पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/३२

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फरकाना' ३२७१ फरद' फरकाना'-क्रि० स० [हिं० फरकना ] १. फरकने का सकर्मक फरचाना-क्रि० स० [हिं० परचा ] १. बरतन प्रादि को धोकर रूप । हिलाना। संचालित करना । उ० (क) तू काहै नहिं साफ करना। २. पवित्र या शुद्ध करना । ३. हुक्म देना । वेगहिं प्रावै तोको कान्ह बुलावै । कबहुँ पलक हरि मूदि लेत पाशा देना। हैं कबहुँ अघर फरकाये । - सूर०, १०।४३ । (ख) सखी फरजंद-राज्ञा पुं॰ [ फ़ा० फरजंद ] पुत्र । लडका । वेढा । उ०- रोक ! यह फिर कहने की उत्सुकता दिखलाता है। देख, (क) फेर कूच करि दूसरा रविजा तट पाया। तहँ फरजंद मघर अपना ऊपर का बार बार फरकाता है।-द्विवेदी वजीर संग मिलना ठहराया ।-सूदन (शब्द०)। (स) फहैं (शब्द०)। २. फड़फड़ाना । बार बार हिलाना । उ०- रघुगज मुनिराज हमसे कहो, कोन के फवे फरजंद दिलहूब आगम भो तरुनापन को विसराम भई कछु चंचल खै । हैं। रघुराज (शब्द॰) । खंजन के युग सावक ज्यों उड़ि पावत ना फरकावत पाखै ।- फरजंदो-संज्ञा स्त्री॰ [फा० फज दी ] पिता-पुत्र-संबंध । विसराम (शब्द०)। फरज'-संज्ञा स्त्री० [ अ० फरज़ ] दरार। फरकाना-क्रि० स० [हिं० फरक (= प्रलग)] विलग करना । फरज-संज्ञा पुं० [अ० फज़ ] दे० 'फर्ज ।' अलगाना। अलग करना। फरजानगी-संज्ञा स्त्री० [अ० फ़र्ज ] बुद्धिमत्ता । फरकिल्ला-संज्ञा पुं० [हिं० फार + कील ] वह खूटा जो गाड़ी में हरसे के वाहर पटरी में लगाया जाता है घोर जिसपर फरजाना-वि० [ फा० फ़रजानह ] बुद्धिमान् । लकड़ी, बांस या वल्ले रखकर रस्सिसों से कसकर ढांचा फरजिंदा-संज्ञा पुं॰ [ फ़ा० फ़रज़'द ] दे० 'फरजंद'। बनाया जाता है। फरजी-संज्ञा पुं॰ [फा० फ़रजी ] शतरंज का एक मोहरा जिसे रानी या वजीर भी कहते हैं। वजीर । उ०—(क) घड़ो बढ़ाई ना फरकी-संशा स्त्री॰ [हिं० फरक ] १ बांस की पतली तीली जिसमें लासा लगाकर चिड़ीमार चिड़ियां फंसाते है। २. वह बडा तजै छोटो वह इतराय । ज्यों प्यादा फरजो भयो टेढ़ो टेढ़ो पत्थर जो दीवारों की चुनाई में दूर दूर पर खड़े बल. में जाय । --रहीम (शब्द०)। (ख) पहले हम जाय दियो कर में, तिय खेलत ही घर में फरजी । वधुवंत इर्फत पढ़ो, तबही लगाया जाता है। रतिकंत के वानन ले वरजी। बिलखी हमें पौर सुनाइवे को फरकीला-संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'फरकिल्ला ।' फहि तोष लख्यो.सिगरी भरजी। गरजी ह्रदियो उन पान फरकोला-वि० [हिं० फडक, फरक + ईला (प्रत्य॰)] दे० हमें पढ़ि साँवरे रावरे की परजी ।-तोप (शब्द०)। 'फरकौहाँ।' विशेप-यह मोहरा खेल भर में बढ़ा उपयोगी माना जाता है। फरो-क्रि० वि० [सं० पराक् ] दूर । अलग। परे। फरक । शतरंज के किसी किसी खेल में यह टेढ़ा चलता है और शेष उ०-पौर फिकिर करि फरके, जिकिर लगाउ रे। जग० में प्राय. यह सीधा और टेढ़ा दोनों प्रकार की चाल घागे बानी, पृ० ४६। और पीछे दोनों ओर चलता है। फरकौहा-वि० [हिं० फरक + प्रौहाँ (प्रत्य॰)] फड़कनेवाला । फरजोर-वि० जो असली न हो बल्कि मान लिया गया हो । नकली। स्पंदनशील । उ०-मदनातुर चातुर पिये पेखि भयो चित बनावटी । जैसे,-वे अपना एक फरजी नाम रखकर दरवार लोल। पुनि पट .सरको भए फरकौहें सुकपोल ।-स० सप्तक, पृ०२३६। फरजीवंद-संशा पुं० [फा० फ़रजीवंद ] शतरंज के खेल में एक योग फरक्का-संज्ञा पुं० [अ० फ़रक ] दे० 'फरक' । जिसमें फरजी किसी प्यादे के जोर पर बादशाह को ऐसी फरक्का-वि० वि० [सं० पराक, फरक, हिं० फरके ] दूर । अलग। शह देता है जिससे विपक्ष की हार होती है। परे। उ०-बेड़ा देखा झांझरा, ऊतरि भया फरक्क ।- फरजोवंदा-सरा पु० [हिं० फरजीबंद ] दे॰ फरजीवंद' । उ०- कबीर सा० सं०, भा० १, पृ० २ । घोड़ा दै फरजीवंद लावा । जेहि मुहरा रुख चहै सो पाया। फरगटा-वि० [सं० प्रकट, हिं० प्रगट, परगट ] दे० 'प्रकट ' --जायसी (शब्द०)। उ०-फरगट मारे फूटरा, कर सू सरगट काढ़। सठ दाख फरद--संज्ञा स्त्री० [अ० फ़र्द ] १. लेखा वा वस्तुओं की सूची पादि भालो सरस, गिनकावालो गाढ़।-बाँकी० प्र०, भा० २, जो स्मरणार्थ किसी कागज पर अलग लिखा गई हो। जैसे,- घर के सब समान की एक फरद तैयार कर लो। दे० 'फर्द'। फरच, फरचा -वि॰ [ सं० स्पृश्य, प्रा० फरस्स ] १. जो जूठा न उ०-फारि डारु फरद न राखु रोजनामा कहूँ साता खत हो । शुद्ध । पवित्र । २. साफ । सुथरा। उ०-यासहरे को जान दे वही को वहि जान दे । -पनाकर (शब्द०) । २. फॅपर भी फरचा कर पाया। खबर पाइ मनसूर भी सुसियों एक ही तरह के, एक साय बननेवाले अथवा एक साथ काम से छाया ।-सुजान०, पृ० १४६ । में पानेवाले कपड़ों के जोड़ में से एक कपड़ा । पल्ला । जैसे, फरचई, फरचाई-सज्ञा स्त्री० [हिं० फरचा+ई (प्रत्य०) ] १. एक फरद घोती, एक फरद चादर, एक फरद शाल । ३. शुद्धता । पवित्रता । २. सफाई। रजाई या दुलाई का ऊपरी पल्ला । उ०-कहै पाकर जु में पहुंचे। पृ०२।