पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/३४३

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ध्यारी व्यवहार वाला । महाजन । उ०-तब प्रानिय व्यवहरिया वोली । व्यान'g-संज्ञा पु० [फा० बयान ] वखान । वर्णन | वयान । तुरत देउ मै थैली खोली।-तुलसी (शब्द॰) । पलक राम सुन ज्ञान, कहूँ व्यान समझाइकै ।--घट०, पु० ३३० । व्यवहार-संज्ञा पु. [ स० व्यवहार ] १. दे० 'व्यवहार'। २. रुपए का लेन देन । ३. रुपए के लेन देन का सवध । ४. सुख दुःख व्यान २-सज्ञा पु० [सं० विजनन, हिं० विधान ] दे० 'पिनान' । में परस्पर संमिलित होने का सवध । इष्ट मित्र का सबध । उ.-भगवान ने चाहा, तो सौ रुपए इसी व्यान में पीट जैसे, हमारा उनका व्यवहार नही है। लुगा। -गोदान, पृ० ५। व्यवहारी-सज्ञा पु० [ स० व्यवहारिन् ] [ ओ० व्यवहारिणी ] १. व्याना-क्रि० स० [स० वीज, हिं० पिया+ना (प्रत्य॰)] कार्यकर्ता। मामला करनेवाला। २. लेन देन करनेवाला। जनना । उत्पन्न करना। पैदा करना। गर्भ से निकालना। व्यापारी । ३. जिसके साथ प्रेम का व्यवहार हो । हितू या जैसे, गाय का बछड़ा व्याना । इष्ट मित्र । ४. जिसके साथ लेन देन हो । च्याना-क्रि० प्र० बच्चा देना । जनना । व्यसन-सज्ञा पु० [ स० व्यसन ] दे० 'व्यसन' । उ०-पासा बसन व्यापक, व्यापकुल-वि० [सं० व्यापक ] दे० 'ध्यापक' । उ०- व्यसन यह तिनही। रघुपति चरित होहिं तह सुनही । व्यापकु एकु ब्रह्म प्रविनासी । सत चेतन धन प्रानंद रासी।- -तुलसी (शब्द०)। मानस, १॥२३॥ व्यसनी-वि० [सं० व्यसनिन् ] दे० 'व्यसनी' । व्यापना-क्रि० अ० [सं० व्यापन ] १. किमी वस्तु या स्थान में व्याउ-सज्ञा पु० [स० पिवाह ] दे० 'ब्याह' । उ.-नाहिन इस प्रकार फैलाना कि उसका कोई मंश वाकी न रह जाय । करिही व्याउ, करी जिनि लाड़ हमारी ।-नद० न०, प्रोत प्रोत होना। क्सिी स्थान में भर जाना। कोई जगह पृ० १६५ । छेक लेना। २. चारो प्रोर जाना। फैलना । उ०-सुनि व्याउरी-वि० [हिं० विश्राना+श्राउर (प्रत्य॰)] जनन करनेवाली । नारद के बचन तब सब कर मिटा विषाद | छन मह व्यापेउ बच्चा देनेवाली । उ०-व्याउर बेदन वाझ न बूझ । सकल पुर घर घर यह संवाद |—तुलसी (शब्द०)। ३. -धरनी० बानी, पृ० २६ । घेरना। ग्रसना। उ०-जरा अवहि तोहि व्यापै पाई। भयेउ वृद्ध तब कह्यो सिर नाई।—सूर (शब्द०)। ४. व्याक्रन्न-संज्ञा पु० [सं० व्याकरण, प्रा० व्याक्रन्न] दे० 'व्याकरण' उ०-व्याक्रन्न कथा नाटक्क छद । -पृ० रा०, ११३७१ । प्रभाव करना । मसर करना । उ०-(क) चिंता सौपिन को नहिं खाया। को जग जाहि न व्यापी माया ।-तुलसी व्याघर-संक्षा पु० [सं० ध्यान ] दे० 'व्याघ्र'। उ०—(क) (शब्द०)। (ख ) गुरू मिला तब जानिए मिटे मोह तन व्याघर सिंघ सरप बहु काटी, बिन सत गुर पावे नहिं बाटी। ताप । हरप शोक व्याप नही तब हरि पापै पाप ।-कवीर कबीर० श०, भा० १ पृ० ५८ । (ख) व्याधर के घर पढ़े (शब्द०)। पुरानो दादुल भै गौ वक्ता । -त. दरिया. पृ० १२७ । संयो० कि०-जाना। व्याज-सज्ञा पुं० [ स० व्याज ] १. दे० 'व्याज' । २. वृदि। सूद । व्यापार-संज्ञा पुं० [सं० व्यापार ] दे० 'व्यापार' । उ०-(क) कलि का स्वामी लोभिया मनसा रहे बंधाय । देवे पैसा व्याज को लेखा करत दिन जाय ।-कवीर व्यापारी-संज्ञा पु० [सं० व्यापारिन् ] दे० 'व्यापारी'। (शब्द०)। (ख) सो जनु हमरेहि माथे काढ़ा। दिन चलि व्यापित-वि० [सं० व्याप्त ] दे० 'व्याप्त' । उ०--जल पल प्रो गयेउ व्याज बहु बाढ़ा।-तुलसी (शब्द०)। पवन पानी व्यापित है सोय |-जग० वानी, पृ० ३३ ! क्रि० प्र०-जोड़ना।-फैलाना ।- लगाना । ब्यार-संज्ञा स्त्री० [हिं० बयार ] वायु । क्यार । उ०-(क) यौ०-व्याजखोर = सूदखोर । व्याज बट्टा-हानि लाभ । नफा प्रागै प्रागै धाय धाय बादर बरखत जाय, व्यारन तै पलकन ठोर ठौर छिरकायो।-नंद० म०, पृ० ३७३ । (ख) नुकसान । व्याजो-सज्ञा पुं० [सं० व्याजिन् ] बहानेबाज । छली।-अनेकार्थ, चौवेजी-हा न्यार ते कहूँ पहार उड़े हैं। -श्रीनिवास . गृ० ४८॥ पृ०४८ । व्यारिरी-सज्ञा स्त्री० [हिं० बयार] दे० 'बयार' । उ०-नेक हेसि के व्याजू-वि० [हिं० व्याज ] व्याज पर दिया या लगाया हुआ (धन)। जैसे, हमारे पास १०० रुपए थे, सो हमने व्याजू दे दिए । व्यारि हलावो।-पोद्दार अभि० ग्रं, पृ०६१३ । व्यारी-संज्ञा स्त्री० [सं० विहार ? या वि.( वि'शष्ट)+पाहार ] व्याध-सञ्ज्ञा पु० [सं० व्याध ] दे० 'व्याघ' । १. रात का भोजन । ब्यालू । उ०-एक दिन हरि ब्यारी, व्याधा-सज्ञा स्त्री० [सं० व्याधि ] दे० 'व्याधि' । करवाई। पूजक बीरी दियो न जाई।-रघुगज (शब्द०)। व्याधा-संज्ञा पु० [सं० व्याध ] दे० 'व्याध' । क्रि० प्र०—करना । उ०-रात दिन दस बजाकर न्यारी - न्याधि--संज्ञा स्त्री० [सं० व्याधि ] दे० 'व्याधि' । करते ।-प्रेमघन०, भा० २,०८१। --