पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/३०७

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भाव। येखपरी बेक्त यूसफ आजिजी लब । वले नई रहम लाए वेकडर सब। वेकाम-वि० [हिं० वे+काम ] जिसे कोई काम न हो । निकम्मा । दक्खिनी०, पृ० ३३६ । निठल्ला। वेकाम:-फि० वि० व्यर्थ । निरर्थक । बेमतलव । निष्प्रयोजन । वेकता-संज्ञा स्त्री॰ [ स० व्यक्ति ] व्यक्ति । पादमी । जन । वेकदर-० [फा० बेकदर ] जिसकी कोई कदर या प्रतिष्ठा न वेकायदा-० [फा० वे+अ० फायदा ] [ संशा बेकायदगी ] फायदे के खिलाफ। नियमविरुद्ध । हो। बेइज्जत ।। अप्रतिष्ठित । वेकार-वि० [फा०] १. जिसके पास करने के लिये कोई काम न वेकदरा-वि० [फा० बे+फद्रह ] जिसकी कोई फदर न हो। हो। निकम्मा । निठल्ला । २. जो किसी काम में न प्रा सफे। पप्रतिष्ठित । २, जो कदर करना न जानता हो। जिसका कोई उपयोग न हो सके । निरर्थक । व्यर्थ । वेकदरी-संज्ञा स्त्री० [ फा बेकदरी ] वेक्दर होने का वेइज्जती । अप्रतिष्ठा । उ०-ऐसी दशा के कारण वह जहाँ वेकार-क्रि ०वि० व्यर्थ । बिना किसी काम के (पूरब) । घुमे उनकी बेकदरी हुई।-प्रेमघन०, भा० २, पृ० २४८ । वेकारी-संज्ञा स्त्री० [फा०] वेकार होने का गाव । खाली या निरुद्यम होने का भाव । वेकद्र-वि० [फा० बे+कद्र ] [ संचा बेकद्री ] बेइज्जत । अप्रति- ष्ठित । उ०-समाज की दृष्टि में फल से उतार दिए गए वेकारयोg-रंधा पुं० [हिं० विकारी ] किसी को जोर से बुलाने का छिलके की भांति वेकद्र होते हैं।-अभिश०, पृ० १३७ । शब्द । जैसे, प्ररे, हो, पादि । उ०-बेकाग्यो दै जान कहा- वेकरा-सज्ञा पुं० [ देश० ] पशुश्रो का खुरपका नामक रोग । खुरहा। वत जान परयो की कहा परी बाढ़ ।-हरिदास (शब्द॰) । वेफरार-वि० [फा० बेकरार ] जिसे शाति या चैन न हो । घबराया बेकुसूर-वि॰ [फ़10 + १० व सूर ] जिसका कोई व सूर न हो। निरपराध । दोषरहित । वेगुनाह । हुआ । व्याकुल । विकल । उ०-निगह तुम्हारी की दिल जिससे वेकरार हुमा ।-वेला, पृ० २१ । वेकूफल-वि॰ [फा० वेवकूफ़ ] दे० 'बेवकूफ' । E०-पल टू बड़े बेकरारी—संज्ञा सी० [फा० बेकरारी] बेकरार होने का भाव । बेकूफ वे प्रासिक होने जाहिं । सीस उतारे हाथ से सहज घबराहट । बेचैनी । व्याकुलता । प्रासिकी नाहिं-।-पलटू०, भा० १, पृ० ६० । बेकल -वि॰ [ स० विकल ] व्याकुल । विकल । बेचैन । वेख'- संज्ञा स्त्री॰ [फा० बेस्त्र] जड । मूल । बेखबु-संज्ञा पुं० [सं० चेष ] १. भेस । स्वरूप । उ०—जोगी वेक्ली-संज्ञा स्त्री० [हिं० बेकल+ई (प्रत्य०) ] १. वेफल होने जटिल काम मन नगन पमंगल बेख ।--मानस, ११६७ । का भाव । घबराहट वेचैनी। व्याकुलता उ०-रह रह २. स्वाँग । नकल। इनमें क्यों रंग पा जा रहा है। कुछ सखि ! इनको भी हो रही वेकली है ।-प्रिय प्र०, पृ० ४३ । २. स्त्रियों का एक बेखटक'-वि० [फा० वे+हिं० खटवा ] बिना विसी प्रकार के खटके के। विना किसी प्रकार की रुकावट या असमंजसके। रोग जिसमें उनकी धरन या गर्भाशय अपने स्थान से कुछ हट निस्संकोच । जाता है और जिसमें रोगी को बहुत अधिक पीड़ा होती है । बेखटक-क्रि० वि० मन में कोई खटका किए बिना । विना आगा वेकस-वि० [फा०] १. निःसहाय । निराश्रय । २. गरीब । पीछा किए। निस्संकोच । मुहताज । दीन । ३. मातृ-पितृ-हीन । बिना मां पाप का। बेखटके-क्रि० वि० [हिं०] दे० 'बेखटक' । अनाथ । यतीम। वेकसी-वि० सी० [फा० ] १. असहाय होने की स्थिति । निरा- वेखतर'-वि० [फा० वे+अ० ख़तर ] जिसे किसी प्रकार का खतरा या भय न हो । निर्भय । निडर । जैसे,--प्राप वेखत र वहाँ श्रयता। २. विवशता। दीनता । उ०-क्यों वह दौलतमंद चले जांप। है जिसके पास जरे बेकसी नही।-भारतेंदु० प्र०, भा० २, वेखतर---क्रि० वि० बिना दर या बिना भय के । पु० ५७०। वेकहा-वि० [हिं० बे+कहना ] जो किसी का कहना न माने । बेखता-वि० [फा० वे+अ० खता (= कसूर) ] १. जिसका कोई किसी की पाज्ञा या परामर्श को न माननेवाला । अपराध न हो। बेकसूर निरपराध । २. जो कभी खाली न जाय । अमोघ । प्रचूफ । वेकाज-वि० [हिं० वे+काज ] बिना काम का । व्यर्थ । निरर्थक । वेखना-क्रि० स० [सं० प्रेक्षण, या अवेक्षण प्रा. वेक्खण] देखना। बेकार । उ०-परबस भए न सोच सकहिं कछु करि निज बल अवलोकना। बेकाज । -भारतेंदु प्र०, भा० १, पृ० ४८५ । वेखवर-वि० [फा० बे+खधर ] १. जिसको किसी बात की खबर वेकानूनी-वि० [फा० वे+श्र० कानून ] पो कानून या कायदे के न हो। पनजान । नावाकिफ । उ०-जहाँ प्रो कारे जहाँ से खिलाफ हो । नियमविरुद्ध । हूँ बेखबर बदमस्त-कविता को०, भा० ४ । २. बेहोश । वेकावू-वि० [फा० बे+अ० कावू ] १. जिसका पपने ऊपर काबू वेसुध । न हो। विवश । लाचार । २. जिसपर किसी का 'काबू न वेखबरो-संज्ञा स्त्री॰ [फा० देख बरी ] १. वेखवर होने का भाव । हो। जो किसी के वश में न हो। २. भज्ञानता । ३. वेहोशी । पात्मविस्मृति ।