सं० विवेकिता] विवेचन की योग्यता। कियो परधान । -जग० श०, पृ० ११३ । विवेचन करने की शक्ति । उ०-भावै वार रहो भाव पार रहो, दया संग कवीर बिवेकता है । -कवीर० रे०, पृ० ३६ । बिभीतक-संज्ञा पुं० [सं०] बहेड़ा [को०] । विभीषक-वि० [ सं०] भयकारक | त्रासद को०] । विवेखो-सज्ञा पुं० [सं० विवेक ] दे॰ 'विवेक' । उ०—(क) अलख नाम घट भीतर देखो। हृदये माही करो बिवेखो। बिभीषण-संज्ञा पुं० [सं०] रावण का भाई। विशेष-३० 'विभीषण"। कबीर सा०, पृ० ८५३ । (ख) ढोल मारि के सवै चेतावों, सतगुरु शबद विवेखो।-कबीर० श०, भा० ४, पृ० २६ । बिभीपण-वि० भीषण । डरावना । बहुत भयानक । बिबौरी-संज्ञा स्त्री० [हिं० बिमौरा ] दे० 'विमौरा'। उ० विभीषिका-मंज्ञा स्त्री॰ [सं०] दे॰ 'विभीषिका' [को०] । प्रासन मारि विवोरी होवे, तबहूँ भक्ति न होई ।-जग० विभौ-संज्ञा पुं॰ [ स० विभव ] दे० विभव' । उ०—(क) श०, भा०२, पृ० ३३। अगिनि से बिस्फुलिंग ज्यो जगे। अगिनिहिं बिभौ दिखावन बिभंगित-वि० [सं० विभङ्गित ] कंपित । तरंगित । उ०-भाव लगे।-नंद० प्र०, पृ० २७० । (ख) करहिं पाप धो शान अभंग तरंग विभंगित महा मधुर रसरूप सरीर ।-घनानंद, कहिं बहु, प्रापन बिभी बढ़ाई ।-जग० बानी, पृ० २३ । पृ०४४६। बिमन'–वि० [स० विमनस् ] १. जिसे बहुत दु.ख हो । २. उदास । विभंगिनी-वि० [सं० विभगिनी ] तरंगिणी । तरंगोंवाली । उ०- सुस्त । चितित । मधुर फेलि प्रानंदघन अनुराग विभंगिनी।-धनानंद, बिमन-क्रि० वि० विना मन के । बिना चित्त लगाए । अनमना पृ०४३२। होकर । बिभग-वि० [सं० विभक्त, प्रा० विभग्ग] अलग । पृथक् । जुदा । विमनी-नंज्ञा पुं० [सं० विमनस् ] व्यसनी। उ०-कुछ लोग उ.-दिन्निय सु सीस तिहि घाल सोइ । उड़ि परयो मथ्थ कहते हैं कि रडियो के घरों पर विमनियों की इतनी भीड घर विभग होइ।-५० रासो, पृ० ४० । होने लगी कि स्थान के संकोच से उन्हे अपने घरों से नीचे विभचार-संज्ञा पुं० [सं० व्यभिचार ] दे० 'व्यभिचार' । उ०- नाचना पड़ा।-प्रेमघन०, भा॰ २, पृ० ३३ । कृष्ण तुष्ट करि कर्म कर जो भान प्रकारा । फल विमचार बिमनैन-वि० [सं० विमन ] विमनस्क । ७०-लं मन मोहन न होइ, होइ सुख परम अपारा ।-नंद० न०, पृ. ४० । मोहे कहूँ न विथा विमलेन की मानौ कहा तुम ।-घनानंद, विभचारी-संज्ञा पुं० [सं० व्यभिचारिन् ] व्यभिचारी। विषयी। पृ० १२४ । उ.-ता कहुँ भूलि गए विभचारी। अइया मनुषहुँ बुझि विमर्दना-क्रि० स० [सं० विमर्दन ] मर्दित करना । कुचलना। तुम्हारी। -सुदर ग्र०, भा० १, पृ० ३२३ । नष्ट करना।