पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/४८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

1 काँकड़ा ३२८७ फाँदना' बिदा करि गजा राजा होय कि सको। जरासंघ को जोर फाँटर --संज्ञा सी० [सं० फाएंड ] १. प्रोषधि को गरम पानी में उधेर यो फारि कियो हूँ फाँको ।-गोपाल (शब्द०)। प्रौटाना। काढ़ा बनाने की क्रिया या भाव । २. क्वाथ । २. किसी फल फा एक सिरे से दूसरे तक काटकर अलग काढ़ा। किया हुअा टुकड़ा । जैसे, नीबू, घाम, अमरूद, खरबूजे प्रादि फाँट-संज्ञा पुं० [सं० फाण्ड (= पेट, उदर)] दे० 'फाटा' । उ०- की फाँक । ३. खंड । टुकड़ा। उ०-घरि घरि चामीकर वसन एक इसहाक सोहावा | बाँधहिं फाँट सो लीन्ह कढ़ावा । के कंगूर गिरै फटकि फरस फूटि फूटि फीके फहराहि । ---हिंदी प्रेमगाथा०, पृ० २३५ । (शब्द०)। फाँटना-कि० स० [हिं० फाट ] १. किसी वस्तु को कई भागो विशेष-टूट टूटकर अलग होनेवाले टुकड़े के लिये इस शब्द का

में बांटना । विभाग करना । २. जली, बूटी प्रादि को पानी में

व्यवहार बहुत कम मिलता है। प्रोटाना । काढ़ा करना। ४. लकीरें जिनसे कोई गोल या पिंढाकार वस्तु सीधे टुकड़ों में फाँटबंदी-संज्ञा स्त्री० [हिं० फाँट + फा० बंदी ] वह कागज जिसमें में बँटी दिखाई दे । जैसे, खरबूजे की फाँके । ५. छिद्र । किसी गाँव में नामुकुम्मल फट्टीदारों के हिस्सों के अनुसार दरार । शिगाफ । संधि । जैसे, दरवाजे की फाफ । उस गाँव की आमदनी प्रादि की बात लिखी रहती है। फाँकड़ा-वि० [हिं० फाँक+देश० डा (प्रत्य॰)] १. बाका । तिरछा । फाँटा-संज्ञा पुं० [हिं० फाटना ] लोहे वा लकड़ी का यह मुका २. हृष्टपुष्ट । तगड़ा । मुस्टंडा । मजबूत हुमा या कोणयुक्त टुकड़ा जो मिलकर कोण बनाती हुई दो, फॉकना-क्रि० स० [हिं० फॉका ] चूर, दाने या बुकनी के रूप की वस्तुओं को परस्पर जकड़े रखने के लिये जोड़ पर जड़ दिया वस्तु को दूर से मुह में डालना। कण या पूर्ण को दूर से जाता है। कोनिया। मुह में फेंककर खाना । जैसे, चीनी फॉकना । उ०-लपसी फाँड़-संज्ञा पुं० [सं० फाण्ड ] दे० फाड़ा'। लौग गर्न इक सारा । खाँई परिहरि फाकै छारा ।-कवीर फाँडा-संज्ञा पुं० [सं० फाण्ड (= पेट) ] दुपट्टे या घोती.का (शब्द०)। कमर में बंधा हुपा हिस्सा। मुहा०-धूल फाँकना = (१) खाने को न पाना । (२) ऐसे स्थान में जाना या रहना जहाँ बहुत गर्द हो। (३) दुर्दशा क्रि० प्र०-कसना ।-बाँधना । भोगना। मुहा०—फाँडा वाँधना या कसना = किसी काम के लिये मुस्तेद, फाँका'-सहा पु० [हिं० फेंकना ] १. किसी वस्तु को दूर से फेंक- होना । कटिवद्ध होना। कमर कसना । फाँड़ा पकड़ना=3 कर मुह में डालने की क्रिया या भाव । फंका । (१) इस प्रकार पकड़ना जिसमें कोई मनुष्य भागने न पावे । मुहा०-फाँका मारना= किसी वस्तु को फांकना । (२) स्त्री का किसी पुरुष को अपने भरण पोपण प्रादि के लिये जिम्मेदार ठहराना । २. उतनी वस्तु जो एक बार में फॉफी जाय । फाँका+२-सशा श्री० [हिं० फाँक ] दे० 'फॉक' । फाँद'-सज्ञा स्त्री० [हिं० फाँदना ] उछाल । उछलने का भाव । कूदकर जाने की क्रिया या भाव । मुहा०-फाँका देना = तर करना। फाँका-संज्ञा पुं० [अ० फाष्ट ] दे० 'फाका' । फौदा-संशा सी०, पुं० [हिं० फंदा] रस्सी, बाल, सूत आदि का घेरा यौ०-फाँकामस्त, फाँकेमस्त = दे० 'फाकामस्त' । उ०-जुरि जिसमें पड़कर कोई वस्तु बंध जाय । फंदा । पाश । उ०- पवन पानि होइ होइ सव गिरई। पेम के फांद कोउ जनि घाए फांकेमस्त होली होइ रही।-भारतेंदु ग्रंक, भा० २, परई।-जायसी ग्रं॰, पृ० २६४ । २. चिड़िया प्रादि फंसाने पृ० ३६६। फाँकी-संशा सी० [हिं०] दे० 'फाफ' । का फंदा या जाल । उ०—(क) तीतर गीव जो फांद है निवहिं पुकार दोष ।-जायसी (शब्द०)। (ख) प्रेम -फांद, फाँग, फाँगी-संज्ञा स्त्री० [ देश०] एक प्रकार का साग । उ०- जो परा न छूटा । जीव दीन्ह पर फांद न टूटा1-जायसी (क) रुचि तल जानि लोनिका फांगी। कढ़ी कृपालु दूसरे (शब्द०)। मांगी।—सूर (शब्द०)। (ख) पोई परवर फांग फरी चुनि । टेंटी टेंट सो छोलि कियो पुनि ।—सूर (शब्द॰) । विशेष-कवियो ने इस शब्द को प्रायः पुल्लिग ही माना है। फाँट-संक्षा झी [हिं०. फाटना, फटना वा सं० पट ] १. यथा. फौदना --कि० अ० [सं० फणन, हिं० फानना ] झोंक के माप क्रम कई भागों में बाँटने की शिया या भाव । शरीर को ऊपर उठाकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर जा क्रि० प्र०-बाँधना।—लगाना । पड़ना । कूदना । उछलना। उ०-ग मृगनैननि न पावै जान । जुलुफ फंदा मुख भूमि पे रोपे चधिक सुजान । २. कम से बांटा हुमा भाग । अलग अलग किए हुए कई भागों रसनिधि (शब्द०)। में से एक भाग । ३. दर या पड़ता जिसके अनुसार कोई वस्तु बांटी जाय । संयो० कि०-जाना । ०-फाँटबंदी। फाँदनारे-क्रि० स० १. उछलकर पार करना । कूदकर लाधना।