पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/३९४

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भांडायन ३६३३ भाँजा भांडायन-संज्ञा पुं० [सं० भण्डायन ] एक प्राचीन ऋषि का नाम । है । नेपाल की तराई में कही कही यह धापसे पाप और भांडार-संज्ञा पुं० [सं० भाण्डार ] १. वह स्थान जहाँ काम में जगली भी होता है। पर जंगली पौधे की पत्तियाँ विशेष आनेवाली बहुत सी चीजें रखी जाती हों। गोदाम | भंडार । मादक नही होती; और इसीलिये उस पौधे का कोई उपयोग २. वह जिसमें एक ही तरह की बहुत सी चीजें या बातें हों। भो नहीं होता । पौधा प्राय: तीन हाथ ऊँचा होता है और ३. वह कोठरी जिसमें अनाज प्रादि रखा जाता हो। ४. पत्तियां किनारों पर कटावदार होती हैं । इस पौधे के स्त्री, खजाना । कोश। पुरुष और उभयलिंग तीन भेद हैं । स्त्री पौधों की पत्तियां ही भांडारिक-संज्ञा पुं० [सं० भाण्डारिक] भंडार का प्रधान । भंडारी । बहुधा पीसकर पीने के काम में आती हैं। पर कभी कभी - पुरुष पौधे की पत्तियाँ भी इस काम में प्राती हैं। इसकी भांडारी-संज्ञा पुं० [सं० भाण्डारिन् ] भंडारी । भांडारिक (को०] । पत्तियाँ उपयुक्त समय पर उतार ली जाती हैं। क्योंकि यदि भाडि-सज्ञा स्त्री० [सं०] नाऊ की पेटी । किसबत [को०] ]; यह पत्तियां उतारी न जायं प्रौर पौधे पर ही रहकर सूख- यौ०-भांडिवाह = हज्जाम । नाई । भांडिशाला। कर पीली पड जायं, तो फिर उनकी मादकता और साथ भांडिक-संज्ञा पुं० [सं० भाण्डिक ] १. तुरही प्रादि बजाकर साथ उपयोगिता भी जाती रहती है। भारत के प्रायः सभी राजानों को जगानेवाला मनुष्य । २. नापित (को॰) । स्थानों में लोग इसकी पत्तियों को पीस और छानकर नशे के लिये पीते है। प्रायः इसके साथ बादाम आदि कई मसाले भांडिका-संज्ञा स्त्री० [सं० भाण्डिमा ] भौजार । एक पौधा । भो मिला दिए जाते हैं। वैद्यक में इसे कफनाशक, ग्राहक, भांडिनी-संज्ञा स्त्री० [सं० भाण्डिनी ] टोकरी या पेटी मादि [को०] । पाचक, तीक्ष्ण, गरम, पित्तजनक, बलवर्धक, मेधाजनक, भांडिल-संज्ञा स्त्री० [सं० भाण्डिल ] नापित । हज्जाम । रसायन, रुचिकारक, मलावरोधक और निद्राजनक माना भांडिशाला-श स्त्री० [सं० भाण्डिशाला ] नाई की दुकान या वह गया है। स्थान जहाँ वैठकर हजामत बनाई या बनवाई जाय । मुहा०- भाँग छानना= भांग की पत्तियों को पीस और छानकर नशे के.. लिये पीना । भाँग खा जाना या पी जाना= नशे भांडीर-संज्ञा पुं० [सं० भाण्डीर ] १. वट वृक्ष । बड़ का पेड़ । २. की सी बातें करना । नासमझी की या पागलपन की बातें एक प्रकार का क्षुप। करना । घर में भूजो भांग न होना अत्यंत दरिद्र होना। यौ०-भांडीरवन वृदावन का एक हिस्सा। पास में कुछ न होना । उ०-जुरि पाए फाकेमस्त होली भांत-वि० [सं० भान्त (सविभक्तिक अङ्गरूप)] १. दीप्त | ज्योतित । होय रही। घर में भूजी भांग नहीं है, तो भी न हिम्मत प्रकाशयुक्त । २. वज्रसदंश । वचतुल्य [को०] । पस्त । होली होय रही।-भारतेंदु (शब्द॰) । भांद-संज्ञा पुं० [सं० भान्द ] एक उपपुराण का नाम । भाँग-संज्ञा पुं० [ ? ] वैश्यों की जाति । भाई पुं० [हिं०, भाना (=घुमाना) ] खरादनेवाला। भाँगना-क्रि० स० [सं० भजन ] तोड़ना। भंग कर देना। खरादी । कूनी। । उ०-अंतर थो बहु जन्म को, सत्गुर भाग्यो प्राय ।- भौउँ-संज्ञा पुं० [सं० भाव ] अभिप्राय । उ०-जहाँ ठाव होवे दरिया० बानी०, पृ० १। कर हंसा सो कह केहि भाउ । -जायसी (शब्द०)। भांगरी-संञ्चा : स्त्री० [ देश] किसी धातु. प्रादि की गर्द या छोटे भाँउर-सज्ञा श्री [ देश०] दे० 'भावर'। छोटे कण । भाँज-संञ्चा स्त्री० [हिं० भाँजना] १. किसी पदार्थ को मोड़ने या भाँउरिक-संज्ञा स्त्री० [ देश० ] दे० 'भावर'। तह करने का भाव अथवा क्रिया। २. भाजने या घुमाने की भाँकडो-संज्ञा पुं० [ देश० ] एक जगली झाड जिसे हसद सिंघाड़ा क्रिया या भाव । ३. वह धन जो रुपया, नोट आदि भुनाने भो कहते हैं । यह गोखरू से मिलता जुलता है । के बदले में दिया जाय। भुनाई। ४. ताने का सूत । भाँखना-त्रि० अ० [हिं० भाखना ] दे॰ 'भाखना' । उ०-वार (जुलाहा)। बार यो भाखही, कोउ जलदी करो उपाई ।-नंद० प्र०, भाजना--क्रि० स० [सं० भञ्जन] १. तह करना। मोड़ना । जैसे पृ० १६६। फर्मा भांजना। २. गदा, बोड़ो, मुगदर प्रादि घुमाना भाँग-संज्ञा बी० [सं० भृङ्गा या भृङ्गी ] गांजे की जाति का एक (व्यायाम)। ३. दो या कई लड़ों को एक में मिलाकर प्रसिद्ध पौधा जिसकी पत्तियां मादक होती हैं और जिन्हें बटना। ४. तोड़ना। भंजन करना। उ०—प्रतृपत सुत पीसकर लोग नशे के लिये पीते हैं। भंग । विजया । बूटी। जु छुभित तव भयो। भाजन भौजि भवन दुरि गयो । पत्तो। उ०-अति गह सुमर खोदाए खाए ले भाग के -नंद० प्र०, पृ० २४६ । ५. दूर करना। निरसन । गुंडा ।-कीर्ति०, पृ० ४० । उ.-मापा 'भाजिबा सतगुर बोजिवा जोग पंथ न करिवा विशेप-यह पौधा भारत के प्रायः सभी स्थानों में 71-गोरख०, पू० ६७। विशेषतः उत्तर भारत में इन्हीं पत्तियों के लिये बोया चा पुं० [हिं० भानजा ] दे० 'भानजा' । ७-४६ 1