पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/३३१

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वैगसी। पाया नहीं चाम्हन भक्ति न जान । दाह सराधे वैरी-संदा पुं० [सं० पदर, प्रा० चयर ] बेर का फल और पेड़ । मग या सहा तान। -पबीर (पन्द०)। वैरख-संज्ञा पुं० [ तु० वैरफ ] सेना का अंदा। ध्वजा । पताका। देश- [* मगिनिका ] छटी ननद । पति की छोटी निशान । उ०-धन धावन ग पांति पटो सिर वैरख तहित रहन । (दिल०)। सोहाई ।-तुलसी (शब्द०) (ख) वैरख ढाल गगन गा छाई । ग्ग- यनिंग ] यह चिट्ठी या पारसल जिसका महनून चाल क्टक परती न समाई।-जायसी (शब्द०)। (ग) चलती चपलान है फेरते फिरंग भट, इंद्र को न चाप रूप मंदपाल की पोर न दिया गया हो, पानेवाले से बगुल वैरस समाज को।-भूषण (शब्द०) । frमा जाय। मुटा - रंग काटना पा वापस होना = cिफल या दिना बैरखी-संशा ग्री० [ स० याहु+राखी ] एक गहना । हूंटा । फाम हए तुरंत नोट पाना । वैरन.. 1-वि० सी० [हिं० वैरिन ] दे० 'वैरी'। उ०-देखन दै -० [• बर] १. किसी के साथ ऐसा सबंध जिससे मेरी वैन पलके।-नंद०प्र०, पृ० ३५१ । जोहानि पचाने की प्रवृत्ति हो और उससे हानि पहुँचने का र हो। अनिष्ट सबंध । माता । विरोध । प्रशावत । वैरन- २-सा पु० [पं०] [बी० बैरोनेस ] इगलैंड के सामंतों तया शुभमनी । जैसे,—उन दोनो कुलो में पीढियो का वैर चला बड़े बड़े भूम्यधिकारियो को वंशपरपरा के लिये दी जाने २. विमी के प्रति पहित कामना उत्पन्न करने- वाली उपाधि जिसका दर्जा 'वाइकोट' के नीचे है। वि० वाला भाव । प्रीति का बिल्कुल उलटा । वैमनस्य । दुर्भाव । दे० 'ड्च क'। हो।प। ३०- वैर प्रीति नहिं दुरत दुराए ।-तुलसी बैरा-सज्ञा पु० [ देश० ] चिलम के प्राकार का चोंगा जो हल में (मन्द०)। लगा रहता है और जिसमे बोते समय बीज डाला जाता है। मि०प्र०-सपना। वैरा-संज्ञा पुं० [ अं० बेयरर ] सेवक । चाकर । खिदमतगार । -थैर काटना या निकालना = दुर्भाव वारा प्रेरित कार्य बैरा--संज्ञा पुं० [ देश० ] ईट के टुकड़े, रोहे प्रादि जो मेहराब कर पाना । बदला लेना । उ०-यहि विधि सव नवीन बनाते समय उसमें चुनी हुई ईटों को जमी रखने के लिये पायो मज काढत वैर दुरासी ।—सूर (शब्द०)। वैर खाली स्थान में भर देते हैं। ठाननायुता का संबंध स्थिर करना। दुश्मनी मान लेना। दुर्भाय रखना धारभ करना। ७०-सिर करि पाय कापुको वैराखी-संशा स्त्री० [हिं० बाहु+राखी ] एक गहना जिसे स्त्रियाँ भुजा पर पहनती हैं। इसमे लंबोतरे गोल दड़े बड़े दाने होते भार्ग पर तो मेरो नाव भयो। कालि नहीं यहि मारग ऐसे हैं जो धागे मे गूपकर पहने जाते हैं । वहूँटा । मे मोसों और ठयो।-पूर (शब्द०)। और दालना=विरोध उत्तन्न पारना। दुश्मनी पैदा करना। वैर पहमा बाधक बैराग@+-सज्ञा पु० [सं० वैराग्य ] दे० 'वैराग्य' । उ०-वैराग होना। तंग करना । सनु होकर कष्ट पहुंचाना । उ०- जोग कठिन ऊधो हम न गहैगो।-गीत । गुटुर थैर मेरे परे बरनि वरे सिमुपाल । -सूर (शब्द०)। वैरागरी-संज्ञा स्त्री० [ देश० ] होरे की खान । उ०—(क) वैरागर देर पाना = पधिक दुर्भाय उत्पन्न करना । दुश्मनी बढ़ाना । हीरा हुए कुलवंतिया सपूत । सीप मोती नोपज सब अम्मारा ऐमा गाम करना जिमसे प्रप्रसन्न या फुपित मनुष्य प्रौर भी सून ।-की. प्र, भा॰ २, पृ. २६ । (ख) मतगुरु साधु प्रसन्न पौर कुपित होता जाय । ३०-प्रावत जात रहत शब्द तह बैगगर की खानि । रज्जव खोदि विवेक सू, वहाँ गाही पप मोसों वैर बदहो।-सूर (शब्द०)। वैर पिसाहना नही कछु हानि ।-रज्जव०, पृ० १० । या मोल लेना= जिम बात मे अपना कोई संबंध न हो वैरागी -मा पु मं० विरागी ] [लो० वैरागिन ] वैष्णव मत के उममे गोंग देकर दूसरे को अपना विरोषी या पात्र बनाना । साधुपो का एक भेद । मिना मतलब किसी से दुश्मनी पैदा करना । उ०-चाह्यो वैराग्य-नश पु० [ सं० वैराग्य ] दे० 'वैराग्य' । भयो न पद पर जमगजह सो वृथा बैर विसाह्यो । -पाकर (गन्द०)। पर मानना = दुर्भाय रखना । वुरा राना-क्रि० प्र० [हिं० बाइ, वायु ] वायु के प्रकोप से विग- मानना । दुस्मनी रसना । पैर लेना-बदला लेना । कमर ना। उ०-जे पंखियाँ रा रहीं लगे विरह की बाइ । निवासना। 3.-(क) मेत उहरि को बयर जनु भेक हति पीतम पगरज को चिन्हें मंजन देहु लगाइ ।-रसनिधि गोमाय । -तुलसी (शब्द॰) । (स) लेही थैर पिता तेरे को, (शब्द०)। हे पहा पराई ?-यूर (मन्द०)। बैरिस्टर-मंग पु० [मं० ] दे० 'वारिस्टर' । '[देग०] हल में लगा हुपा चिलम के प्राकार का चैरी-वि० [सं० वैरी] [ी० पैरिन ] १. बैर रखनेवाला । शत्रु । गोगा जिसमे भरा हुमा बोज हल चलने में बराबर रे में दुश्मन । द्वेषी । उ.-(क) शिव वैरी मम दास कहावै । पाहाता है। सो नर सपनेहु मोहिं न पावै । -तुलसी (शब्द०)। (ख)