पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/२८०

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बीवना। 1 बिहोस बीगहाटी बिहोसा-वि० [फा० बेहोश] दे० 'वेहोश' । उ०-पहा बिहोस होस पटफि चिती । —सूर (प.ब्द०) । (ख) भूल्यो भौंह भाल कर बंदे, विषय लहर में माता है।-कबीर० श०, पृ० ५। में चुभ्यो के टेढ़ी चाल में, छक्यो के छविजाल में के बीध्यो बींझ-वि० [सं० विद्ध, प्रा. विज्झ ] गुथा हुा । सघन | बनमाल में । -पद्माकर (शब्द०)। बीड़-संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बीडा'। बींधना-क्रि० स० विद्य करना । छेदना । बेघना । जैसे, कान पीड़ा-संज्ञा स्त्री॰ [हिं०] दे० 'बीड़ा'। बीडा-संज्ञा पुं० [हिं० बीडी+था (प्रत्य॰)] पेड़ की पतली बोंधना ३. 1-अशा पु० [सं० वेधन] विज्ञ करने या छेदने का औजार । टहनियों से बुनकर बनाया हुअा मेंडरे के आकार का लंबा उ०-~लानि देवे ते भइया बसुला वो बीधना, हेरि देवे नाल जो कच्चे कुएं या चोट में इसलिये दिया जाता है कि प्रोकर तन हे खोझा ।- शुक्ल प्रभि० ग्रं०-पृ० १४२ ! उसका भगाड न गिरे। बीड । २. धान की पयाल को बुन बीभरा-वि० [सं० विहल, प्रा० विभर ] विह्वल । उ०—निस और लपेटकर बनाया हुआ गोल आसन जिसपर गांव के बीती त्रय जांम, गजर बज्जी घड़ियाले । कर पादर परजंक लोग प्राग के किनारे बैठकर तापते हैं। जग्यो बीभर सिंह काले ।-रा० रू०, पृ० १५३ । विशेप - पहले पयाल को बुनकर उसका लबा फीता बनाते हैं । बो-संज्ञा स्त्री॰ [फा० 'बोबी' का संक्षिप्त रूप] दे० 'बीवी' । उ०- फिर उस फीते कोवतु'लाकार लपेटकर ऊपर से रस्सी से प्रसुवन भीजी बी जी छीजी और पसीजी मीजी पीजी सो कसकर बांध देते हैं। यह गोल होता है और बैठने के काम पतीजी राग रंग रोन रितई।-(शब्द०)। प्राता है। ३. घास प्रादि को लपेटकर बनाई हुई गेंडरी जिसपर घड़े रखे धीरे-प्रव्य [स० अपि, प्रा० अवि ] दे० 'भी' । उ०—(क) जिव का वी ओ जिवाला रूपों में रूप पाला ।-दक्खिनी०, पृ० जाते हैं । ४. वह गेंड री जिसे सिर पर रखकर घड़े, टोकरे श्रादि का भार उठाते हैं । ५. बड़ी बीडी । लुडा । ६. जलाने ११० । (ख) सो उपज सी तो वाल बी तां दरी लीतां दूर । की लफड़ी या बांस आदि का बांधकर बनाया हुआ बोझ । -रघु० रू००, पृ० १४५ । ७. पिडी। पिंड। बीआ-मज्ञा पु० [सं० वोज, प्रा० बीय, बीय ] बीज । बीया। घोड़िया --सज्ञा पु० [हिं० पीड़ी ] वह वैल जो तीन बैलों की गाड़ी बोकट@f-वि० [सं० वि + कृष्ट, प्रा० विश्रह ] दूरस्थित। दूर। में सबसे आगे रहता है और जिसके गले के नीचे बीड़ी उ० है हरि निकट बीकट नाहि । जो दीपक जोति धरे घट रहती है। जूडिया। माही ।-संत० दरिया, पृ० ६२ । घींडो-संज्ञा सी० [सं० वेणी ] १. वह मोटी और कपड़े प्रादि में बोकना-क्रि० अ० सं० विक्रयण ] दे० 'बिकना' । उ०—जीव लपेटी हुई रस्सी जो उस वैल के प्रागे गले के सामने छाती अछित जोबन गया, क्छू न किया नीका । यह हीरा निरमो. पर रहती है जो तीन बैलों की गाड़ी में सबसे आगे रहता लिक, कोड़ी पर बीका । -कवीर मं०, पृ० १४८ । है। २. रस्सी या सूत की वह पिंडी जो लकड़ी या किसी और चीज के ऊपर लपेटकर बनाई जाय। ३. वह लकड़ी बीका-० [ स० चक्र ] टेढ़ा । उ०—तुम अपने नाश को देखा जिसपर पूत आदि को लपेटकर बीड़ी बनाई जाती है। ४. चाहती हो। तुम्हारा बाल तक बीका न होगा। परतु तुम वह गेंडरी जिसे सिर पर रखकर घड़ा, टोकरा या और अपना जीवन चाहती हो तो मौन रहो।-अयोध्यासिंह कोई बोझ उठाते है । ५. केसुला । (शब्द॰) । घींदा -सज्ञा पुं० [ स० विन्दु] दे० विदु' । ७०-डटे सींघ पीसे बीख-संज्ञा पुं० [सं० धोखा (= गति) ] पद । कदम । डग । घीद, काचा गुरु जे गम्य न देही ।-रानानंद०, पृ० ३४ । उ०-( क) जरा आप जोरा क्यिा नेत्रन दीनी पीठ । घोंदर-संज्ञा पुं० [ देशज अथवा सं० विद्>विन्द (= टूइँना, आंखों ऊपर प्रांगुरी बीख भरे पचि नीठ ।-कबीर चुनना, वरण करना ] [स्री० बींदणी] वर । दूल्हा । उ० (शब्द०) । (ख) हरिया संगी राम है का सतगुरु की सीख । (क) ले चल बीद ननकरि बिलब दिन तुच्छै साही सु जिन पैडे दुनियां चले भरूं न काई बीख । -राम० धर्म, पुनि ।—पृ० रा०, २५।१६० । (ख) सब जग सूना नीद पृ० ६६ । भरि, संत न आवै नीद । काल खड़ा सिर ऊपर ज्यो तोरण बीख-पचा पु० [सं० विष] दे० विष'। पाया बोद।-कबीर ग्रं०, पृ० ४६ । वींदना-क्रि० प्र० [सं० विद, प्रा. विंद+हिं० ना (प्रत्य॰)] वोगा-सञ्चा पु० [सं० वृक ] [ स्त्री० पीगिन ] भेड़िया । उ०- . के पग हस्ती बांधे छेरी बीगहि खायो । उदधि माहि: अनुमान करना । अंदाज से जानना । उ०-झुकि झुकि झप- कोंहें पलनु फिरि फिरि जुरि जमुहाइ। बीदि पियागम नीद निकसि माछरी घोड़े गेह करायो ।-कबीर (शब्द॰) । मिसि दी सब अली उठाइ। -बिहारी (शब्द०)। बागना-क्रि० स० [ स० विकिरण ] १. छोटना। छितराना घोंधना@१-क्रि० अ० [स० विद्ध ] १. बीधना । २. फंसना । २. गिरना । फेकना। उलझना। उ०—(क) अंतर्यामी यही न जानत जो मों चोगहाटी-संशा 'सी० [हिं० बिगहार, बीघा +टी (प्रत्य॰)] 4 उरहि बिती। ज्यों कुजुवरि रस बोंधि हारि गथु सोचतु लगान जो बीघे के हिसाब से लिया जाय ।