पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/३४०

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२२७६ बौता पार करु। घोहित्य-संज्ञा पुं० [सं० वोहित्थ, प्रा० बोहित्थ ] दे० 'बोहित' । उ०–एकोहं बहुस्यामि में काहि लगा अज्ञान । को मुरुख उ०-विष्णु स्वामि बोहित्य सिंधु ससार को पडिता केहि कारण वौमान ।-कबीर (शब्द॰) । -भक्तमाल (श्रो०), पृ० ३७५ । बौखम -वि० [हिं० ] दे० 'बौखल'। विशेष-हेमचंद्र ने इसे देशी माना है। बौखल-वि० [हिं० पाउ+सं० स्खलन ] सनकी । पागल ! उ०- वोहिथ-संज्ञा पुं० [सं० वोहित्थ, प्रा० बोहित्थ, बोहिथ] दे० 'बोहित' । वह बौखल सा प्रादमी, जो खपरैल में बैठा था न, उसने बहुत उ०-(क) तो सम न और तिहु लोक में, नट्ट भट्ट नाटिक्क नर । दिक किया ।—फिसाना०, भा० ३, पृ० १२७ । संसार पार बोहिथ समह तोहि मात देवी सुबर ।-पृ० रा०, बौखलाना-क्रि० [हिं० बाउ+सं० स्खलन ] १. कुछ कुछ पागल ६।१४८ । (ख) को बोहिय को खेवट पाही । जिहि तिरिए हो जाना। बहक जाना। सनक जाना। २. झल्लाकर या सो लीजे चाही।-कबीर पं०, पृ० २३४ । क्रुद्ध होकर कुछ कहना। वोहिया-पंञ्चा त्री० [ देशा० ] एक प्रकार की चाय जो चोन में बौखलाहट-संज्ञा स्त्री॰ [हिं० पौखल + श्राहट (प्रत्य॰)] सनकीपन । होती है। इसकी पत्तियां छोटी और काली होती है । पागलपन। घोहोता-वि० [हिं० ] दे० 'बहुत । उ०-सो तामस भक्त को बौखा-संज्ञा स्त्री० [सं० वायु+स्खलन ] हवा का तेज झोंका जो श्रोठाकुर जी के प्रगट स्वरूप प्रति प्रासक्ति बोहोत रहत वेग में प्रांधी से कम हो। है।-दो सौ बावन०, भा० १, पृ० ३ । बोहोरिरी-क्रि० वि० [हिं०] ६० वरि'। उ०-बोहोरि एक बौछाड़ -संज्ञा स्त्री० [सं० वायु + सरित ] १. वायु के झोके से तिरछी दिन अर्ध रात्रि के समय श्रीगुसाई जी वाहोत प्रसन्नता पाती हुई बूदों का समूह । बूदों की झड़ी जो हवा के झोंके के साथ कहीं जा पड़े। भटास । मे बैठे हते ।-दो सौ बावन०, भा॰ २, पृ० ६४ । क्रि० प्र०-बाना। घौड़ा-संज्ञा स्त्री० [ स० वोण्ट (= वृत, टहनी) ] १. टहनी जो दूर तक डोरी के रूप में गई हो। २. लता । बेल । उ० २. वर्षा की बूंदों के समान किसी वस्तु का बहुत अधिक संख्या नृपहि मोद सुनि सचिव सुभाखा । बढ़त बौड़ जनु लही में कहीं आकर पड़ना । जैसे, फेंके हुए ढेलों की बौछाड़ । ३. बहुत अधिक संख्या में लगातार किसी वस्तु का उपस्थित सुसाखा ।—तुलसी (शब्द०)। किया जाना । बहुत सा देते जाना या सामने रखते जाना । बौड़ना-क्रि० स० [हिं० वौद+ना (प्रत्य०) ] लता की तरह वर्षा । झड़ी। जैसे,—उस विवाह में उसने रुपयों की बौछाड़ बढ़ना । टहनी फेंकना | बढ़कर फैलना । उ०—(क) मूल कर दी। ४. लगातार बात पर बात, जो किसी से कही मूल सुर बीथि तम तोम सुदल अधिकाई । नखत सुमन नभ जाय । किसी के प्रति कहे हुए वाक्यों का तार । जैसे, गालियों बिटप बौड़ि मनो छपा छिटकि छबि छाई।-तुलसी की बौछाड़। (शब्द०)। (ख) राम बाहु बिटप विसाल बौड़ी देखियत क्रि० प्र०-छूटना । छोड़ना ।-पड़ना। जनक मनोरथ फलपबेलि फरी है । —तुलसी (शब्द०)। ५. प्रच्छन्न शब्दों में प्राक्षेप या उपहास । व्यंग्यपूर्ण वाक्य बौडर-संशा पुं० [सं० वायुमण्डल, हिं० बवंडर ] घूम घूमकर जो किसी को लक्ष्य करके कहा जाय । ताना । कटाक्ष । चलनेवाली वायु का झोका । वगूला। उ०-उनहीं मैं बोली ठोली। सति भ्रमति है ह्र बौंडर को पान ।-ति० प्र०, पृ. क्रि० प्र०-करना छोड़ना ।-मारना ।—होना । ३२३ । (ख) जहें तह उड़े कीश भय पाए । यथा पात बौडर के पाए ।-रघु० दा० (शब्द॰) । घोछारा-संज्ञा स्त्री० [हिं० ] दे० 'बौछाड़' । गौड़ो'-संज्ञा श्री० [हिं० पौड़ ] १. पौधो या लताओं के वे कच्चे बौड़ना-क्रि० स० [सं० वातुल ] वातग्रस्त होना । फल जो साररहित होते हैं । ढेंडी। ढोड़। जैसे, मदार या घौडम-वि० [सं० वातुल ] सनकी । अर्घविक्षिप्त । पागल सा । सेमर की बौड़ी। उ०-गए हैं बहर भूमि तहाँ कृष्ण झमि बौड़मपन-संवा पुं० [हिं० चौड़म+पन (प्रत्य॰)] पागलपन । आए करी बड़ी धूम अाक बौदिन सों मारिके।-प्रियादास सनक । बौड़म होना । उ०-स्नेह के बौड़मपन में दांतों को (शब्द०)। २. फली। छोमी । पीसता हुमा कहने लगा।-संन्यासी, पृ० १५५ । चौड़ी-सज्ञा स्त्री० [हिं० दमड़ी ] दमड़ी। छदाम । उ०—जाचे बौड़हा-वि० [सं० वातुल, हिं० बाटर+हा (प्रत्य०) ] बावला । को नरेस देस देस को फलेस फरै दैहै तो प्रसन्न हूं बड़ी बड़ाई पागल । बौड़ियै ।-तुलसी (शब्द॰) । चौता-वि० [हिं० बहुत ] दे० 'बहुत' । धौला-संज्ञा स्त्री० [सं० वधू, प्रा० घर ] परिवार की बड़ी वधू । चौता-संञ्चा पुं० [अ० ब्वाय+हिं० ता या टा (प्रत्य॰)] जहाजों को पौधाना-क्रि० [अ० सं० वायु, हिं० वाउ+पाना (प्रत्य॰)] किसी स्थान की सूचना देने के लिये पानी की सतह पर १. सपने में कुछ कहना । स्वप्नावस्था का प्रलाप । २. पागल ठहराई हुई पीपे के माकार की वस्तु । समुद्र में तैरता हुमा या बाई चढ़े मनुष्य की भांति पट्ट सट्ट वक बठना | बर्राना। निशान । तिरोदा । काती (लय०) । ।