पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/४५१

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३६६० भुंगीश भूसी - भूसो-सज्ञा स्त्री० [हिं० भूसा ] १. भूमा । २. किसी प्रकार के अन्न शृंगरज-सरा पुं० [सं० भृगरज] दे॰ 'भृगराज' । या दाने के ऊपर का छिलका जैसे, कंगनी की भपी। उ० भृगराज-संशा पु० [म० भृगराज ] १. भंगरा नामक वनस्पति । घाटा तजि भूपी गहै, चलनी देखु निहार .-सतबानी, पृ० ३। भंगरैया। धमरा। २. काले रंग का एक प्रसिद्ध पक्षी जो प्रायः सारे भारत, बरमा, चीन प्रादि देशों में पाया जाता भूसीकर- संज्ञा पु० [हिं० भूसी + कर ? ] एक प्रकार का धान जो प्रगहन के महीने मे तैयार होता है और जिसफा चावल है। भोमराज । वि० दे० 'भीमराज'। सालों रह सकता है । भृगराज घृत-शा पु० [सं० भृक्षराजगृत ] वैद्यक मे एक प्रकार फा घृन जो साधारण घी में भैगरैया का रस मिलाकर बनाया भूसुत-सञ्ज्ञा पु० [सं०] १ वृक्ष । पेड़ । पौधा । २. मंगल ग्रह । जाता है। कहते हैं, इसकी नास लेने से सफेद बाल काले ३. नरकासुर। हो जाते हैं। भूसुत-वि० जो पृथ्वी से उत्पन्न हो । भृगरीट-मंशा पुं० मि० भृद्गरीट] १. लोहा । २. शिव के द्वारपाल । भूसुता-संज्ञा ली. [ स० ] मीता। ये प्रत्यंत विरूप एव विकृताग थे। भूसुर-संशा पु० [ म० ] पृथ्वी के देवता । ब्राह्मण । उ०-भूसुर भीर विशेष-भृगरिटि, मुंगरी टि, गिरिप्टि, गिरीटि, गेरिटि देखि सब गनी-मानस । मादि उनके नाम हैं। भूस्तृण-संज्ञा पुं० [स०] एक प्रकार की घास । खवी । घटियागे। भृगरोल-संहा पुं० [ म० भृगरील ] एक प्रकार की भिड़ [को०] । भूस्मृक्-सज्ञा पुं॰ [ सं० भूस्पृश ] मनुष्य । मानव | भुंगवल्लभ-मा पु० [ म० भृजवालम ] भमि कदर । भूस्थ-संशा पु० [स०] मनुष्य । शृंगवल्लभा-संज्ञा स्त्री० [ स० भृगवल्लभा ] ममि जंच (को०] । भूस्फोट -सज्ञा पु० [सं०] छत्रक । कुकुरमुत्ता । भूस्वर्ग-स -सज्ञा पु० [सं०] १. सुमेरु पर्यंत । २. घरती का वह कोई भंगसार्थ-संज्ञा पुं० [ सं० भृङ्गसार्थ ] भौंरों का समूह या झंड। स्थान जो स्वर्ग के समान सुखद हो । मुंगावली [को०। भूस्वामो-सज्ञा पुं० [स० ] भूमिया । भूमिपति । जमीदार । भुंगसोदर-संज्ञा पुं० [ स० भृगसोदर ] भैगरैया । केशराज [को॰] । भूहरा-संज्ञा पुं० [हिं० ] दे० 'भुइहरा' । शृंगाण-मंशा ५० [स० भृङ्गाण ] काले वर्ण का बड़ा भौरा को०] । भृग-संज्ञा पुं० [सं० भृङ्ग ] १. भौंरा । भ्रमर । २. भृगराज। भृगाभीष्ट-सज्ञा पु० [सं० भृङ्गाभीष्ट ] माम का वृक्ष । भुंगानंदा-संज्ञा स्त्री॰ [सं० भृङ्गानन्दा ] यूधिका [को०] । भंगरा [को०] । ३. कलिंग या भृगराज नाम का पक्षो [को०] । ४. छिछोरा। लंपट । भ्रमर [को०] । ५. एक स्वर्णपात्र । भृगार-संशश पु० [सं० भृङ्गार ] १. लोग। २. सोला। स्वर्ण । भृगार । झारी को०] । ६. गुइत्वच । दारचीनी [को०] । २. मोने का बना हपा जल पीने का पात्र । ४. जल भरकर अभिषेक करने की भारी। ७. अभ्रक (को०) । ८. एक प्रकार का कीडा, जिसे विलनी भी कहते हैं । उ०—(क) मा मति फीट भृग की नाई। जहँ भृगारि -नया सी० [ स० भृगारि ] केवडा । तह मैं देखे रघुराई । --तुलसी (शब्द०)। (ख) कीट भृग भृगारिका, भृगारी-शा सी० [स० भृङ्गारिका, भृङ्गारी ] झिल्ली ऐसे उर अंतर । मन स्वरूप करि देत निरंतर - नामक कीड़ा। लल्लू ( शब्द०)। भृगारु-मज्ञा पुं॰ [ समृद्गारु ] घडा या पात्र लो विशेष- इसके विषय में यह प्रसिद्ध है कि यह किसी कोहे के भृगार्क --सज्ञा पु० [सं० भृङ्गाकं ] भैगरेया । ढोले को पकड़कर ले पाता है और उसे मिट्टी से ढक देता भृगालिका-नग ग्वी० [ स० मलिका ] झिल्ली [को०] । है; और उसपर बैठकर और इंक मार मारकर इतनी देर भृगावली-संशा थी० [ स० भृशावली ] भौंरों की पक्ति [को०] । तक और इतने जोर से भिन्न भिन्न' शब्द करता है कि वह कीड़ा इसी की तरह हो जाता है। भृगाह-सज्ञा पु० [स० भृङ्गाह ] भंगरैया । जीवक । भुंगो-संज्ञा पु० [म० भृङ्गिन् ] १. शिव जी का एक पारिषद वा भृगक-ज्ञा पुं० [सं० भृङ्गक ] भृगराज पक्षी । गण । उ०-अति प्रिय वचन सुनत प्रिय केरे । गिहि प्रेरि भुंगज-सज्ञा पु० [स० भृगज ] १. मगह । २. अभ्रक [को०] । सकल गन टेरे।-मानस, १६३ । २. बड़ या उदुंबर का भृगजा-सञ्ज्ञा स्त्री० [स० भृङ्गजा ] भारंगी । पेड़। भृगपर्णिका-संज्ञा स्त्री॰ [ स भृगपर्णिका ] एला । छोटी इलायची ,गो-मंज्ञा स्त्री० [सं० भृशो ] १. भोगे । २. बिलनी नामक कीड़ा या उसका पौधा। जो और कीडों को भी अपने समान रूपवाला बना लेता है। शृंगप्रिया-सज्ञा स्त्री० [सं० भृङ्गप्रिया ] माधवी लता। उ०-उरियतु भृगी कोट लौ मत वहई है जाहि -विहारी भृगबंधु-संञ्चा पु० [ स० भृङ्गबन्धु ] १. कुंद का पेड़ । २. कदम (शब्द) । ३. प्रतिविषा । प्रतीस । ४. भांग । का पेड़। भृगीफल --सज्ञा पु० [ स० भृङ्गीफल ] अमड़ा। भृगमोही-संज्ञा पुं० [सं० भृगमोहिन् ] १. चंपा । २. कनकचंपा । भृगीश-संज्ञा पु० [ भृङ्गीश ] शिव । महादेव । ! STO