पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/३६४

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भक्ष. भक्तिराज चरित वर्णन है । इसके रचनाकार नाभादास जी हैं। उ० भक्तिच्छेद-पंचा पुं० [सं०] वह चित्रकारी जो रेखामों द्वारा की 'भक्तमाल' में भी इनका वर्णन मिलता है। प्रकवरी०, जाय । २. भक्तों के विशेष चिह्न। जैसे, तिलक, मुद्रा प्रादि । पृ० ३६। भक्तिन-संज्ञा स्त्री स० भक्त+हिं० इन (प्रत्य॰)] उ०-भक्तन भक्तराज-पज्ञा पु० [सं०] १. हरिभक्तो में श्रेष्ठ व्यक्ति । २. भक्तों के भक्तिन होय बैठी ब्रह्मा के ब्रह्मानी । कहैं कबीर सुनो भाइ के प्राश्रयदाता। भगवान । उ०-दीन जानि मंदिर पगु साधो यह सब अकथ कहानी। -कबीर० श., भा० १, धारो। भक्तराज तुम बेगि पधारो-कबीर० सां०, पृ० १५ पु.४८७ भक्तिनम्र-वि० [सं०] भक्तिपूर्वक झुका हुमा [को०] । भक्तरुचि-संज्ञा स्त्री० [सं० ] भोजन की इच्छा । बुभुक्षा [को०] । भक्तिपूर्व, भक्तिपूर्वक-क्रि० वि० [स०] भक्ति के साथ । भक्ति- भक्तवत्सल'–वि० [स० ] [सज्ञा भक्तवत्सलता] जो भक्तों पर कृपा सहित । करता हो । भक्तों पर स्नेह रखनेवाला । भक्तिप्रवण-वि० [स०] भक्ति में तन्मय या लीन । भक्तवत्सन-संज्ञा पुं० विष्णु । भक्तिभाजन-वि० [स०] भक्ति का पात्र । श्रद्धेय । जिसके प्रति भक्तशरण-पज्ञा पुं० [सं०] वह स्थान जहाँ भात पकाकर रखा भक्ति की जाय । श्रद्धा के योग्य [को०] । जाता है। रसोईघर। भक्तिमान-वि० [ स० मक्तिमत् ] [ स्त्री० भक्तिमतो] भक्ति से भक्तशाला-संज्ञा स्त्री० [ पुं०] १. पाकशाला। २. वह स्थान जहाँ युक्त । भक्तिवाला। भक्त लोग बैठकर धर्मोपदेश सुनते हो । भक्तिमार्ग-पंज्ञा पुं० [सं०] मोक्ष की प्राप्ति का एक मार्ग । भक्ति भक्तसाधन-सा पु० [ सं०] पात्र जिसमें दाल रखी हो । दाल का पथ। का घर्तन । भक्तियाग-पक्षा पुं० [सं०] १. उपास्य देव में अत्यत अनुरक्त भक्तसिक्थ-संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'भक्तमंड' । रहना । सदा भगवान् में श्रद्धापूर्वक मन लगाकर उनकी भक्ता-वि० [सं० भक्त ] पूजक । आराधक । उपासना करना । २. भक्ति का साधन । भक्ताई@t-संज्ञा स्त्री० [हिं० भक्त+श्राई (प्रत्य॰)] भक्ति । भक्तियोग-पंज्ञा पुं० [ स०] दे० 'भक्तियाग' । भक्ति-सज्ञा स्त्री० [सं०] १. अनेक भागों में विभक्त करना । भक्तिरस-प्रज्ञा पु० [सं०] उपास्य के प्रति उत्कृष्ठ मनुराग । रति । बीटना। २. भाग । विभाग । ३.अंग । अवयव । ४. खंड | विशेष-स्कृत के परवर्ती विद्वानों ने भक्ति को रस के रूप में ५. वह विभाग जो रेखा द्वारा किया गया हो । ६. विभाग मान्यता दी है। करनेवाली रेखा । ७. सेवा सुश्रूषा । ८. पूजा । अर्चन । ६. भक्तिराग-सन्ना पुं० [सं०] १. भक्ति का पूर्वानुराग । २. पूर्ण श्रद्धा । १०. विश्वास । ११. रचना। १२. अनुराग । स्नेह । ' रूपेण भक्ति में तल्लीन होना । १३. शांटिल्य के भक्तिसूत्र के अनुसार ईश्वर में अत्यंत भक्तिल'–वि० [सं०] भक्तिदायक । अनुराग का होना। भक्तिल-पञ्चा पु० उत्तम घोड़ा । विश्वासी अश्व । विशेष—यह गुणभेद से सात्विको, राजसी पोर तामसी तीन भक्तिवाद-ज्ञा पुं० [सं०] १. भक्ति विषयक वार्ता या कथा । प्रकार की मानी गई है। भक्तों के अनुसार भक्ति नौ प्रकार २. भक्ति को रस, रूप और ईश्वरप्राप्ति का सर्वोत्कृष्ट साधन की होती है जिसे नवधा भक्ति कहते हैं । वे नौ प्रकार ये है- माननेवाला मतवाद । श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वदन, दास्य, सख्य भक्तिसूत्र-संज्ञा पुं० [सं०] वैष्णव संप्रदाय का एक सूत्र ग्रंथ । पौर प्रात्मनिवेदन । विशेष—यह अथ शांडिल्य मुनि के नाम से प्रख्यात है। इसमें १४. जैन मतानुसार वह ज्ञान जिसमें निरतिशय आनंद हो और भक्ति का वर्णन है। जो सर्वप्रिय, अनन्य, प्रयोजनविशिष्ट तथा वितृष्णा का उदय- भक्तोद्देशक-सञ्ज्ञा पुं॰ [ स० ] बौदों के प्राचीन संघाराम का एक कारक हो । १५. गौण वृत्ति । १६. भंगी। १७. उपचार । कर्मचारी जो इस बात की जांच करता था कि माज कौन १८. एक वृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में तगण, क्या भोजन करेगा। यगण और अंत मे गुरु होता है। भक्तोपसाधक-संज्ञा पुं० [सं०] १. रसोइया । २. परिवेशक । भक्तिकर-वि० [सं०] १. भक्ति के योग्य । २. जिसे देखकर भक्ति भक्त्यानंद-प्रज्ञा पुं० [सं० भक्ति+भानन्द ] भक्ति का पानंद । उत्पन्न हो । भक्त्युत्पादक । उ०-अब विधि भक्त्यानंद जु पग्यो । व्रज को भाग सराहन भक्तिगम्य-वि० [स] जो भक्ति के द्वारा प्राप्त किया जा सके। लग्यौ। नंद० प्र०, पृ० २७२ । भक्ति के द्वारा प्राप्य । भक्ष-संज्ञा पुं॰ [सं०] १. खाने का पदार्थ । भक्ष्य । खाना । भोजन । भक्तिगंधि-वि० [सं० भक्ति+गन्धि ] साधारण भक्तिवाला । २. खाने का काम । भक्षण । उ.-राबरी कटुक बेर जि भक्तिचित्र-संज्ञा पुं० [सं०] रेखांकन । रेखाचित्र (को०] । मीठे भाषि गोद भरि लाई । जूठे की कछु शंक व मानी भक्ष