पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/४०५

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30 भामिनी ३५४४ भारत भामिनी-संज्ञा सी० [सं०] १. मोघ करनेवाली स्त्री। २. स्त्री। त्रिदोष में होता है। वैद्यक मे इसके मूल का गुण गरम, औरत । उ०-सर्वरई सो गुराई मिले छवि फवति सुनि रुचिकर, दीपन लिखा है और स्वाद कड़वा और फसेला, समुझि भामिनी प्रीतिपन पागो।- धनानंद, पृ० ४०० । चरपरा और रूखा बतलाया है जिसका प्रयोग ज्वर, श्वास, खांसी और गुल्मादि मे होता है । भामी-वि० [स० भामिन् ] १. क्रुद्ध । नाराज । २. सुंदर (को॰) । ३. दीप्त । प्रदीप्त (को०)। पर्या-श्रसबरग। ब्राह्मणी । पद्मा। मुंगजा । अंगारवल्लरी। भाभी-नश सी० [सं०] तेज स्त्री। ब्राह्मयष्टी । कंजी । दूर्वा । भाय-सज्ञा पु० [हिं० भाई ] भाई । उ0-सेमर केरा तूमरा भारंड-सञ्ज्ञा पु० [ स० भारयड ] एक पक्षी (को०] । सिहुले बैठा छाय । चोच चहोरे सिर धुनै यह वाही को भार'-सज्ञा पुं० [स०] १. एक परिमाण जो वीस पसेरी का होता भाय ।-कबीर (शब्द०)। है । २. विष्णु । ३. बोझ । भाय'- संज्ञा पुं॰ [ सं० भाव ] १. अंतःकरण को वृत्त । भाव । क्रि० प्र०-उठाना ।-ढोना ।—रखना |-लादना। -(क) माय कुभाय धनख भालस हूँ। नाम जपत मंगल ४. वह बोझ जिसे बहंगी के दोनों पल्लों पर रखकर कधे पर दिसि दसह । -तुलसी (शब्द०)। (ब) गोविंद प्रोनि सबन उठाकर ले जाते हैं । उ०-मीन पीन पाठीन पुराना । भरि की मानत । जेहि जेहि भाय करी जिन सेवा अंतरगत की भरि भार कहारन पाना ।—तुलसी (शब्द०)। जानत । —सूर (शब्द०)। (१) चितवनि भोरे भाय की गोरे क्रि० प्र०-उठाना ।-कांधना।-ढोना ।-भरना । मुंह मुसकानि । लगनि लटकि प्राली गरै चित खटकति नित पानि ।-बिहारी (शब्द०)। २. परिमाण। उ०-भक्ति ५. संभाल । रक्षा। उ०—पर घर गोपन ते कहेउ कर भार द्वार है सांकरा राई दसवें भाय । मन तो मयगल है रह्यो जुरावहु । सुर नृपति के द्वार पर उठि प्रात चलावहु ।-सुर कैसे होय सहाय ।-कबीर (शब्द०)। ३. दर | भाव। (शब्द०)। ६. किसी कर्तव्य के पालन का उत्तरदायित्व । उ.-भले बुरे जहँ एक से तहाँ न बसिए जाय । क्यों अन्याय- जिम्मेदारी । पुर में विके खर गुर एक भाय । -लल्लू (शब्द०)। ४. मुहा०-किसी का भार उठाना = किसी का उत्तरदायित्व अपने भांति । ढग । -उ०-(क) लखि पिय विनती रिस भरी ऊपर लेना। भार उतारना=(१) कर्तव्य पूरा करना। चितवै चंचल गाय । तब खंबन से हगन में लाली प्रति छवि (२) ज्यो त्यों किसी काम को पूरा करना । बला टालना । छाय । - मतिराम (शब्द०) । (ख) सोहत अंग सुभाय वेगार टालना । भर देना व डालना=बोझ रखना। वोझ भूषण, भौर के भाय लसै लट छूटी। नाथ (शब्द॰) । डालना। उ०-मंजुल मंजरी पै हो मलिंद विचारि के भार (ग) ससि लखि जात विदित कहो जाय कमल कुह्मिलाय । सम्हारि के दीजिए ।-प्रताप (शब्द०)। यह ससि कुम्हिलानो यहो कमलहि लखि केहि भाय । - शृंगार स० (शब्द०)। ७. ढोल या नगाड़ा बजाने की एक पद्धति (को०)। ८. वहँगी जिसपर बोझ उठाते है (को०)। ६. कठिन काम (को०) । १०. भायप-संश पु० [हिं० भाई+प = पन (प्रत्य॰) ] भाईपन | माश्रय । सहारा । बल । उ०-दोहूँ खंभ टेक सब मही । भ्रातृभाव । भाईचारा । उ०-भायप भगति भरत आचरनू । दुहुँ के भार सृष्टि सभ रही-जायसी (शब्द॰) । कहत सुनत दुख दूपन हरनू । - तुलसी (शब्द०) । भार-सञ्ज्ञा स० [हिं० भाड़ ] दे० 'भाड़' । भाया-वि० [हिं० भाना ( = रुचना)] जो अच्छा जान पड़े । प्रिय । भारक-ज्ञा पु० [सं०] १. भार नाम की तौल । २. भार । प्यारा । उ०-(क) शुक्र ताहि पढ़ि मंत्र जियायो । भयो तासु बोझ [को०] । तनया को भायो।-सुर (शब्द॰) । (ख) हमतो इतने ही सचु पायो । रजक धेनु गज केस मारि के कियो आपनो भायो। भारको-सचा स्त्री॰ [ स० ] दाई । धाई। महाराज होइ मातु पिता मिलि तऊ न बज विसरायो ।-सुर भारक्षम-वि० [सं०] बोझ या जिम्मेदारी वहन करने में (शब्द०)। (ग) हमरी महिमा देखन प्रायो। होउ सवै प्रव समर्थ [को०)। वाको भायौ :-नंद० ग्रं॰, पृ० २६५ । भारग-संज्ञा पु० [स] अश्वतर । वेसर । खच्चर [को॰] । भारंगी-संज्ञा स्त्री॰ [सं० भारङ्गी ] एक प्रकार का पौधा । बम्हनेटी। भारजाल-संज्ञा स्त्री॰ [ स० भार्या ] दे० भार्या' । उ०-जाने पर भृगजा । मसवरग। के गुन सबै महत पुरुष को संग । विद्या भपनी भारजा विशेष—यह पौधा मनुष्य के वरावर ऊंचा होता है। इसकी तिनमें मन को रंग ।-ग्रज ग्रं॰, पृ० ७७ । पत्तियां महुए की पत्तियो से मिवती गुदार और नरम भारजीवी-सञ्ज्ञा पुं॰ [स० भारजीविन् ] मोटिया । भारवाहक [को०] । होती हैं और लोग उनका साग बनाकर खाते हैं। इसका भारत-संज्ञा पु० [सं०] १. महाभारत का पूर्वरूप वा मूल , जो फूल सफेद होता है । इसकी जड़, डंठल, पत्ती और फल सब २४००० श्लोको फा था। वि० दे० 'महाभारत' । २. एक पौषध के काम आते हैं। इसके फूल को 'गुल असवर्ग' कहते भूभाग ( देश = वर्ष) का नाम । यह पुराणानुसार बंवु द्वीप हैं । इसकी पत्तियो का प्रयोग ज्वर, दाह, हिचकी और के नौ वर्षों के अतर्गत है । वि० दे० 'भारतवर्ष।