पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/३५

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फरस ३२७४ जलूस करि फरस फठी नुखदान । पानदान त ले दऐ पान पान भीटों पर इसे छाया के लिये लोग लगाते हैं। पुराणों में प्रति पान।-10 सप्तर, पृ० ३६४ । इस पत्र देवतर में माना है। इसे 'नहसुत' भी कहते हैं। देद्य में इसका स्वाद कदु, प्रकृति उप्ण और गुण अरुचि, चौ०-फरसबंद = दे० 'फन्शबंद' । उ०-कई पद्माकर फराकत कफ, कृमि और प्रमेह नाशक लिखा गया है। इसका फूल फरसबंद फहरि फुहारन की फरस फको है फाय। -पद्माकर पित्तरोग और रोग का नाशक माना जाता है। (शब्द॰) । पर्या-पारिभद्र। भदक । प्रमंदार । कंकिंशुक । नियतक। फरस'-शा पुं० [० परशु] ३. फरसा' । चौ.-फरसराम = परशुराम । ३०-फरसराम फरसी गही फरहर-- [सं० स्फार, प्रा० फार ( = अलग अलग), अयवा लग्योपनियन काल ।-पृ० ग०, २२२५६ । फहरा] १. जो एक में लिपटा या मिला हुमा न हो, अलग अलग हो । जैसे, फरहर भान । २. साफ । सप्ट । ३. शुद । फरसा-ज्ञा पुं॰ [सं० परशु ( = फरशु)] १. पैनी और चौड़ी धार निर्मल । ४. जो कुछ दूर दूर पर हो । ५. जो उदास न हो । की एक प्रकार की कुल्हाड़ी। यह प्राचीन काल में युद्ध में काम पाती थी। उ०—काल कराल नृपालन के धनुभंग मुने खिला हुमा । प्रसन्न । हरा भरा । ६. तेज । चालाक। फरसा लिए घाए । -तुलसी (शब्द०)। २. फावड़ा । फरहरन-संशडी० [हिं० फरहरना ] फहराने का स्पिति । १०-सखि निरखि भई मति पंगु, पीतांवर फरहरन में। फरसी'-संज्ञा स्त्री॰ [फा० फर्शी ] दे० 'फरशी'। -नंद० प्र०, पृ० ३८५। फरसी:-संशा ही० [सं० परशु 'फरसा' उ०-फरसराम फरहरना-फि० प्र० [अनु० फरफर ] १. फरफराना । फरकना । फरसी ग्रही लग्यो पत्रियन काल । -पृ० रा०, २।२५६ । उ०-भीमसैन फरके भुजदंडा । अघर फरहरत रोस प्रचंग। फरसूदा-2 [फा० फसूदह ] १. जीर्णशीर्ण । जर्जर । २. -उबलसिंह (शब्द॰) । २. उड़ना। फहराना । उ०- पुगना [को०] सिर केतु सुहावन फरहते। जेहि लति परदल घरहर।- फरस्सीg-संशा बी० [हिं० फरसा ] एक प्रकार की चौड़ी और गोपाल (शब्द०)। पैनी धार की कुल्हाड़ी । दे० 'फरसा' । ३०-तबै फर्सरामं फरहरनि-संझा की० [हिं०] फरहराने का कार्य या स्थिति । फरस्ती उभारी । पृ० रा०, २०२५३ । फरहरा'-संज्ञा पु० [हिं० फहराना] १. पताका । झंडा। उ०- फरहंग-संज्ञा पुं॰ [फा०] १. कोश | शब्दसंग्रह । जैसे, फरहंग ए जो शरीर प्रागू चलत चपल प्रान तुहि जात । मनो वातबस यासफिया। २. विवेक । ३. व्याख्या किो०] । फरहरा पाछे ही फहरात ।-श्यामा०, पृ०६६ । २. कपणे फरह-संज्ञा पु० [अ० फरह ] हर्ष । पानंद । प्रादि का वह तिकोना या चौकोना टुकड़ा जिसे छड़ या हंडे फरहटा -संडा पुं० [हिं० फाल ] चौड़ी और पतली पटरियां जो के सिरे पर लगाकर झडो बनाते हैं और जो हवा के झोंके चरखी आदि के बीच की नाभि से बांधकर या गाड़कर खड़े से उड़ता रहता है। वल में लगाई जाती हैं । फरेहा । फरहरा-वि० [हिं० फरहर ] १. मलग अलग । स्पष्ट । २. शुद्ध । फरहत-मज्ञा स्त्री० [ फर्हत ] १. घानंद । प्रसन्नता । उ० निर्मल । ३. खिला हुया । प्रसन्न । नजर करती है बस तुम्हारा जमाल । मेरे दिल को हासिल है फरहारी-मंझा झी॰ [हिं० फल या फर+हरा (प्रत्य॰)] फल । फरहत कमाल ।-दक्खिनी०, पृ० २१७ । २. मनःशुद्धि । उ०-सुख कुरियार फरहरी खाना । विष भा जव विनाघ फरहद-संज्ञा पुं॰ [ स० पारिभद्र, पा० पारिभइ प्रा० पारिहह ] एक तुलाना । —जायसी पं० (गुप्त), पृ० १६७ । पेड़ का नाम जो वगाल में समुद्र के किनारे वहुत होता है। फरहा-संश पुं० [हिं० फल ] धुनियों को कमान का वह भाग जो वहाँ के लोग इसे 'पालिते मंदार' कहते हैं। चौड़ा होता है और जिसपर से होकर तांत दूसरी छोर तक विशेप-यह पेड़ घोड़े दिनो में बढ़कर तैयार हो जाता है और जाती है। यह वेने के भाकार का होता है पोर धुनते समय न बहुत बड़ा और न बहुत छोटा, मध्यम प्राकार का होता है। इसमें पहले कांटे होते हैं। पर बड़े होने पर छिलका फरहार-संज्ञा पुं० [सं० फलाहार ] दे० 'फलाहार' । उ०-पूजि उतरता है और स्कंघ चिकना हो जाता है । किंतु नालियों में पितर सुर अतिथि गुरु करन लगे फरहार ।-मानस, फिर भी छोटे छोटे काटे रह जाते हैं । ढाक की पत्तियों के २।२७८। समान इसमें भी एक नाल में तीन तीन पत्तियां होती हैं। फरहो-संज्ञा सी० [हिं० फरहा ] लकड़ी का वह चौड़ा टुकड़ा फूल लाल और सुंदर होते हैं । फूलों के झड़ जाने पर जिसपर ठठेरे बरतन रखकर रेती से रेतते हैं । फलियां लगती हैं। फूलों से लाल रग निकलता है । छाल से फरा-संश पुं० [ देश० ] एक प्रकार का व्यंजन । फारा। भी रंग निकाला जाता है और उसे कूटकर रस्सी भी बटी विशेप-इसके बनाने के लिये पहले चावल के पाटे को गरम जाती है। इसकी लकड़ी नरम और साफ होती है और धूप पानी मे गूधकर उसकी पतली पतली बत्तियां बटते हैं और में फटती या चिटकती नही। इसके खिलौने प्रादि बनाए फिर उन बत्तियों को उबलते हुए पानी की भाप में जाते हैं क्योकि इसपर वानिश अच्छी खिलती है । पान के पकाते हैं। प्र० आगे पढ़ता है।