पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/३०३

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४६ बृहदारण्यक सीधो, नए वासन में बूरा, तुअर प्रादि सर्व सामान घर मे विशेप-सस्कृत में इसी अर्थ में वृषिका, वृमिका, वृशो पौर हतो सो हरिवस जी को सर्व वस्तू दिखाई।-दो सौ वावन, वृपी रूप भी प्राप्त होते हैं। भा० १, पृ०७५ । ३. महीन चूर्ण । सफूफ । वृहत्'-वि० [स०] [ वि० सी० वृहती ] १. बहुत बड़ा । विशाल । बूरी-मज्ञा ली [ देण० ] एक प्रकार की बहुत छोटी वनस्पति, बहुत भारी। २. दृढ़। बलिष्ठ । ३. पर्याप्त । ५. उच्च । जो पौधो, उनले तनो, फूलो और पत्तो धादि पर उत्पन्न ऊँचा । (स्वर श्रादि)। हो जाती है और जिसके कारण वे पदार्थ सड़ने या नष्ट विशेप-संस्कृत में सघि संबंधी नियमो के आधार पर इसके होने लगते हैं। अंगूर के लिये यह विशेष प्रकार से घातक वृक्ष, बृहज् , वृद. वृहद् पीर वृहन् म्प भी होते हैं। होती है । इसकी गणना वृक्षो प्रादि के रोगों में होती है। जसे,-वृहच्चषु वृहज्जन, वृहद्भानु, वृहन्नला, पादि। इस बूर्जवा-वि० [फा० युजु श्रा) बुर्जुप्रा से संबद्ध । उ०—इसे प्रापके शब्द से बननेवाले अन्य यौगिक शब्दों के लिये देखिए समान वूर्जवा मनोवृत्ति के लोग नहीं समझ सकते । 'वृहत्' शब्द। -संन्यासी, पृ. ४८१ । वृहत्-ससा पु० एक मरुत् का नाम । बूला-सज्ञा पु० [ देश० ] पयाल का बना हुआ जूता । लतड़ी । वृहतिका-ममा सी० [सं०] दुपट्टा । उपरना [को०] । बूंद-संज्ञा पुं० [स० वृन्द ] दे० 'वृद' । बृहतो -सजा पा० [सं०] १. कटाई। वहटा । वनभंटा । २. विश्वावमु बृंदा [-- सज्ञा सी० [स० वृनमा ] दे० 'वृदा' । उ०-जहां वृदा पति गधर्व की वीणा का नाम। ३. उत्तरीय वस्त्र । उपरना। भली विधि रची वनक बनाय -घनानंद, पु० ३०१ । ४. कंटकारी। भटकाया। ५. सुश्रुत के अनुसार एक यौ०- मर्मस्थान जो रीढ के दोनो मोर पीठ के बीच में है। यदि ०-दारण्य । वृदायन । इस मर्मस्थान में चोट लगे तो बहुत अधिक रक्त जाता है और वृक्ष-सज्ञा पु० [ स० वृक्ष ] दे० 'वृक्ष' । उ०-सैलनि मैं ज्यो सुमेर श्रत में मृत्यु हो जाती है । ६. एक वणं वृत्त जिसके प्रत्येक लसै बर वृक्ष नि मैं कलपद्रुम साले । -मति० पंपृ० ३७० । चरण मे नो अक्षर होते हैं । ७. वाक्य । बृखभानु-सा पुं० [स० वृपभानु ] दे० 'वृषभानु' । उ०-उठी वृहतीकल्प-पग पु० [२०] वैद्यक में एक प्रकार का फायाकल्प । विहंसि बृखभानु कुंवरि वर कर पिचकारी लेत ।-नंद. हहतीपति-संश पु० [स०] वृहस्पति । ०, पृ० ३८२। यौ०-वृखभानु कुंवरि । वृखभानुनदिनी । वृहत्कंद-मज्ञा पु० [सं० वृहत्कन्द ] १. विष्णु कंद । २. गाजर । वृच्छ-67 पु० [ स० वृक्ष ] दे० 'वृक्ष' । उ०-सवै वृच्छ फुल्ले वृहत्तर-वि० [सं०] विशाल । विस्तृत । फले भार झ लें । ह. रासो, पृ० ३५ । वृहत्तण-संशा पुं० [सं०] वास । वृजिन-संज्ञा पु० स० वृजिन] दे० 'वृजिन'।-अनेकार्थ, पु० ४० । वृहत्वच-सज्ञा पुं॰ [सं० वृहत्त्वा ] नीम का वृक्ष । वृटिश-वि० [अ० ब्रिटिश ] दे॰ 'प्रिटिश' । वृहत्पत्र-तशा पु० [३०] १. हाथोकद । २. सफेद लोध । ३. कासमदं। बृतंत-सज्ञा पु० [ स० वृतान्त ] दे० 'वृत्तात' उ०-जो वोहि लोक लखन की बनन कहते वाक वृतंत ।-संत तुरसी०, वृहत्पर्ण-संज्ञा पुं० [स०] सफेद लोध । पृ० २११। बृहत्पाटलि-सज्ञा पुं० [ स०] धतूरे का पेड़ । वृत्त-सज्ञा पु० [स० वृत्त ] दे० वृत्त' । उ०-भव वृच कहे छम वृहत्पाद-सरा पुं० [ स० ] वट वृक्ष । बढ़ का पेड़ । चातुरता ।-ह० रासो०, पृ० १५६ । वृहत्पाली -सा पुं० [सं० वृदरपालिन् ] वनजीरा । वृद्धि-सज्ञा स्त्री॰ [ म० वृद्धि ] दे० 'वृद्धि' । वृहत्पोलु-सज्ञा पु० [म०] महागीतु । पहाड़ो असरोट । वृप-संज्ञा पुं॰ [ स० वृप] १. सांड़ । बैल । वृहत्पुष्प-सा पु० [स०] १. पेठा । २. केले का वृक्ष । यौ०-वृषकेतु । वृषध्वज । वृहत्पुष्पी-मसा सी० [सं०] सन का पेड़ । २. मोरपख । ३. इद्र । उ०-हमरे पावत रिस करत अस तुम वृहत्फल-संज्ञा पु० [ स०] १. चिचिडा । चिचड़ा । २. कुम्हला । गए मुटाइ । पठइ पत्रिका बान कर लखि वृष रहे सुपाइ । ३. कटहल । ४. चामुन । -विश्राम (शब्द०)। ४. बारह राशियों मे से दूसरी राशि । वृहत्फला-संज्ञा सी० [स०] १. तितलौकी । २. महेद्र वारणी । दे० 'वृष' । उ०-दुसह विरह वृष सुर सम चलन कहत पब ३. कुम्हड़ा । ४. जामुन । पाप । तिय की कोमल प्रेम तरु क्यो सहिहै संताप !-स० बृहदारण्यक-सज्ञा पुं० [म०] एक प्रसिद्ध उपनिषद् जो दस मुख्य सप्तक, पृ० ३६५ । उपनिषदों के प्रतर्गत है। वृसी -ज्ञा स्त्री० [सं०] किसी संत महात्मा का प्रासन | ऋपि का विशेप-यह शतपय ब्राह्मण के मुख्य उपनिषदो में से है पोर पासन [को०] । उसके मतिम ६ अध्यायो या ५ प्रपाठकों में है।