पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/३६३

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३६०२ भकमाक्ष मकुयाना' विदेशी पदार्थ ले लेकर भकुधा घनने के प्रत्यक्ष प्रमाण बनते ज्ञानी चार प्रकार के भक्त तथा भागवत के अनुसार नवधा हुए।-प्रेमघन॰, भा॰ २, पृ० २३५ । भक्ति के भेद से नौ प्रकार के भयत माने गए हैं। भकुआना-क्रि० प्र० [हिं० भकुमा+ना (प्रत्य॰)] पकपका जाना । भक्तकंस-गंगा पु० [सं०] भात ( पके हुए चावलों ) से भरी क.से की थाली। घबरा जाना। भकुआनारे-क्रि० स० १. चकपका देना। घबरा देना। २. मूर्ख भक्तकरसंशा पु० [सं०] एक प्रकार का सुगंधित द्रव्य जो अनेक बनाना। दूसरे द्रव्यो के योग से बनाया जाता है । भकुड़ा-सज्ञा पुं० [हिं० भाँकुट ] मोटा गज जिससे तोप में बत्ती भक्तकार-सज्ञा पुं० [म.] १. रसोइया । पाचक | २. भक्तकर आदि ठूसी जाती है। नामक सुगधित द्रव्ध। भफुड़ाना-क्रि० स० [हिं० भकुडा + पाना (प्रत्य॰)] १. लोहे भक्तकृत्य-संज्ञा पुं॰ [ मं०] भोजन पकाना को०] । के गज से तोप के मुह में बनी भरना । २. लोहे के गज से भक्तच्छद-सज्ञा पुं० [म० भत्तच्छन्द] साने की इच्छा। तोप के मुह का भीतरी भाग साफ करना। बुमुक्षा । भूरा [को०] | भकुरना -क्रि० स० [ देश० ] मृह लटकाना। रूठ जाना । उ०- भक्तजा-संज्ञा को [ म० ] अमृत । निनी ने मनाया, मरी ठहर भी, यो ही भरने लगी। भक्तता-संशा सी० [म.] भक्ति । -मृग०, पृ० ४८ । भक्ततूर्य-संज्ञा पुं० [स०] प्राचीन काल का एक प्रकार का बाजा भ कुरा -संज्ञा पुं० [हिं० ] मूर्ख । भकुमा। प्रशानी । उ०-मान जो भोजन करते समय बजाया जाता था। गवाए सोइ सब, जो संपति इति साथ । प्रजहूँ जागु न घर भक्तत्व-संज्ञा पुं॰ [सं०] विसी के मंग वा माग होने का भाव । बसे, भकुरे है कछु हाथ |-चित्रा०, पृ० ३५ । अव्ययीभत होना । पंगत्य । भकुवा–वि० [ देश० ] भकुत्रा । मूढ़ । हतबुद्धि । भक्तदाता-वि० [म० भादात] भरण पोषण करनेवाला । पालक । भकुवाना-क्रि० प० [हिं० भकुचा+ना ] दे० 'भकुमाना। भक्तदायक (को०] । उ०-कासी में जो प्रान तियागे सो पत्थर मे प्राई । कहैं भक्तदायक-वि० [सं०] १. पालन पोषण करनेवाला । संभाल कबीर सुनो भाई साधो भरमे जन भकुवाई।-कबीर० श०, रखनेवाला । २. समर्थन और छहयोग देनेवाला । भा० ३, पृ० ५४। भक्तदायी-वि० [सं० भक्तदायिन् ] दे० 'भक्तदायक' । भकूट-संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की राशियों का समूह जो भक्तदास-सज्ञा पुं० [सं०] वह दास जो केवल भोजन लेकर ही विवाह की गणना में शुभ माना जाता है । (फलित ज्यो०)। काम करता हो। भकोसना-क्रि० स० [स० भक्षण ] १, किसी चीज को विना अच्छी विशेष-सात प्रकार के दासों में से यह मनु के अनुसार टूमरे तरह कुचले हुए जल्दी जल्दी खाना । निगलना । ठूसना । २. प्रकार का दास है। खाना (व्यंग्य)। भक्तप-संज्ञा पुं० [सं०] मंदाग्नि । भोजन में परुचि । उ०- भक्किका-संज्ञा स्त्री॰ [सं०] झिल्ली । झींगुर । अन्न का स्मरण, श्रवण, दर्शन और वास आदि इनसे जिसको भक्कुड़-संशा पुं० [सं० भक्कुड ] एक प्रकार की मछली। पास होय उसको भक्तप कहते हैं।-माधव०, पृ० १.२ । भाकुर को०)। भक्तपन-संज्ञा पुं॰ [ स० भक्त+हिं० पन (प्रत्य०) ] भक्ति । भक्का-वि० [सं० भेक ] भकुआ। वोदा । मूर्ख । उ०-दूल्हा भक्कू थोडे पा। नई., पृ. १४० । भक्तपुलाक-संज्ञा पुं० [सं०] माह । पीच । भक्खना-क्रि० स० [सं० भाषण ] भाखना | कहना | उ०- भक्तबच्छल-वि० [सं० भक्तवत्सल ] दे० भक्तवत्सल' । राव हमीर नजरि सव रक्खिय । बचन सेख को यहि विधि भक्तवछल-वि० [सं० भक्त+हिंचछल ] दे० भक्तवत्सल' । भक्खिय । ह० रासो, पृ० ५२ । उ.-राम गरीव नेवाज गरीबन सदा निवाजा। भक्तवछल भक्त-वि० [स०] १. बांटा हुमा । भागो में बांटा हुमा । २. भगवान करत भक्तन के काजा ।-पलटू० बानी, पृ० १५। वांटकर दिया हुमा। प्रदत्त । ३. पलग किया हुआ । ४. भक्तवस्यता@-संशा सी० [सं० भक्त+वस्यता ] भक्त के वश में पक्षपाती। ५. मनुयायी। ६. सेवा करनेवाला । भजन होने का भाव । उ०-भक्तवस्यता निगम जु गाई । सो करनेवाला । भक्ति करनेवाला। श्रीकृष्ण प्रगट दिखराई।-नंद० प्र०, पृ० २५० । भक्त-संज्ञा पुं० १. पका हुमा चावल | भात । २. धन । ३.पन्न । भक्तमंड-प्रज्ञा पु० [ स० भक्तमण्ड ] चावल का माद । ४. भाग। हिस्सा । ५. वेतन । ६. सेवा पूजा करनेवाला भक्तमंडक-संज्ञा पु० [ स० भक्तमण्टक ] माड । दे० 'भक्तमंड। पुरुष । उपासक। भक्तमाल-जज्ञा पुं० [सं० भक्त+माल ] वह ग्रंथ जिसमें हरिभक्तों विशेष-भगवद्गीता के अनुसार मातं, जिज्ञासु, अर्थार्थी पौर का वर्णन हो। इस नाम का एक ग्रंथ जिसमे भक्तो का