पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/३५०

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ब्रह्मराक्षस ब्रह्मपुराण स० भोजन । ब्रह्मपुराण-संज्ञा पुं॰ [सं०] अठारह पुराणों में से एक । ब्रह्मभाग-संज्ञा पुं॰ [सं०] १. शहतून । २. यज्ञ में ब्रह्मा को मिलने- विशेष-पुराणों में इसका नाम पहले प्राने से कुछ लोग इसे वाला अश या हिस्सा [को॰] । प्रादि पुराण भी कहते है। मत्स्यादि पुराणो में इसके ब्रह्मभाव-संज्ञा पु० [ स०] कैवल्य । मोक्ष [को०] । श्लोकों की संख्या दस हजार लिखी है। पर आजकल ७००० श्लोकों का ही यह पुराण मिलता है। -वि० [सं०] ब्रह्मलीन [को०] । जिस ब्रह्मभूत- रूप में यह पुराण यिलता है, उस रूप में प्राचीन नही ब्रह्मभूति-सञ्ज्ञा जी० [ स० ] सायंकाल | संध्या [को॰] । जान पड़ता। इसमें पुरुषोत्तम क्षेत्र का बहुत अधिक वर्णन ब्रह्मभूमिजा-सञ्ज्ञा पुं० [ ] सिंहली। हैं । जगन्नाथ जी और कोणादित्य के मंदिर प्रादि का ४० ब्रह्मभूय-सज्ञा पुं० [सं०] १. ब्रह्मस्व । २. मोक्ष । प्रध्यायों में वर्णन है । 'पुरुषोत्तम प्रासाद' से जगन्नाथ जी के ब्रह्मभोज-संज्ञा पु० [सं०] ब्राह्मणों को खिलाने का कर्म । ब्राह्मण- विशाल मंदिर का अभिप्राय है जिसे गागेय वंश के राजा चोडगंग ने वि० सं० ११३४ में बनवाया था। उत्तरखंड में ब्रह्ममंडूकी-सज्ञा स्त्री० [सं० ब्रह्ममण्डूकी ] १. मजीठ । २. मंडूक- मारवाड़ को वलजा नदी का माहात्म्य है । कृष्ण की कथा पर्णी । ३. भारंगी। भी आई है, पर अधिकतर वर्णन तीर्थो और उनके माहात्म्य ब्रह्ममति-सञ्ज्ञा पु० [सं०] गेद्धों में एक प्रकार के उपदेवता जिनका का है। ब्रह्मपुरो-सज्ञा स्त्री० [सं०] १. ब्रह्मलोक । २. वाराणसी नगरी वर्णन ललितविस्तर मे पाया है । [को०] । ब्रह्म मुहूरत-संज्ञा पु० [ स० ब्रह्ममुहूर्त ] दे॰ 'ब्रह्ममुहूर्त' । उ०- ब्रह्मप्रलय-संज्ञा पु० [सं०] सृष्टिचक्र का वह प्रलय या विनाश उ०-(क) ब्रह्ममुहूरत भयो सबेरो जागे दोऊ भाई।- जो ब्रह्मा की १०० वर्ष की प्रायु की समाप्ति पर होता सूर (शब्द०)। (ख) ब्रह्ममूहूरत जानि नरेशा । प्रायो निज है [को०] । यदुनाथ निवेशा ।-रघुराज (शब्द०)। ब्रह्मप्राप्ति-सज्ञा स्त्री० [सं०] ब्रह्मनिर्वाण । कैवल्य [को०] । ब्रह्ममुहूर्त-संज्ञा पुं॰ [ स०] बड़े तड़के का समय । सूर्योदय से.३.४ ब्रह्मफाँस-सज्ञा स्त्री० [सं० ब्रह्म + हि० फाँस < सं० पोण ] दे० घड़ी पहले का समय। 