पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/४२८

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भीमस्वरराज भुई भीष्मस्वरराज-तचा पु० [सं०] एक बुद्ध का नाम । भुइहरा-सञ्ज्ञा पु० [हिं० भुइँ+ घर ] वह स्थान जो भूमि के नीचे भीष्माष्टमी-सशा बी० [स०] माघ शुक्ल अष्टमी, जिस दिन खोदकर बनाया गया हो। उ०-अस कहि बोठे भुइहरा भीष्म ने प्राण त्यागे थे। इस दिन भाष्म के नाम का तपण माही । कियो समाधि तीन दिन काही । -रघुराज (शब्द॰) । और दान यादि करने का विधान है। २. पृथ्वी के नीचे बना हुमा कमरा । तहखाना । भीसम-सज्ञा पु० [ स० भोष्म ] दे० 'भीष्म'। भुई।-सञ्ज्ञा स्त्री० [स० भूमि ] भूमि । पृथ्वी । भीसुर-वि० [स० भास्वर, प्रा० भासुर, भीसुर ] दे॰ 'भासुर' । भुकाना-क्रि० स० [स० बुक्क] किसी को भूकने अर्थात् बहुत बोलने उ.-चद बदण मृगलोचरणी भासुर ससदल भाल । नासिका मे प्रवृत्त या परेशान करना। दीपसिखा जिसी कल गरभ सुकमाल ।-ढोला, दू० ४७६ । भु गाल-सज्ञा पु० (अनु०] तुरुही वा भांपा जिसके द्वारा सैनिक नावों भुचना -क्रि० स० [स० भुज, भुज ] खाना। भाजन करना। पर अध्यक्ष अपनी आज्ञा की घोषणा करता है। (लश०)। उ०-नुगत लहु भडारा भुचो मुख ते नाद बजामो मुंजना-कि० अ० [हिं० भुनना ] १. भुनने का अकर्मक रूप । प्राण, पु० १२५ । भूना जाना । २. झुलसना । भुंजन [-सञ्ज्ञा पु० [हिं०] भोजन करना । भुजरिया -सज्ञा स्त्री० [दरा०] जरई । भुजरिया। भुंजना-क्रि० स० [हिं०] १. दे० 'भूजना' । २. खाना। भुजवा-सञ्ज्ञा पु० [हिं० (जना ] भड़भूजा । भक्षण करना। भुअगा-ज्ञा पु० [ स० भुजङ्ग] [स्त्री० भुअंगनि ] सांप । सर्प । भुजित-वि० [हिं० ] भुना हुआ । भूबा हुआ । उ०-भुजित धान उ०—(क) बिरह भुप्रगनि तन डसा मत्र न लाग कोय । जगत म जैसे। बीज के काम न आवहि तैसे |-नद० न०, बिरह वियोगी क्यो जिए जिए तो बौरा होय ।-कबीर पृ० १६६ (शब्द०)। (ख) कहा कृपण की माया कितनी करत फिरत भुटा-संज्ञा पु० [हिं०] दे० 'भुट्टा' । अपनी अपनी। खाइ न सके खरच नहिं जान ज्यो भुभग सिर भुड-सञ्ज्ञा पु० [ देश०] १. सुकर। वाराह । २. बाहु । भुजा। रहत मनी ।—सूर (शब्द॰) । उ०-रुडंत मुंड मुडि सुडं, हार रुड रपए। -पु० भुअंगम-सञ्ज्ञा पु० [ स० भुजङ्गम ] साँप । उ०-माई री मोहि रा०,२।२२२ । डस्यो भुपगम कारो।-सूर (शब्द०)। भुडली-सज्ञा स्त्री० [हिं० भूरा वा मुंडा ] एक कीड़ा जिसे पिल्ला भुअंगिनि-संश्चा नी० [ स० भुजङ्गिनी ] सौपिन । सपिणी । उ०- भो कहते हैं। इसके शरीर पर बाल होते हैं जो स्पर्श होने (क) सोइ बसु घातल सुधा तरगिनी। भय भजिनि भ्रम भेक की दशा में शरीर मे चुभ जाते हैं और खुजलाहट उत्पन्न भुअगिनि ।-तुलसी ( शन्द०)। (ख) स्याम भुभंगिनि करते हैं । कमला । सूडी। रामावली। नामा निकसि केवल पहँ चली। —जायसी न भुडा-वि० [सं० रुण्ड का अनु० ] [ जी० भुडी ] बिना सींग का । (गुप्त), पृ० १६६ । जिसके सीग न हो (पशु) । २. दुष्ठ । उद्दड । उच्छृखल । भुश्रल-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [स० भू धरती । पृथ्वी। उ०-चहान सूर निबंध । सोमेस सुध धुव जन भुअ अवतार लिय।-पृ० रा०, ६।२ । मुंडी-सञ्ज्ञा स्त्री० [हिं० मुंडा ] एक छोटी मछली जिसके मुछे भुअन-सञ्ज्ञा पु० [ स० भुवन ] दे० 'भुवन' । नहीं होती। भुअना-क्रि० अ० [देश॰] भूलना । बहकना । विशेष-यह गिरई की जाति की होती है । गवारों की धारणा भुआ 1-सञ्ज्ञा पु० [सं० बहु या भूय अथवा घूक, प्रा० धूम] सेमर है कि इसके खाने से खानेवालो को मूछे नहीं निकलतीं। आदि की छई जो फल के भीतर भरी रहती है और डोडे के भुंइ-सशा स्त्री० [सं० भूमि ] पृथिवी । भूमि। उ०-प्रति सूखने पर बाहर निकलती है। उ०-मारत टोंट भुमा अनीति कुरीति भइ भुई तरनि हूँ ते ताति । जाउ कह बलि उधराना फिरि पाछे पछताना हो । --जग० बानी, पृ० ८२ । जाउ कहूँ न ठाउं मति अकुलाति ।-तुलसी (शब्द०)। भुआर-संज्ञा पुं॰ [सं० भूपाल ] दे॰ 'भुपाल'। मुँइचालो -सञ्चा [हिं० भुइँ ( = भूमि ) + चाल ( = चलना, भुआल -संज्ञा पुं॰ [ स० भूपाल, प्रा० मुनाल ] राजा। उ०- हिलना)] भूकप । भूवाल । भूडोल । उ०-जनु भुइचाल बदउ अवध भुधाल सत्य प्रेम जेहि राम पद । बिछुरत दोन चलत नहि परा । टुटी कमल पीठि हिय डरा। जायसी दयाल तनु तृन इव जिन परिहरेउ । -तुलसी (शब्द॰) । (शब्द०)। भुइँ-संज्ञा स्त्री० [सं० भूमि ] भूमि । पृथ्वी। उ.-विपति भुइधरा-सया पु० [हिं० भुइ + हरा ] दे० 'भुइहरा' । बीज वर्षा रितु चेरी। भुई भइ कुमति कैकई केरी ।- भुइफोर -वज्ञा पु० [हिं० भुइँ + फोड़ना] एक प्रकार की खुभो जो तुलसी (शब्द०)। बरसात के दिनो मे बाबी के पास पास निकलती है। यह मुहा०-भुइँ लाना = झुकाना । उ०-कुडल गहे सीस भुई लावा । तरकारी के काम माती है। गरजुमा । पावर सुमन जहां वै पावा। -जायसी (शब्द०)।