पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/४८१

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पृ० ३२॥ मंडूका ३७२० मकृत' ऋषि वशिष्ठ और देवता मडूक हैं। वर्षा के लिये इसका मतु-संशा पुं० [सं० मन्तु] १. अपराध 1 गलती । २. मनुष्य जाति । विनियोग है। ३. प्रजापति । ४. मंत्र। राय | सलाह। ५. राय देनेवाला। मत्रणा देनेवाला । ६. अधिकारी । निर्देशक । मंडूका -सज्ञा स्त्री० [सं० मएका ] मजिष्ठा । मजीठ । मंडूकी-सज्ञा स्त्री॰ [ स० मण्डूकी ] १. ब्राह्मी। २. प्रादित्यभक्ता | मतु-सपा ओ० बुद्धि । समझ । अपल । ३. स्वेच्छाचारिणी स्त्री । ४. मेढकी (को॰) । मंत्र- पुं० [ म० मन्त्र] १. गोप्य गा रहतापूर्ण वात । मलाह। परामर्श । उ०-मम कई निज मति अनुमाग। दुत पठाइय मडूर-संज्ञा पु० [ स० मण्द्र ] लोहकोट । गलाए हुए लोहे की मैल | सिंघान। वालिकुमारा-मानस, ६।१७। २. देवाधिसाधन गायत्री पादि वदिक वाय जिनके द्वारा यक्ष प्रादि पिया करने का विशेप-वैद्य लोग पोषध में इसका व्यवहार पोधकर करते हैं। विधान हो। इसमें लोहे फा ही गुण माना जाता है। मडुर जितना ही पुराना हो उतना ही व्यवहार के योग्य योर गुणकारी माना विशेष-नियत के अनुसार दिनो से तीन भंद है- जाता है। सौ वर्ष का मडुर सबसे उत्तम कहा गया है। परोक्षात, प्रत्यक्षात पौर प्राध्यात्मिजिन मयो द्वारा बहेड़े की लकडी में जलाकर सात बार गोमूत्र में डालने से देवता को परोक्ष मानकर प्रथम पुका को किया या प्रयोग मंडूर शुद्ध हो जाता है । इसके सेवन से घर, प्लीहा, कवल करके स्तुति प्रादि की जाती है, न परोतकृत मत्र कहते हैं । मादि रोग प्राराम होते हैं। जिन मत्रों में देवना को प्रत्यक्ष नानकार मयम पुरुष के सपनाम और क्रिया का प्रयोग करके उसकी प्रादि होती मंडौल-संज्ञा पुं० [सं० मण्डप ] दे० 'मंडप' । 30-मडो प्रेम है, उसे प्रत्यक्ष कृत कहते है। जिन नंगाने देता का मारोप मगन भई कामिनी, उमगि उमांग रति भावन -गुलाल०, अपने में करफे उत्तम पुरुष के नर्वनाम और शिवानों द्वारा उमको स्तुनि यादि की जानी है, साध्यात्मिक महलाते हैं । मंढा-संज्ञा पुं० [हिं० मढ़ना ] कमवाव बुननेवालो का एक प्रौजार मत्रों के विषय प्रायः स्तुति, घाशीर्वाद, पाय, अभिशाप, जो नकशा उठाने मे काम प्राता है। यह लकड़ी का होता है परिदेवना, निंदा प्रादि होते हैं। मीमांसा के अनुसार वेदों जिसमें दो शाखें सी निकली होती हैं। सिरे पर एक छेद का वह वाक्य जिप द्वारा किसी कर्म के करने की प्रेरणा होता है जिसमें एक डंठा लगा रहता है। पाई जाय, मत्रपद वाध्य है। नीमासक मन को ही मत-संशश पु० [सं० मन्त्र ] १. सलाह। उ०-(क) कंत सुन देवता मानते हैं मोर उसके अतिरिक्त देवता नहीं मानते। मंत कुल अंत किय अतु, हानि हातो किज हिय ये भरोसो वैदिक मंत्र गद्य पोर पच दोनों रूपों में पाए जाते हैं। भुज वीस को।-तुलसी (शब्द०)। (ख) मैं जो कहीं गद्य को यजु पौर पद्य को ऋचा रहते हैं। वो पद्य कत सुनु मंत भगवंत सो विमुख ह वालि फल कोन लीन्हो । गाए जाते हैं, उन्हें साम कहते है। इन्ही तीन प्रकार के -तुलसी (शब्द०)। मंत्रो द्वारा यज्ञ के सब मं संपादित रोते हैं। यौ०-तंत मंत= (१) उद्योग । प्रयत्न । उ०-फे जिय तत ३. वेदो का वह भाग जिसमे मत्रों का संग्रह है। संहिता। ४. मंत सों हेरा। गयो हेगय जो वह भा मेरा ।—जायसी तम के अनुसार वे शब्द पावाप जिनका नाभिन्न भिन्न (पाब्द०)। २. तन मत्र । उ०-तंत मंत उच्चार देवि देवतायो को प्रसन्नता वा भिन्न भिन्न कामनायो की सिद्धि के दरसिय ममि हविय ।-पृ० रा०, ११२ । लिये करने का विधान है। ऐमा शब्द या वारय पिसके २. मत्र । सिद्धिदायक शब्दों का समूहु । दे० 'मत्र-४'। उ०- उच्चारण में कोई देवी प्रभाव वा शक्ति मानी जाती हो। (क) सुनि प्रानंद्यो चंद चित कोन मंत प्रारंभ । जप जाप विशेप-इन मत्रो में एकाक्षर मंत्र नो अस्तिष्टार्थ हों, वीज- हवि होम सब लाग्यो कज्ज असंभ।-पृ० रा०, ६६१४६ । मत्र कहलाते हैं। (स) चुगली काना सुण्ण सु, मैलो व्हे गुर मंत।-चौकी. क्रि०प्र०-१ढ़ना। ग्रं॰, भा॰ २, पृ० ४६। यौ०-मंत्र यंत्र वा यंत्र मनपादु टोना। उ०-दाकिनी मंतरा-सा पु० [स० मन्त्र ] दे॰ मंत्र'। उ०-गुप्त प्रगट सत मतर पाहै समझह प्रापिहु माहिं ।-जग० श०, पृ० ८६ । साकिनी रोवर भूवर यंत्र मत्र भजन परल फ्ल्मपारी।- तुलसी (शब्द०)। मंत्र तंत्र वा तंत्र मंत्र दे० 'तंत मंत' । मुहा०-मतर न होना = कोई उपचार न होना । उ०-खाना खाना मक्खियों की भिन्न भिन्न के सवव से मुश्किल हो जाता मत्रकार-पशा पु० [सं० मन्त्रकार ] वेदमत्र रचनेवाला ऋषि । मंग- है और खटमल के काटे का तो मंतर ही नही।-सेर फु०, द्रष्टा ऋषि पृ० ३६1 मत्रकुशल-वि० स० मन्त्रकुशल ] सलाह देने में निपुण पो०] । मंतव्य-वि[स० मन्तव्य ] मानने योग्य । माननीय । मत्रकृत्-वि० [स० मन्त्रात् ] १. परामर्शज्ञारी । सलाह देनेवाला। मतव्य-सचा पु० विचार । मत । २. दौत्यकारी | दौत्यकम करनेवाला । मंता-संज्ञा पुं० [सं० मन्तु ] मननकर्ता । विद्वान् किो०] । मनकृत्-सा पु० वेदमंत्र रचनेवाला पि । मंत्रफार।