पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/४०

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फलंग ३२७६ , दसानन को, हंका दै सुर्वका वीर, डंका दै विजय को कपि कूद परयो लंका में।-पद्माकर (शब्द॰) । कलंग-संज्ञा पुं० [सं० प्लवङ्ग ] छलांग । फलांग। उ०—(क) बाग लेत अति लेत फलंगनि, जिमि हनुमत किय समुद उलं- घनि ।-हिम्मत०, पृ०७। (ख) सटा नमावै बाय में फलंग अटा गरकाब ।-बांकी००, भाग १, पृ० २६ । कल-संज्ञा पुं० [ सं०] १. वनस्पति में होनेवाला वह बीज अथवा पोषक द्रव्य या गूदे से परिपूर्ण बीजकोश जो किसी विशिष्ट ऋतु में फूलों के पाने के बाद उत्पन्न होता है। विशेष-वैज्ञानिक दृष्टि से बोज (दाने, अनाज आदि) और बीजकोश (साधारण बोलचालवाले अर्थ में फल) में कोई अंतर नही माना जाता, परंतु व्यवहार में यह अंतर बहुत ही प्रत्यक्ष है । यद्यपि गेहूँ, चना, जो, मटर, प्राम, कटहल, अंगूर, अनार, सेव, वादाम, किशमिश प्रादि सभी वैज्ञानिक दृष्टि से फल हैं, पर व्यवहार में लोग गेहूँ, चने, जौ, मटर प्रादि की गिनती वीज या अनाज में और प्राम, कटहल, अनार, सेव पादि की गिनती फलों में करते हैं। फल प्रायः मनुष्यों प्रौर पशुपक्षियों आदि के खाने के काम में आते हैं। इनके अनेक भेद भी होते हैं। कुछ में केवल एक ही वीज या गुठली रहती है, कुछ में अनेक । इसी प्रकार कुछ के ऊपर बहुत ही मुलायम और हलका प्रावरण या छिलका रहता है. कुछ के ऊपर बहुत कड़ा या काँटेदार रहता है। २. लाभ । उ०-फल कारण सेवा करे निशदिन जाँचे राम । कहै कबीर सेवक नही चहै चौगुनो दाम |--कवीर (शब्द०)। ३. प्रयत्न वा क्रिया का परिणाम। नतीजा। उ०-(क) सुनहु सभासद सफल सुनिंदा । कही सुनी जिन संकर निंदा। सो फल तुरत लहव सव काहू । भली भांति पछिताव पिताहू।- तुलसी (शब्द०) (ख) तव हरि कह्यो कोक जनि डरियो प्रबहिं तुरत मैं जैहो। बालक ध्रुव वन करत गहन तप ताहि तुरत फल दैहीं।-सूर (शब्द०)। ४. धर्म या परलोक की दृष्टि से कर्म का परिणाम जो सुख भीर दुख है। कर्मभोग । उ०-(क) फोउ कह जो भल महइ बिधाता । सब कह सुनिय उचित फलदाता । -तुलसी (शब्द०)। (ख) सो फल मोहि विधाता दीन्हा । जो कछु उचित रहा सो कीन्हा । -तुलसी (शब्द०)। ५. गुण । प्रभाव । उ०—(क) नाम प्रभाव जानु सिव नीके । कालकूट फल दीन्ह अमी के।-तुलसी (शब्द०)। (ख) मज्जन फल पेखिय ततकाला । काफ होंहि पिक बकउ मराला |-तुलसी (शब्द०)। ६. शुभ कर्मों के परिणाम जो संख्या में चार माने जाते हैं और जिसके नाम धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष है। उ०-(क) सेवत तोहि सुलभ फल चारी बरदायिनि त्रिपुरारि पियारी।-तुलसी (शब्द०)। (ख) पानंद मह मानंद अवध आनंद बधावन होइ । उपमा कहाँ चारि फल की, मोको भलो न कहेगो फवि कोइ ।