पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/४९

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फाँदनार ३२८८ फाँसी शरीर उछालकर किसी वस्तु के आगे जा पडना । डांकना। जैसे मिसिरिहु में मिली निरस वांग को फांस ।-रहीम जैसे, नाली फांदना, गड्ढा आदना । २. नर (पशु) का मादा (शब्द०)। पर जोडा खाने के लिये जाना । मुहा०-फसि चुभना= जी में खटकनेवाली बात होना । कसकने- फाँदना-क्रि० स० [हिं० फंदा ] फंदे में डालना । फंसाना। उ० वाली बात होना ।-ऐसी घात होना जिससे चित्त को दुःख कुटिल अलक सुभाय हरि के भुवनि पै रहे प्राय । मनो मम्मथ पहुँचे । फाँस निकलना = फंटक दूर होना। ऐसी वस्तु या फोदि फंदन मीन विधि लटकाय । —सूर (शब्द॰) । व्यक्ति का न रह जाना जिससे दुःख या घटका हो । कप्ट फाँदना-क्रि० स० [हिं० ] दे० 'फानना' । पहुंचानेवाली वस्तु का हटना। फाँस निकालना= कंटक दूर करना । ऐसी वस्तु या व्यक्ति को दूर करना जिससे कुछ फाँदा-संज्ञा पुं० [हिं० } दे० 'फंदा' । उ०-गुरु मुख सती महा कष्ट या बात का सटका हो। परसादा। बाबत मेट करम कर फांदा ।-कवीर सा०, फाँसना-क्रि० स० [सं० पाश, प्रा. फाँस ] १. बंधन में डालना। पृ० ४११ । पकड़ना। पाश में बांधना । जाल में फांसना । उ०-निरखि फाँदी-संज्ञा स्त्री० [हिं० फंदा ] १. वह रस्सी जिससे कई वस्तुओं को एक साथ रखकर वाघते हैं । गट्ठा घाँधने की रस्सी। यदुवंश को रहस मन ने भयो देखि अनिरुद्ध सों युद्ध २. गन्नों का गट्ठा। एक में बंधे हुए बहुत से गन्नों का योग । मांड्यो। सूर प्रभु ठटी ज्यों भयो चाहे सो त्यों फांसि करि कुंघर पनिरुद्ध बाध्यो। २. घोसे में डालना। धोखा देकर फाँफटा-संज्ञा पुं० [हिं० पहपट ] १. कूड़ा करकठ । धूल धक्कड़ । अपने अधिकार में करना । वशीभूत करना । ३. किसी पर २. असत्य । झठ । मिथ्या (लाक्ष०) । उ.- चोरी करि चप- ऐसा प्रभाव डालना फि वह वश में होकर कुछ करने के लिये रावत सौहनि काहे की इतनो फाफट फाकत । -घनानंद०, तैयार हो जाय । जैसे,-किसी बड़े प्रादमी को फांसो तव पृ० ३३६। रुपया मिलेगा। फॉफी--सज्ञा स्त्री० [ स० पर्पटी ] १. वहुत महीन झिल्ली। बहुत संयो० फ्रि०-फँसना = फंसाना। उ०-मनबोध हुजूर लाला बारीक तह । २. दूध के ऊपर पड़ी हुई मलाई की पतली कल्लू को फांसफूस के ले गए हैं ।—फिसाना०, भा० ३, पृ० तह । ३. पतली सफेद झिल्ली जो अखि की पुतली पर पड़ ५०० ।-लाना ।-लेना। जाती है। माड़ा । जाला । फाँसरी -संज्ञा स्त्री० [हिं० फंदा। फैसरी। पाश । उ०- फाँवरिया@-सज्ञा स्त्री॰ [ सं० प्रावार, हिं० पामरी, पावडी+ इया भली भई जो पिउ मुभा, नित उठि करता रार | सूटी गल (प्रत्य०) या हिं० फरिया ] प्रोढ़नी। पट । उ०—दिखण की फोसरी, सो पांव पसार ।-कवीर सा० सं०, पृ० ४७ । दिशा री मंगाय फांवरिया प्रपणे हाथ प्रोढ़ाक।-राम० धर्म०, पृ०१॥ फाँसी-सज्ञा स्त्री० [मं० पाशी] १. फैमाने का फंदा । पाम । उ०- लालन पाल केही दिना ते परी मन माय सनेह की फाँस-सज्ञा स्त्री॰ [ सं० पाश] १. पाश । बंधन । फंदा । उ०- माया मोह लोभ अरु मान । ए सव त्रय गुण फॉस समान । फाँसी । मतिराम (शम्द०)। २. वह रस्सी या रेशम का फंदा जिसमें फंसने से गला घुट जाता है भौर फेसनेवाला मर -मूर (शब्द०)। २. वह रस्सी जिसका फंदा डालकर जाता है। शिकारी पशु पक्षी फंसाते हैं। उ०-(क) दृष्ठि रही ठग- क्रि० प्र०-लगना। लाडू. अलक फांस पड गोव । जहाँ भिखारि न बाँचह तहाँ बचइ को जीव?-जायसी (शब्द०)। (ख) वरुण फांस ३. रेशम या रस्सी का फंदा जो दो ऊँचे संभे गाकर कपर ब्रजपतिहि छिन माहिं छुड़ावै । दुखित गयंदहि जानि के से लटकाया जाता है और जिसे गले में डालकर अपराधियों आपुन उठि धावै ।-सूर (शब्द॰) । को प्राणदंड दिया जाता है। फाँस-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [सं० पनस ] १. वास, सूखी लकड़ी आदि का मुहा०-फाँसी खड़ी होना = (१) फांसी के खंभे इत्यादि कड़ा तंतु जो शरीर में चुभ जाता है। बांस या काठ का कड़ा गड़ना । फासी दिए जाने को तैयारी होना । (२) प्राण जाने रेशा जिसकी नोक कोटे की तरह हो जाती है। महीन कोटा। का डर होना। हर की बड़ी भारी वात होना । जैसे,- उ०-(क) करकि करेजे गदि रही वचन वृक्ष की फांस । जाते क्यों नही, क्या वहाँ फांसी खड़ी है ? फाँसी चढ़ना = निकसाए नकसै नहीं रही सो काहू गाँस ।-कबीर (शब्द०) पाश द्वारा प्राणदंश पाना। फाँसी चढ़ाना-गले में फंदा (ख) नस पानन की फाढे हेरी। अधर न गडै फास तेहि डालकर प्राण दंड देना। केरी।—जायसी (शब्द०)। ४. वह दंड जो अपराधी को फंदे के द्वारा मारकर दिया जाय । क्रि० प्र०-गढ़ना ।-चुभना।-निकलना ।-निकालना।- पाश द्वारा प्राणदंड । मौत की सजा जो गले में फंदा डालकर लगना। दी जाय। २. बाँस, बेंत आदि को चीरकर बनाई हुई पतली तीली । पतली क्रि० प्र०-होना। कमाची । उ०-अमृत ऐसे बचन में रहिमन रस की गाँस । मुहा०-फाँसी देना = पाश द्वारा प्राणदंड देना । गले में फंदा