पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/३७०

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भजन ३६०४ भटकना भजन-संञ्चा पु० [सं०] १. भाग। खड। विभाजन | २. सेवा । भजाना—क्रि० स० [सं० /भ+हिं० श्रन, हिं० भजना का पूजा । ३. स्वत्व । अधिकार (को०)। ३. बार वार किसी पूज्य सक० रूप] भगाना। दूर कर देना । उ०—(क) पिय या देवता आदि का नाम लेना। स्मरण । जय । ४. वह जियहिं रिझावै दुखनि भजावे, विविध वजावै गुण गीता । गीत जिसमे ईश्वर अथवा किसी देवता आदि के गुणो का -केशव (शब्द०)। (ख) सर वरसत रव करै जलद मद कीर्तन हो। उ०-भजन सुनै भजनीन सों निर्मित निज बहु दूरि भजावै ।-गोपाल (शब्द०)। संत । -रघुराज (शब्द०)। भजिवव्य-वि० [सं०] दे० 'भजनीय'। भजना'-क्रि० स० [स० भजन ] १. सेवा करना । २. प्राश्रय भजियाउरा-संज्ञा ली० [हिं० भाजी+चावर (= चावल)] चावल, लेना । आश्रित होना । उ०—(क) विधिवश हठि अविवेकहिं दही, घी ग्रादि एक साथ पकाकर बनाया हुमा भोजन जिसमें भजई । —तुलसी (शब्द॰) । (ख) तजो हठ प्रानि भजो किन नमक भी पड़ता है। इसे 'उझिया' और 'भिजियाउर' भी मोहिं ।—केशव (शब्द॰) । ३. देवता आदि का नाम रटना । कहते हैं। उ०-भाइ जाउर भजियाउर सोझी सव ज्यौनार । स्मरण करना । जपना। ४. अधिकार करना । जीतना । -जायसी (शब्द०)। उ०—कहै वत्त मोरं सुनोराति नामं । भज्यो इक्क अब्बू भजी-संज्ञा स्त्री० [हिं०] खोपडी के भीतर की गुद्दी । भेजी। लग्यो सीस तामं ।-० रा०, १२।१२७ । उ.-लगै युज सीसं भजी भति छुड़ें। मनो मंपनं दद्धि भजना२-क्रि० प्र० [ स० ब्रजन, पा० बजन ] १. भागना । मंथान उड्ड। -पृ० रा०, १३।६० । भाग जाना। उ०-भजन कह्यौ तातें भज्यो भज्यो न एको भज्जना-क्रि० प्र० [मं० भग्न, प्रा० भग्ग, भज्ज] दे॰ 'भजना। वार । दूरि भजन जाते कही सो ते भज्यो गंवार ।-बिहारी उ०-किते जीव समुह देखत भज्जै । -ह० रासो, पृ० ३६ । (शब्द०)। (ख) दीज दरस दयाल दया करि, गुन ऐगुन न विचारो। घरनी भजि प्रायो सरनागति, तजि लज्जा कुल भज्य–वि० [सं०] १. विभाग करने के योग्य । २. सेवा करने के योग्य । ३. भजने के योग्य । गारो।-सतवाणी०, पृ० १२८ । २. पहुँचना । प्राप्त होना। उ०—चित्रकूट तब राम जू तज्यो। जाय यज्ञथल अत्रि को भटत-संज्ञा पुं० [सं० भणिति ] काव्यपाठ । रचनापाठ । उ०- भज्यो ।-केशव (शब्द॰) । भाँटन जोरि भटंत सुनावा । गुनियन उहैं गीति पुनि गावा । -चिमा०, पृ० १८१। भजनानंद-संज्ञा पु० [स० भजनानन्द ] वह पानद जो परमेश्वर का नाम स्मरण करने से प्राप्त होता है। भजन से मिलनेवाजा भट-संञ्चा पु० [सं०] १. युद्ध करने या लड़नेवाला । योद्धा। प्रानद। २. सिपाही । सैनिक । ३. प्राचीन काल जी एक वर्णसंकर भजनानंदी-संशा पुं० [सं० भजनानन्द+ई (प्रत्य॰)] वह जो जाति । ४. रजनीचर (को०)। ५. नौकर । दास (को॰) । दिन रात भजन करने मे ही मगन रहता हो। भजन गाकर भट-संज्ञा पु० दे० 'भटनास'। सदा प्रसन्न रहनेवाला । भटकटाई-मंज्ञा श्री० [स० कएट झारि ] ३० 'भटकटैया'। भजनो-संज्ञा पुं० [हिं० भजन+ई (प्रत्य॰)] भजन गानेवाला । भटकटैया–सञ्चा स्त्री० [स० कण्टकारि, हिं० कटेरी या कटाई ] एक उ०-करन लगै जप जेहि समय तब भरि गोद अनत । छोटा और काँटेदार क्षुप जो बहुधा औषध के काम में भजन सुनै भजनीन सों निर्मित निज बहु संत ।-रघुराज पाता है। (शब्द०)। विशेष-इसके पत्तों पर भी कॉटे होते हैं । इसके फूल बैगनी होते भजनोक-संज्ञा पु० [हिं० भजन+इक (प्रत्य॰)] भजन करनेवाला हैं और फूल का जीरा पीला होता है । कहीं कही सफेद फूल की या भजन गानेवाला। भी भटकटैया मिलती है। इसमें एक प्रकार के छोटे फल भी भजनीय–वि० [सं०] १. सेवा करने योग्य । २. आश्रय लेने योग्य । लगते हैं जो पहले कच्चे रहते है, पर पकने पर पीले हो जाते हैं। ३. भजने के योग्य । उ.-उनको तो सब साधन छोड़कर वैद्यक में इसे सारक, कड़वी, चरपरी, रूखी, हलकी, एक श्रीकृष्ण ही भजनीय हैं। -भारतेंदु ग्र०, भा० ३, अग्निदीपक तथा खाँसी, ज्वर, कफ, वात, पीनस तथा हृदय पृ० ७७७। रोग का नाश करनेवाली माना है। भजनोपदेशक-संज्ञा पु० [स० भजन + उपदेशक ] भजन गाकर पर्या-कटकारी । कुली । क्षुद्रा । कासनी। कंटतारिफा । उपदेश करनेवाला । वह जो भजन गाकर उपदेश करता है। स्पृही। धावनिका। व्याघ्री। दुःस्पर्शा। दुष्प्रधर्पिणी । भजमान-वि० [स०] १. विभाग करनेवाला । २. सेवा करने- फंटश्रेणो । चित्रफला | वहुकंटा । प्रयोदिनी । वाला। ३. न्याय्य | उचित । धावनी। सिंही। भजाना-क्रि० अ० [सं० /भञ्ज + हिं० अन०, हिं० -क्रि० स० [ देश ] १. व्यर्थ इधर उधर घूमते (= दौड़ना)] दौड़ना। भागना । उ०-भोन को एना । उ०-सरे वैठि रहु जाय घर फत भटकत बेकाज । पलि, छूटे लट केश के ।-भूषण (शब्द०)। टोना को अरे होना नहीं इलाज ।-रसनिधि भंटाकी। व