-तुलसी (शब्द०)। (ग) होइ अटल जगदीश भजन में सेवा तासु चारि फल पावै । कहूँ और रहिं कमल चरण विनु भृगी ज्यों दसहूँ दिसि घावै ।-सूर (शब्द०)। ७. प्रतिफल । वदला। प्रतिकार । उ०-एक बार जो मन देइ सेवा । सेवहि फल प्रसन्न होइ देवा । —जायसी (शब्द०)। ८. वाण, भाले, छुरी, कटारी, तलवार आदि का वह तेज अगला भाग जो लोहे का बना होता है मौर जिससे आघात किया जाता है । जैसे, तीर की गाँसी, भाले की धनी, इत्यादि, सब फल कहलाती है । ६. हल की फाल । १०. फलक । ११. ढाल । १२. उद्देश्य की सिद्धि । उ०-मति रामहिं सों गति रामहिं सो रति राम सों रामहिं को बलु है। सबकी न कहै तुलसी के मते इतनो जगजीवन को फलु है ।-तुलसी (शब्द॰) । १३. पासे पर की बिंदी या चिह्न। १४. न्याय शास्स के अनुसार वह अर्थ जो प्रवृत्ति और दोष से उत्पन्न होता है। इसे भी गौतम जी ने अपने प्रमेय के अंतर्गत लिया है । १५. गणित की किसी क्रिया का परिणाम । जैसे योगफल, गुणन- फल इत्यादि । १६. राशिक की तीसरी राशि वा निष्पत्ति में प्रथम निष्पत्ति का द्वितीय पद । १७. क्षेत्रफल १८. फलित ज्योतिष में ग्रहों के योग का परिणाम जो सुख दुःख आदि के रूप में होता है। १६. मूल का ब्याज वा वृद्धि । सूद । २०. मुनाफा। लाभ (को०)। २१. हानि। नुकसान (को०) । २२. प्रार्तव । रज (को०) २४. त्रिफला (को०) । २५. प्रयोजन । २६. जायफल । २७. कंकोल । २८. कोरेया का पेड़। फलकंटक-संज्ञा पुं० [सं० फलकपटक ] १. कटहल । २. खेत पापड़ा। फलकंटकी- संज्ञा स्त्री० [सं० फलकण्टको ] इंदीवरा । फलक-संज्ञा पुं० [सं०] १. पटल । तखता। पट्टी । २. चादर । ३. वरक । तबक । ४. पत्र । वरक । पृष्ठ । ५. हथेली। ६. फल । परिणाम । ७. मेज । चौकी। ८. खाट की बुनन जिसपर लोग लेटते हैं। ६. नितंब (को०)। १०. लाभ (को०) ११. प्रार्तव (को०)। १२. कमल का बीजकोश (को०) । १३. मस्तक की अस्थि (को०)। १४. ढाल (को०)। १५. घोबी का पाटा या पाट (को०) । १६. बाण की गांसी (को०)। १७. वृहत्संहिता के अनुसार पाँच लड़ी के हार का नाम । फलकर-संज्ञा पुं० [अ० फलक ] १. आकाश । जैसे,-याजकल उनका दिमाग फलक पर है। २. स्वर्ग । उ०-बहुदिन सुफल कियो महि कारज । फलक जाहु तुम यदुकुल प्रारज । -गिरधरदास (शब्द०)। यौ०-फलकजदा = अत्यंत पीड़ित । फटेहाल । निर्धन । फलक- परवाज = आकाश तक पहुँचनेवाला । फलकमतंबा, फलक- रुतवा= उच्चपदस्थ । फलकसैर = (१) वायु जैसे वेगवाला (घोड़ा)। (२) भंग । भांग । फलके पीर = बूढा । मुहा०-फलक टूटना प्रासमान हटना । फलक पर चढ़ना = प्रासमान पर चढ़ना। फलक पर चढ़ाना= आसमान पर या बहुत ऊंचे चढ़ाना। फलक याद आना = फालचक्र याद माना । उलटफेर याद माना। फलकक्ष-संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत के अनुसार एक यक्ष का नाम ।