पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/४५२

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भृत्य भृगेष्टा . HO जाते है। भृगेष्टा-संज्ञा स्त्री॰ [ म० भृङ्गप्टा ] १. घीकुपार । २. भारंगी। भृगुमुख्य भट भलुर सुर सर्व सरि समर समरस्य सुरो।- ३. युवती. स्त्री। तुलसो (शब्द०) भृटिका -संना स्त्री० [स० भृण्टिका ] एक प्रकार का पौधा (को०] । भृगुराम-ज्ञा पु० [सं०] परशुराम । भृ डि -संज्ञा स्त्री० [स० भृण्डि ] तरग । अमि । लहर [को०] । भृगुरेखा-सचा मा० [सं०] विष्णु की छाती पर का वह चिह्न भृकुंश-सञ्ज्ञा पु० [ ] स्त्री का वेश धारण करनेवाला नट । जा भृगु मुनि के लात मारने स हुअा था। उ०-(क) माथे पर्या-भ्र कुश । भृकुसक । भ्रुकुश । मुकुट सुभग पीतावर उर साभित भृगुरेखा हो ।-सूर (शब्द०)। (ख) तट भुगदड भोर भृगुरखा चदन चित्रित भृकुटि, भृकुटा-सा मा सं०] १. भौह । २. भ्रूभंग। रगन सु दर ।-सूर (शब्द०)। भृगु-सचा पुं० [सं० १. एक प्रसिद्ध मुनि जो शिव के पुत्र माने भृगुलता-शा बो॰ [स०] भृगु मुनि के चरण का चिह्न जो विष्णु की छाती पर है। विशेष-प्रसिद्ध है कि इन्होंने विष्णु की छाती में लात मारी भृगुवल्ली-सञ्चा औ० [ स०] तैत्तिरीय उपनिषद् की तीसरी वल्बी थी। इन्ही के वश में परशुराम जी हुए थे। कहत हैं, इन्ही जिसका अध्ययन भृगु ने किया था। 'भृगु' और 'अगिरा' तथा 'कपि' से सारे संसार के मनुष्यो की सृष्टि हुई है। ये सप्तर्षियो में से एक मान जाते हैं। इनकी भृगुवार, भृगुवासर- पु० [सं०] शुक्रवार । उत्पत्ति के विषय में महाभारत मे लिखा है कि एक बार रुद्र भृगुशादूल, भृगुश्रेष्ठ, भृगुसत्तम -सञ्ज्ञा पु० [सं०] परशुराम । ने एक बड़ा यज्ञ किया था, जिसे देखने के लिये बहुत से भृगुसुत-सहा पु० [ स०] १. शुक्राचार्य । २. शुक्र ग्रह । ३. परशु- देवता, उनकी कन्याएं तथा स्त्रियाँ आदि प्राई थी। जब ब्रह्मा राम । उ०-भृगुसुत समुझि जनेउ बिलोकी । जो कछु कहेतु उस यज्ञ मे पाहुति देने लगे, तब देवकन्याओ प्रादि को सहेई रिस रोका।-राम०, पृ० १५८ । देखकर उनका वीर्य स्खलित हो गया। सूर्य ने अपनी किरणों भृत'--संज्ञा पुं० [सं०] [ श्री० भृता ] १. भृत्य । दास । सेवक । से वह वीर्य खीचकर अग्नि में डाल दिया। उसो वीर्य से २. मिताक्षरा के अनुसार वह दास जो बोझ ढोता हो। 'अग्निशिखा में से भृगु की उत्पत्ति हुई थी। ऐसा दास प्रथम कहा गया है । २. परशुराम । ३. शुक्राचार्य । ४. शुक्रवार का दिन । ५. शिव । भृत-वि० [स. १. भरा हुमा । पूरित । उ०-छाए पास पास ६. कृष्ण (को०)। ७. जमदग्नि । ८. दे० 'सानु' । ६. पहाड़ दोस भोर भौंर भृत भनकार ।-भुवनेश (शब्द०)। २. का ऐसा किनारा जहाँ से गिरने पर मनुष्य विलकुल नीचे प्रा पाला हुआ। पोपण किया हमा। ३. वहन किया हुप्रा । जाय, बीच में कही रुक न सके । ४. भृति या किराया मादि पर लिया हुप्रा । भृगुक-संज्ञा पुं० [स०] पुराणानुसार कूमंचक्र के एक देश का नाम । भृतक-संज्ञा पुं० [सं०] वह जो वेतन लेकर काम करता हो। भृगुज-संज्ञा पुं० [सं०] १. भृगु के वंशज । भार्गव । २. शुक्रा- नौकर। चार्य । ३. शुक्रग्रह । भृतकबल-संज्ञा पु० [स०] तनखाह लेकर लड़नेवाली सेना | नोकर। भृगुतनय-संज्ञा पु० । सं०] दे० 'भृगुज' । भृगुकच्छ --संज्ञा पुं॰ [ स०] प्राधुनिक भडोच जो प्राचीन काल में पवित्र तीर्थस्थान था। भृतकाध्ययन-सशा पुं० [सं०] भृति या वेतन देकर शिक्षक से पढ़ना। भृगुतुंग-सञ्चा स० [ सं० भृगुतुङ्ग ] हिमालय भी एक चोटी का नाम यह पवित्र तीर्थस्थान माना जाता है। भृतकाध्यापक-संज्ञा पु० [ स०] वह जो भृति लेकर अध्यागन करता हो । वेतन लेकर पढ़ानेवाला अध्यापक । भृगुनंद, भृगुनंदन-शा पु० [सं० भृगुनन्द, भृगुनन्दन] १. भृति-ज्ञा स्त्री० [स० ] नोकरी । मजदूरी। ३. वेतन । तनखाह । परशुराम । २. शुक्राचार्य (को०) । ३. शौनक ऋषि (को०)। ४. मूल्य । दाम । ५. भरने की क्रिया। ६. पालन करना। भृगुनाथ-संज्ञा पुं० [सं०] परशुराम । उ०-घोर घार भृगुनाथ उ०-व पथ विकल चकित प्रति अातुर भमत हेतु दियो। रिसानी । घाट सुबंध राम बर वानी।-मानस, १९४१ । भृति बिलबि पुष्टि दै श्यामा श्याम श्याम विया ।-सुर भृगुनायक-सञ्ज्ञा पुं॰ [सं०] परशुराम । (शब्द०)। भृगुपति-तशा पु० [सं०] परशुराम । उ०-देखत भृगुपति वेष भृतिभुज-संज्ञा पु० [ स०] वैतनिक कर्मचारी को०] । कराला।-मानस, १.२६६। भृतिरूप-संशा पु० [२०] वह पुरस्कार जो किसी विशेष कार्य भृगुपात-संश पु० [सं०] पहाड़ के कगार से गिरकर शरीर त्याग करने के कारण पारिश्रमिक के बदले में दिया जाय । करना [को०] । भृत्य-संशा पुं० [सं०] [जी० भृत्या ] सेवक । नोकर | उ०- भृगुपुत्र-नंश पु० [स०] शुक्र । भृगुनंदन । सो कुछ नही, किंतु भृत्यों को प्रिये, कष्ट ही होगा पोर।- भृगुमुख्य-संक्षा पुं० [सं०] परशुराम । उस केत, पु० ३७२ । फौज ।