पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/४९४

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। मकुल-मंशा मैकुर ३७५३ मकुर-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] १. कुम्हार का डंडा जिससे वह चाक रुचिकारक, दत्तावर और कफ, शल, बवासीर, गुजन, घुमाता है । २. बकुल । मौलसिरी। ३. शीशा। दर्पण । विदोष, कुष्ठ, अतिसार, हिचकी, वमन, श्यात, खांसी मोर ४. कोरक । फलो ज्वर आदि को दूर करनेवाली माना जाता है । go १. कली। कोरक। २. बकुल। २. इस क्षुप का फल । ३. एक प्रकार का कंटीला पौधा जिसके मौलसिरी (को०] । फल खटमिट्ठे होते हैं। मकुष्ट, मकुष्टक-सञ्ज्ञा पुं० [सं० ] दे० 'मकुष्ठ' [को०] । विशेप-यह पौधा प्रायः सीधा ऊपर की ओर उठता है । इसमे प्रायः सुपारी के प्रकार के फल लगते हैं जो पकने पर कुछ मकुष्ठ-संज्ञा पु० [स०] १. एक प्रकार का धान। २. मोठ ललाई लिए पीले रंग के होते है । ये फल एक प्रकार के पतले नामक पन्न। पत्तो के प्रावरण में बंद रहते हैं। फल खटमिट्ठा होता है मकुष्ठक-संशश पुं० [सं०] मोठ नामक अन्न । और उसमें एक प्रकार का अम्ल होता है जिसके कारण मकूनी-संज्ञा स्त्री॰ [ देश०] दे॰ 'मकुनी' । उ०-मीठे तेल वह पाचक होता है। चना की भाजी। एक मकूनी दै मोहि साजी'-सुर ४. इस पौधे का फल । रसभनी। (शब्द०)। मकोरना@1-क्रि० स० देश० ] दे० 'मरोड़ना' । उ०-पुनि मकूलक-संज्ञा पुं॰ [सं०] १. कली। कुड्मल । २. दंती नाम का धन धनक भौंह कर फेरी । वाम क्टाछ मकोरत हेरी।- वृक्ष (को०] । जायसी (शब्द०)। मकूला-संज्ञा पुं० [अ०] १. कहावत । कहनूत। २. वचन | मकोसल-सज्ञा पुं॰ [देश॰] एक प्रकार का ऊंचा वृक्ष जो सर्वदा कपन। हरा भरा रहता है। मकेरा-संज्ञा पुं० [हिं० मक्का+ऐरा (प्रत्य॰)] वह खेत जिसमें विशेप-इसकी लकड़ी अंदर से लाज और बहुत कड़ी तया ज्वार या वाजरा बोया जाता है । दृढ़ होती है । यह इमारत के काम मे पाती है। प्रासाम में मकेरुक-संश पुं० [सं०] चरक के अनुसार एक प्रकार का रोग इससे नावें भी बनाई जाती हैं। जिसमें मल के साथ कीड़े निकलते हैं। २. मल में उत्पन्न कोठ। उ०-इन (कृमियों) पाँच नाम हैं-कहा, मकोह-संज्ञा स्त्री॰ [ देश० ] एक प्रकार की कटीती लताविशेष । दे० 'चमोलन'। मकेरुक, सौसुराद, मलून, लेलिह ।-माधव०, पृ० ७६ । मकोहा-संघा पु० [सं० मत्कुण या हिं• मकोय? ] लाल रंग का मको-संज्ञा स्त्री॰ [ देश० या हि० मकोय ] दे॰ 'मकोय । एक प्रकार का कीड़ा जो अनुमानतः एक इच लबा होता है मकोइचा-संज्ञा पुं॰ [ देश० या हिं० मकोय ] दे० 'मकोई' । पौर फसल को बहुत हानि पहुंचाता है । मकोइया-वि० [हिं० मकोय+इया (प्रत्य॰) ] मकोय के पके हुए मक्कड़-सज्ञा पुं॰ [हिं० मकड़ी ] बड़ा मकड़ा | नर मकड़ी। फल के रंग का। यौ०-मक्कड़ जाल = मकड़ी का जाला । मकोई-संज्ञा स्त्री० [हिं० मकोय ] जंगली मकोय जिसमें वाँटे होते मक्करा-संज्ञा पुं० [अ० मक ] १. छल । कपट । धोखा । उ0- हैं। मकोचा। उ०-झांखर जहाँ सो छाडहु पंथा। दिलगि मक्कर मति करि मानि मन, मेरी मति गति भोरि।- मकोइ न फारहु कंथा ! —जायसी (शब्द॰) । ब्रज० प्र०, पृ०६। मकोड़ा-संज्ञा पु० [हिं० कीड़ा का अनु० ] कोई छोटा कीड़ा। २. नखरा। जैसे,-वरसात में बहुत से कीड़े मकोड़े पैदा हो जाते हैं। क्रि० प्र०-दिखाना ।-फैलाना ।-बिछाना ।-साधना = मकोय-संशा सी० [सं० काकमाता या काकमात्री से विपर्यय] मक्कारी करना। बहानेबाजी करना । नकल बनाकर पड़े १. एक प्रकार का क्षुप जिसके पत्ते गोलाई लिए लंबोतरे रहना । उ०-कासिम ने कहा हुजूर, यह पौरत बदमाश होते हैं और जिसमे सफेद रंग की छोटे फूल लगते हैं। है, मक्कर साध रही है ।-पिंजरे०, पु० ५६ । विशेप-फल के विचार से यह क्षुप दो प्रकार का होता है। मक्कल्ल-संश पु० [सं० मक्कल, मक्काज ] प्रसव के अनंतर होनेवाला एक प्रकार का स्त्रीरोग। एक में लाल रंग के और दूसरे में काले रंग के बहुत छोटे छोटे, प्रायः काली मिर्च के प्राकार और प्रकार के, फल विशेष-इस रोग में प्रसव के मनंतर प्रसूता की नाभि के लगते हैं। इसकी पत्तियों और फलों का व्यवहार पोषधि नीचे, पसली मे, मूत्राशय में वा उसके जार वायु को एक के रूप में होता है । इसके पत्ते उबालकर रोगियों को दिए गांठ सी पड़ जाती है और पीड़ा होती है। इस रोग में जाते हैं । इसके क्वाय को मकोय की भुजिया कहते हैं। पक्वाशय फूल जाता है पोर मूत्र रुक जाता है। वैद्यक मे इसे गरम, परपरी, रसायन, स्निग्ध, वीर्यवर्धक, मक्का'-श पुं० [प्र. मक्कह ] प्ररय फा एक प्रसिद्ध नगर म्वर को उत्तम करनेवाली, हृदय और नेत्रों को . म्मद साहब का जन्म हुमा पा। यह मुसलमानों का ववेया।