'ब्रह्मपाण'। ब्रह्ममूर्धमृत्-संज्ञा पुं० [सं० शिव का एक नाम [को॰] । ब्रह्मबंधु-संज्ञा पुं० [सं० ब्रह्मवन्धु ] १. वह ब्राह्मण जो अपने फर्म से ब्रह्ममेखल-संज्ञा पुं० [सं०] मुज तृण । मुंज । हीन हो। पतित ब्राह्मण । २. वह जो फेवल जाति से ब्रह्ममेध्या-सज्ञा स्त्री० [सं०] महाभारत में वणित एक नदी। ब्राह्मण हो । जात्या ब्राह्मण । ब्रह्मयज्ञ-सज्ञा पुं० [सं०] १. विधिपूर्वक वेदाभ्यास । २. वेदाध्ययन । ब्रह्मबल-सज्ञा पु० [स० ] वह तेज या शक्ति जो ब्राह्मण को तप वेद पढ़ना। श्रादि के द्वारा प्राप्त हो । ब्राह्मण की शक्ति । ब्रह्मयष्टि-संज्ञा स्त्री० [सं०] भारंगी । ब्रह्मनेटी। ब्रह्मवान-सज्ञा पुं० [सं० ब्रह्म + वाण ] दे० 'ब्रह्मास्त्र'-१। ब्रह्मयाग-संज्ञा पुं० [सं० ] दे० 'ब्रह्मयज्ञ' । उ०-ब्रह्मवान कपि कई तेहि मारा-मानस, ६२२० । ब्रह्मयामल-सज्ञा पुं० [सं० ] एक तंत्रनय । ब्रह्मवानी-संज्ञा स्त्री० [सं० ब्रह्मवाणी ] जगत् के कारणभूत नित्य ब्रह्मयोगि-संज्ञा पुं० [सं०] १८ मात्राप्नों का एक ताल जिसमें १२ चेतन सचा ईश्वर या परमात्मा की वाणी। वेदवाणी। प्राघात और ६ खाली होते हैं । उ०-गगन ब्रह्मवानी सुनि काना ।—मानस, ११८७ । ब्रह्मयोनि-संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक तीर्थस्थान जो गया जी में ब्रह्मबिंदु-संज्ञा पुं० [सं० ब्रह्मबिन्दु ] दे॰ 'ब्रह्मविदु' । है। २. ब्रह्म की प्राप्ति के लिये उसका ध्यान । ३. ब्रह्मनदी। ब्रह्मविद्या-सञ्ज्ञा संज्ञा [ सं० ब्रह्मविद्या ] १. उपनिषद् विद्या । ब्रह्म- सरस्वती (को०)। विद्या । २. आदिशक्ति । दुर्गा । उ०-सब सुभ लच्छन भरी, ब्रह्मरध्र-संशा पुं० [ स० ब्रह्मरन्ध्र ] मूर्धा का छेद । ब्रह्माडद्वार | गुन नरी आनि ब्रह्मविद्या प्रवरी।-नंद० ० पृ० २२१ । मस्तक के मध्य में माना हुप्रा गुप्त छेद जिससे होकर प्राण ब्रह्मबोज-सज्ञा पुं० [सं०] १. 'घो'। प्रणव । २. शहतूत का वृक्ष निकलने से ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है। कहते हैं, योगियों के या फल [को०] । प्राण इसी रध्र से निकलते है। उ०-ब्रह्मरंध्र फोरि जीव यो मिल्यो विलोकि जाइ। गेह चूरि ज्यो चकोर चंद्र में ब्रह्मभट्ट-संज्ञा पु० सं०] १. वेदों का ज्ञाता। २. ब्रह्म या ईश्वर को जाननेवाला। ३. सृष्टि के धादि मे ब्रह्मयज्ञ से उत्पन्न मिलै उड़ाइ।-केशव (शब्द०)। कवि नामक ऋषि की उपाधि । ४. एक प्रकार के ब्राह्मणों ब्रह्मराक्षस-संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रेत योनि मे गया हुआ की उपाधि । ब्राह्मण । वह ब्राह्मण 'जो मरकर भूत हा हो । ब्रह्मभद्रा-संञ्चा स्त्री० [सं०] औषध में प्रयुक्त एक वनस्पति । पाय उ०-पाजतक किसी भक्त महात्मा के सिर पर न कभी माणा बता [को०] । रामकृष्ण पाए, न ब्रह्म-ही, ब्रह्मराक्षस अलबत पाते हैं।