पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/३२५

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वेहनौर ३५६४ घेहंफ वेहनौर -सज्ञा पु० [हिं: बहन + और (प्रत्य॰) ] वह स्थान जहाँ निरुद्यम होना। उ०-हाथ होते हम वेहाथ हैं।-चुमते० धान वा जड़हन मादि का बीज बेहन डाला जाय । पनीर । ( दो दो बातें ), पृ० ५ । (२) हाथ के बाहर होना। पंकृपा बियाड़ा। या प्रतिवध न मानना । उच्छ खल होना । (३) अधियार से विशेप-धान आदि की फसल के लिये पहले एक स्थान पर वाहर होना । अधिकार में न होना । बीज बोए जाते हैं; और जब वहाँ अकुर निकल पाते हैं, बेहान -क्रि० वि० [हिं० ] ३० विहान' । तब उन्हे उखाड़कर दूसरे स्थान में गेपते हैं। पहले जिस वेहाल-वि० [फा० ये + प्र० हाल | व्याकुल । विकल । येचैन । स्थान पर वीज बोए जाते हैं, उसी को पूरब में बेहनौर उ०—(क) राम राम रटि विकल भुग्रान्लू । जनु विनु पख कहते हैं। विहग बेहालू ।-तुनमी (शब्द०)। (ख) लागत कुटिल बेहया-वि० [फा० ] जिसे हया ग लज्जा प्रादि विल्कुल न हो। फटाछ सर क्यो न होइ बेहाल । लगत जु हिए दुसारि करि निलज्ज । बेशर्म । तऊ रहत नट साल -विहारी (शब्द०)। वेहयाई-स -सज्ञा स्त्री० [फा० येहगा होने का भाव । बेशर्मी। वेहाली-शा मी० [ फा० ] वेहाल होने का भाव । येफली। निर्लज्जता। बेचैनी। व्याकुलता। उ०-पापु पढे मज ऊपर कालो। मुहा०-बयाई का जामा वा पुरका पहनना या श्रोढना = उहाँ निकसि जैए फो राखं नद करत बहाली।-सूर निर्लज्जता धारण करना। निलज्ज हो जाना । पूरा शर्म (शब्द०)। बन जाना । लोक लाज प्रादि की कुछ भी परवा न करना । वेदावन-संशा पुं० [हिं० भयावन ] भयावना । डरावना । वेहर-वि० [ देश० ] १. अचर । स्थावर । उ०–रवि के उदय उ०-भादों भुवन बेहावन भयो। देखत घटा प्रान हरि तारा भो छीना। चर वे हर दूनों मे लीना ।-कवीर गयो।-हिंदी प्रेमगाथा०, पृ० २८० । (शब्द०)। २. अलग । भिन्न । पृथक् । जुदा । उ०-खारि बेहिजाब -वि० [फा०] [संशा वे हजायी] वेपदं । निलंज्ज । वह्या । समुद सब नाघा प्राय समुद जहं खीर | मिले समुद वे हयाहीन (को०] । सातो बहर बहर नीर ।- जायसी (शब्द॰) । बेहर-संज्ञा पुं० वापी । वावली। वेहिम्मत-वि० [ फा०] विना कूवत या ताफत का । कादर । चेहरना-क्रि० अ० [हिं० वोहर+ना (प्रत्य॰)] किसी चीज वेहिस-वि० [फा०] लाचार । गतिहीन । उ०—(क) संग यंत्रों के यंत्र बने, बेहिस पोर वेवस पिसते जाना ।-चाँदनी०, का फटना या तक जाना । दरार पड़ेना । चिर जाना। वेहरा-संशा पु० [देश॰] १. एक प्रकार की घास जिसे चौपाये बहुत पृ० ४१ । (ख) ये मजा हो न नसीबों में किसी वेहिस के ।- श्रीनिवास ग्रं॰, पृ.८६ । पसंद करते हैं । (बुदेल०)। २. मूज की बनी हुई गोल वा चिपटी पिटारी जिसमें नाक में पहनने की नथ रखी जाती है । वेहिसाघ-- 1-क्रि० वि० [फा० ये + ५० हिसाय ] यहुत पषिक । बेहरा-वि० [हिं० यिहरना या देश० ] अलग। भिन्न । जुदा । बहुत ज्यादा । वेहद । बेहुल -सज्ञा पु० [हिं०] दे० 'चेह' । पृथक् । उ०-ना वह मिल ना बैहरा अइस रहा भरपूरि । दिसिटिवंत कहं नीघरे अंघ मुरुष फहं दरि। जायसी बेहुनर-वि० [फा० ] जिसे कोई हुनर न माता हो। जिसमें कोई (शब्द०)। कला या गुण न हो। बेहरा-सज्ञा पुं॰ [अं० वेयरा ] दे० 'वयरा' । बेहुनरा -वि० [हिं० + फा० हुनर १. जिसे कोई हुनर न बेहराना'—क्रि० अ० [हिं० बहर ] फटना । विदीर्ण होना । आता हो। जो कुछ भी काम न कर सकता हो। मुखं । बेहरना। उ०-उठा फूलि हिरदय न समाना। कंथा टुक २. वह भालू या बंदर जो तमाशा करना न जानता हो । टूक वे हराना ।-जायसी (शब्द०)। (कलंदर)। बेहराना-क्रि० स० फाड़ना । विदीणं करना । बेहुरमत-वि० [ फा०] जिसकी कोई प्रतिष्ठा न हो । वेइज्जत । वेहरी -संज्ञा स्रो० [ ? ] १. किसी विशेष कार्य के लिये बहुत से वेहूदगी-संज्ञा स्त्री० [ फा०] बेहूदा होने का भाव | प्रसभ्यता । लोगो से चंदे के रूप में मांगकर एकत्र किया हुआ घन । २. अशिष्टता। इस प्रकार चंदा उगाहने की क्रिया। ३. वह किस्त जो बेहूदा-वि० [ फा०] १. जिसे तमीज न हो। जो शिष्टता या प्रासामी शिकमीदार को देता है । बाछा । सभ्यता के विरुद्ध हो । पशिष्टतापूर्ण । बेहला-संशा पु० [अं० बायोलिन ] सारगी के प्राकार का एक हूदापन-संशा पु० [फा० बेहूदा + हिं० पन (प्रत्य० ) ] बेहूदा प्रकार का अंग्रेजी बाजा । बेला। होने का भाव । बेहूदगी । पशिष्टता । पसभ्यता। चेहवास-वि० [ फा०] विना होश का । परेशान । बदहवास । बेहून-कि० वि० [स० विहीन ] बिना। वगैर! रहित । बेहाथ-वि० [सं० वि+ हस्त, प्रा० विहंथ्य ] हस्तरहित । बिना उ.-भई दुहेली टेक बेहूनी । थांभ नहि उठ सके न थूनी ।—जायसी (शब्द०)। मुहा०-वेहाथ होना=(१) अकर्मण्य' होना । निष्क्रिय वा वेहैफ-वि० [फा० बेहैफ़ ] जिसे कोई चिंता न हो। चिंता हाथ फा।' 1