पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/३४

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फरमाना ३२७३ फरस जात राजा या राज्य की प्रोर से किसी को लिखा गया हो। फरलो-संज्ञा स्त्री० [अ० ] एक प्रकार की छुट्टी जो सरकारी अनुशासनपत्र । उ०-(क) मुल्ला तुझे करीम का धब पाया नौकरों को प्राधे वेतन पर मिलती है। फरमान । घट फोरा घर घर किया साहेब का नीसान । फरवरी-संशा पु० [अ० फेब्रुअरी ] अंगरेजी सन का दूसरा महीना कवीर (शब्द०)। (ख) मामिल हू छिन पौन प्रवीन ले जो प्रायः अट्ठाइस दिन का होता है । नाफरमा फरमानु पठायो।-गुमान (शब्द०)। (ग) वार विशेप-चब सन् ईसवी ४ से पूरा पूरा विभक्त हो जाता है उस पार मथुरा तलक हूमा फरमाना । बकसी की जागीर वर्ष यह मास २६ दिन का होता है। परंतु जब सन में एकाई दै बकसी मैं ठाना । —सूदन (शब्द०)। (घ) फरमान मेल और दहाई दोनों अकों के स्थान में शून्य होता है. उस कोण चाहि, तिरहुति लेलि जन्हि साहि ।-कीर्ति०, प्रवस्था मे यह तवतक २६ दिन का नहीं होता जबतक पृ० ५८ । सैकड़े और हजार का अंक ४ से पूरा पूरा विभाजित न हो। यौ० - फरमाबरदार । फरमाँवरदारी = प्राज्ञाकारी होना । फरा जिस वर्ष यह महीना २६ दिन का होता है उस , वर्ष इसे बरदार होना। अंगरेजी हिसाब से लौंद का महीना कहते हैं । फरमाना-क्रि० स० [फा० फरमान] प्राज्ञा देना । कहना । उ० फरवारी-संज्ञा पुं० [सं० फल, हिं० फर+वार (प्रत्य०) ] वह (क) सोयो बादशाह निसि प्राय के सपन दियो कियो वाको स्थान जहाँ किसान अपने खेत की उपज रखते हैं और जहाँ इष्ट वेप कही प्यास लागी है। पीयो जल जाय पावखाने उसे दाँते और पीटते हैं। खलिहान । उ०--कटत पान अरु लै वखाने तब अति ही रिसाने को पियावं फोउ रागी है । दाय जठ फरवारन महँ ।-प्रेमघन॰, भा० १, फिरि मारयो लात अरे सुनी नही वात मेरी. श्राप फरमावो पृ०४४। जो पियावे वड़ भागी है। सो तो तै लै कैद करयो सुनि फरवारी --सज्ञा स्त्री० [हिं० फरवार+ई (प्रत्य॰) ] अन्न का वह प्रवरेउ डरयो भरयो हिय भाव मति सोवत से जागी है ।- भाग जो किसान अपने खलिहान में से राशि उठाने के समय प्रियादास (शब्द॰) । (ख) अब जो रोस साह उर आवै । वढई, धोवी, नाई, ब्राह्मण आदि को निकालकर देते हैं । तो हम पे फौजें फरमावै ।-लाल (शब्द०)। फरवी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्फुरण ] एक प्रकार का भुना हुआ चावल विशेष-इस शब्द का प्रयोग प्रायः बड़ों के संबंध में उनके प्रति जो भुनने पर भीतर से पोला हो जाता है। मुरमुरा । प्रादर सूचित करने के लिये होता है। जैसे,—यही बात लाई। मौलवी साहब भी फरमाते थे। फरवी-संज्ञा स्त्री॰ [हिं० फावड़ा अथवा देश० ] दे० 'फरही।' फरसायश--संज्ञा स्त्री॰ [ फा० फ़रमाइश ] दे० 'फरमाइश' ७०- फरश-सज्ञा पुं० [अ० फर्श ] १. बैठने के लिये विछाने का वस्त्र । लाला मदनमोहन मे फरमायश की।-श्रीनिवास , बिछावन । २. घराबर भूमि जिसपर लोग बैठते हैं। पृ०१८२ । घरातल । समतल भूमि । ३. घर या कोठरी के भीतर फरमूद-वि० [ फा० फरमूदह ] फरमाया हुघा। कहा हुआ। की बह समवल भूमि जो पत्थर या ई विछाकर या चूने उ०-उसकू छोड़ राह विचार शरियत जिसकूँ कहना। गारे से बराबर की गई हो । बनी हुई जमीन । गच । इंसाफ उपर सभी काम फरमूद के सू रहना ।-दक्खिनी०, फरशवंद -संज्ञा पुं० [फा० फर्शबंद ] वह ऊँचा और समतल स्थान पृ० ५५। जहाँ फरश बना हो। फरमोस - वि० [ फा फरामोश ] विस्मृत । भूला पा भुलाया फरशा-वि० [बँग०, मि.हिं० फरचा ] गोरा। साफ। उ.- हा। उ०-भीखा का मन कपट कुचाली दिन दिन होइ फरशा फरशा गामेर रंग ।-भस्मावृत०, पृ० ७२ । फरमोस।-भीखा० श०, पृ०२८ । फरशी-संज्ञा स्त्री॰ [फा० फ़र्शी ] १. फूल, पीतल भादि का बना फरयाद-संज्ञा स्त्री॰ [ फ़ा० फर्याद ] दे० 'फरियाद' । हुप्रा वरतन जिसका मुंह पतला और तंग होता है और जिस फरयारी--संशा स्त्री० [हिं० फाल ] हल के जाँचे में लगी हुई वह पर नेचा, सटक आदि लगाकर लोग तमाकू पीते हैं । गुड़, लकड़ी जिसमें फाल (फल) लगा रहता है । खोंपी। गुड़ी। २. वह हुक्का जो उक्त बरतन पर नेचा भादि लगा. फरराना-कि० भ० [हिं० फहराना ] दे० 'फहराना' । उ०—है कर बनाया गया हो। गै गैवर सघन घन, छत्र घजा फरराइ । ता सुख पै भिष्या फरशी-वि० फर्श से संबंधित या फर्श पर रखा वा विछाया भली, हरि सुमिरत दिन जाइ ।-कबीर सं०, पृ० ५३ । । जानेवाला। फरराना-क्रि० स० दे० 'फहराना' । फरसंग-संज्ञा पुं० [फा० फरसंग] ४००० गज की दूरी । प्रायः फरलांग-संज्ञा पु० [५] भूमि की लंबाई की एक अंगरेजी माप । ' सवा दो मील । उ०-तस्त कई फरसंग का हाजिर हुमा, विशेप-यह एक मील का पाठवा भाग होता है और चालीस हुक्म सूउनके नित बर हवा ।-दक्खिनी०, पृ० १०४ । राड या पोल (ल?) के बराबर होता है । फरस-सञ्ज्ञा पुं॰ [अंफ़र्श ] दे० 'फरश'। उ०-ठी जसन ७-३