पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/३२२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

बेवतन ३५६१ बेसंदर चाहते हों वैसा न होना। २. संकटग्रस्त होना । विगडना। बेवहार-[सं० व्यवहार, प्रा० विवहार] दे० 'व्यवहार' । उ०—(क) खराब होना। से पावे जाहु ताहु देखि झावए, चिन्हिमन बेवहार ।- वेवतन-वि० [फा०] १. विना घर द्वार का । जिसके रहने प्रादि विद्यापति, पृ० १७३ । (ख) पुनि लौकिक बेवहार मैं नेम, का कोई ठिकाना न हो । २. परदेशी। प्रधान कियो तव नाहिं चुन्यौ ।-नट०, पृ० १५२ । वेव पार-संज्ञा पुं० [ सं० व्यापार ] दे० 'व्यापार' । वेवा-संज्ञा स्त्री० [फा० वेवह ] वह स्लो जिसका पति मर गया हो। बेवपारी-संज्ञा पुं० [सं० व्यापारिन् ] दे० 'व्यापारी'। उ०-टांड़ा विधवा । डि। तुमने लादा भारी, वनिज किया पूरा वेवपारी ।-कबीर० बेवाई-संज्ञा स्त्री० [हिं० ] दे० 'बिवाई। श०, पृ०६। बेवान--संज्ञा पुं० [सं० विमान } दे० 'विमान' । उ०—-दुख बेवफा-वि० [फा० वे+प्र० वफ़ा १. जो मित्रता मादि का तजि सुख की चाह नहि, नहिं वैकुठ बेवान । चरन कमल निर्वाह न करे । २. बेमुरव्वत । दुःशील । ३. किए हुए उपकार चित चहत हो, मोहिं तुम्हारी पान |-दया. वानी, को न माननेवाला । कुतघ्न । पृ० २१ । बेवफाई-संज्ञा स्त्री॰ [फा० बेवफ़ाई ] बेवफा या वेमुरव्वत होने की बेवान-ज्ञा पुं॰ [ ? ] चाह । १०---मुख तान के सुन बेवान लगा स्थिति । उ०-सीखे हो बेवफाई, इसमें है क्या सफाई। सोइ प्राइ खडी नहि लाज डरी-संत० दरिया, पृ० ६६ । अज० प्र०, पृ० ४४ ॥ वेवाहा--संज्ञा पुं० [हिं० विवाहा ] प्रिय । प्रियतम । उ०- वेवर--संज्ञा पुं॰ [देश॰] एक प्रकार की घास जिसकी रस्सी खाट बेवाहा के मिलन से नैन भया सुपहाल । दिल मन मतवाला वुनने के काम आती है। हुआ गंगा गहिर रसाल।-संत० दरिया, पृ० २६ । बेवरा - संज्ञा पुं० [हिं० व्योरा] विवरण । ब्योरा। उ०- बेवि-वि० [हिं० ] दो। उ०-वेव सरोरुह उपर देखल कपिल कह्यो तोहि भक्ति सुनाऊँ। अरु ताको वेवरो जइसन दूतिय चंदा ।-विद्यापति, पृ० २४ । समझाऊ।-सूर (शब्द०)। बेश'-संज्ञा पुं० [सं० वेश ] दे० 'वेश' । यौ०-बेवरेबाज = चालाक । धूर्त । वेश-वि० [फा० ] अधिक । विशेष । ज्यादा। वेवरेवाजो-मशा स्त्री० [हिं० व्योरा+फा० थाजी ] चालाफी। वेश-संज्ञा पुं० मीठा तेलिया । संखिया। बच्छनाग [को०] । चालबाजी। (बाजारू)। बेशऊर-वि० [फा० वे+अ० शऊर ] जिसे कुछ भी शऊर न हो । वेवरेवार-वि० [हिं० वेवरा + वार (प्रत्य॰)] तफसीलवार । मूर्ख । फूहड । नासमझ । बेसलीका। विवरणसहित । वेशऊरी-संज्ञा स्त्री॰ [फा० बे+० शउर + ई (प्रत्य॰)] बेशऊर वेवसार-संज्ञा पुं० [सं० व्यवसाय ] उद्यम | व्यवसाय । काम । होने का भाव । मूर्खता । नासमझो । उ.-विरिघ बैस जो बांधे पाऊ। कहां सो जोवन कित वेशक-क्रि० वि० [फा० वे+प्र० शक ] बिना किसी शक का । वेवसाळ।-जायसी (शब्द०)। अवश्य । निःसंदेह । जरूर । वेवसाा-संज्ञा पुं० [सं० व्यवसाय ] व्यवसाय । काम । बेशकीमत, बेशकीमती-वि० [फा० बेश+मा० क़ीमत ] जिसका वेवसार-संज्ञा पुं० [ ? ] व्यवसाय । विशिष्ट इच्छा या प्रयत्न । मूल्य बहुत अधिक हो । बहुमूल्य । मूल्यवान् । उ०-रेखा खाँचि कहत ही हरि ले जाइहै । तब जानव वेशवहा-वि० [फा० ] दे० बेशकीमती' । वेवसार स्याम मुख लाइहै ।-अकबरो०, पृ० ३४० । वेशरम-वि० [फा० वेशर्म ] जिसे शर्म हया न हो। निलंज्ज । बेवस्था - -सज्ञा स्त्री० [सं० व्यवस्था ] दे० 'व्यवस्था' । उ०-कठिन बेहया। उ०-बाह पकरितु ल्याई काको प्रति बेशरम मरन ते प्रेम वेवस्था । ना जिउ जियै न दसर्व प्रवस्था ।- गवारि । सूरस्याम मेरे आगे खेलत जोबन मद मतवारि ।- जायसी ग्रं०, पृ०४६ । बेवहर सूर (शब्द०)।

-सञ्ज्ञा पु० [सं० व्यवहार ] दे० 'व्यौहर'।

बेशरमी-संज्ञा स्त्री॰ [फ़ा॰ बेशर्मी ] निर्लज्जता । बेहयाई । वेवहरना-क्रि० स० [सं० व्यवहार ] व्यवहार करना । वरताव बेशी-संज्ञा स्त्री॰ [फा०] १. अधिकता। ज्यादती । २. साधारण से अधिक कार्य करने की मजदूरी । ३. लाग । नफा । वेवहरिया@f-संज्ञा पुं॰ [सं० व्यवहार+इया (प्रत्य॰)] १. लेनदेन करनेवाला। महाजन । उ० जेहि बेवहरिया कर बेशुमार-वि० [फा० ] अगणित । असंख्य । अनगिनत । बेवहारू। का लेह देव जई छेकहि वारू । -जायसी (शब्द०)। बेश्म-संज्ञा पुं॰ [ सं० वेश्म वा वेश्मन् ] घर । गृह । निवासस्थान | २. लेन देन का हिसाब करनेवाला । मुनीम । 30-अब उ०-निज रहिवे हित वेश्म जो पूछेउ सो सुनि लेहु ।- आनिय बेवहरिया बोली । तुरत देउ मैं थैली खोली ।- विश्राम (शब्द०)। तुलसी (शब्द०)। बेसंदर-सञ्ज्ञा पुं० [सं० वैश्वानर ] अग्नि ! -यहै पुर्वर करना । घरतना।