पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/२८६

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बीमच्छ, धीमा २५२५ बीया' त्रिभंग बंस बसीधर राजै । अति उतंग ( माया) बीभंग । स्थापित हैं। उसमें बीमा करनेवाला कुछ निश्चित नियमों नाम लेपंत सुराजै ।-पृ० रा०, २।३४० । के अनुसार समय समय पर या एक साथ ही कुछ निश्चित बीमच्छ, बीभछ-संज्ञा पुं० [सं० बीभत्स, प्रा० बीभच्छ, अप० धन लेकर अपने ऊपर इस बात का जिम्मा लेता है कि वीभछ ] दे० 'बीभत्स' ( रस ) । उ०—(क) सगपन सुहास यदि बीमा करनेवाले की अमुक कार्य या . व्यापार प्रादि में बीभच्छ रिन भय भयान कमज्ज दुति ।--पृ० रा०, अमुक प्रकार की हानि या दुघटना आदि होगी तो उसके २५५३८१ । (ख) बीभछ अरिन समूह सांत उपनो मरन बदले में हम बीमा करानेवाल को इतना धन देगे। आजकल मकानो या गोदामो प्रादि के जलने का, समुद्र में जहाजों भय |-पृ० रा०, २५१५०१ । के डूबने का, भेजे हुए माल को ठीक दशा मे नियत स्थान बीभत्स'-वि० [म.] १. जिसे देखकर घृणा हो । घृणित । २. तक पहुँचने का या दुर्घटना आदि के कारण हाथ पैर क्रूर । ३. पापी। टूटने या शरीर बेकाम हो जाने का बीमा होता है। बीभत्स-सज्ञा पुं० १. काव्य के नौ रसों के अंतर्गत सातवा रस । एक प्रकार का बीमा पोर होता है जो जान बीमा या विशेप-इस में रक्त. मांस प्रादि ऐसी बातो का वर्णन होता है जीवन बीमा कहलाता है। इसमें बीमा करानेवाले को जिनसे अरुचि और घृणा तथा इंद्रियो में संकोच उत्पन्न प्रतिमास, प्रतिवष, अथवा एक साथ ही कुछ निश्चित धन होता है। इसका वर्ण नील और देवता महाकाल माने गए देना पड़ता है और उसके किसी निश्चित अवस्था तक पहुंचने हैं । जुगुप्ता इसका स्थायी भाव है, पीव, मेद, मज्जा, रक्त, पर उसे बीमे की रकम मिल है; अथवा यदि उस मास या उनकी दुर्गघि आदि विभाव हैं, कप, रोमाच, निश्चित अवस्था तक पहुंचने से पहले ही उसकी मृत्यु हो जाय प्रालस्य, संकोच प्रादि अनुभाव हैं और मोह, मरण, आवेग, तो उसके परिवारवालो को वह रकम मिल जाती है। पाधि मादि व्यभिचारी भाव हैं । उ०-यथा, पढ़त माजकल बालको के विवाह और पढ़ाई लिखाई के व्यय के मत्र अरु यंत्र पत्र लीलत इमि जुग्गिनि । मनहुँ गिलत मद सबध मे भी बीमा होने लगा है और वृद्धावस्था मे शरीर मत्त गरुड़ तिय अरुण उरुग्गिनि । हरवरात हरषात प्रथम अशक्य हो जाने की दशा मे जीवननिर्वाह का भी। डाक परसत पल पंगत । जंह प्रताप जिति जग रंग अंग अंग द्वारा पत्र या माल आदि भेजने का भी डाकविभाग द्वारा उमंगत । जहँ पद्माकर उतपत्ति अति रन रकतन नदिय बहत । बीमा होता है। चख चकित चित्त चरबीन चुभि चकचकाइ चंडी रहत । यौ०-धीमा कराई - वह धन जो बीमा करानेवाला बीमा कराने -पद्माकर। के लिये बीमा करनेवाले को देता है । २. अर्जुन का नाम (को०) । ३. घृणोत्पादक वस्तु (को॰) । २. वह पत्र या पार्सल आदि जिसका इस प्रकार बीमा हुप्रा हो। वीभत्सा-संज्ञा स्त्री० [सं०] घृणा । जुगुप्सा । प्ररुचि [को०] । घीभत्सित-वि० [सं० ] निदित । घृणित । पीमार-वि० [फा० ] [ संज्ञा चोमारी ] वह जिसे कोई बीमारी हुई हो । रोगग्रस्त । रोगो। बीभत्सु-संज्ञा पुं॰ [सं०] १. पाडपुत्र अर्जुन । २. अर्जुन वृक्ष । बीभला-वि० [सं० विह्वल ] रसविह्वल । विह्वल । रसिक । क्रि० प्र०-पढ़ना ।—होना । उ०-पाखडिया अणियालियां काजल रेख कियाह । बीभलिया बीमारदार -वि० [फा०] रोगी की सुश्रूषा करनेवाला। जो रोगियों भावंदियो, लाज सनेह लियाह ।-बांकी० , भा० ३, की सेवा करे । तीमारदार । पृ०६३ | धीभोव-संज्ञा पुं० [सं० विभव ] दे० 'विभव' । उ०-हरणकसीप बीमारदारी-संशा स्त्री॰ [ #To ] रोगियों की सुपा । वध कर अधपती देही। इंद्र को बीगो प्रहलाद न लेही । बीमारो-संज्ञा स्त्री० [फा०] १. रोग। व्याधि । २.झझट । -दविखनी०, पृ० २८ । ३. बुरी आदत (बोल.)। धीम'--संज्ञा पुं० [अं०] १. जहाज के पाश्व मे लंबाई के बल में लगा बीय-सशा पुं० [सं० घीज, प्रा. बीय ] दे० 'बीज' । हमा बड़ा शहतीर । पाड़ा । २. जहाज का मस्तूल । (लश.)। उ०-बीय सुवय लय मध्य ज्ञान अंकूर सजूरन । बोम-संज्ञा पुं० [फा० ] भय । डर । खौफ [को॰] । -पृ० रा०, १॥४॥ बीमा-संज्ञा पुं॰ [ फा० थीम (= भय) ] किसी प्रकार की विशेषतः बीय-वि० [सं० द्वितीय ] दे० 'दो'। उ०–जोरि रची विधिना आर्थिक हानि पूरी करने की जिम्मेदारी जो कुछ निश्चित निपुन, एक प्रान तनु बीय ।-नंद० प्र०, पृ० ८६ । धन लेकर उसके बदले में की जाती है। कुछ धन लेकर इस बीयाg'-वि० [सं० द्वितीय ] दूसरा। उ०—(क) तुम बात की जमानत करना कि यदि अमुक कार्य में प्रमुक प्रकार कहहु नवाब सों जो साँचु राखत जीय में। तो एक बार की हानि होगी तो उसकी पूर्ति हम इतना धन देकर कर देंगे। मिलो हमे नहिं बात कहनी बीय में । -सुजान०, पृ० १० । विशेष-पाजकल बीमे की गणना एक प्रकार से व्यापार के (ख) एक तू दोइ तू तीन तू चारि तूपच तू तत्व में जा प्रतर्गत होती है और इसके लिये अनेक प्रकार की कंपनियां कीयो। नाम अरु रूप ह्र बहुत विधि विस्तरयो तुम न