पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/५१५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मत्तवारण मत्स्य - स० 'मत्तमातंगलीलाकर' लिखा है। जैसे,-मेघ मंदाकिनी वारु मत्यनुसार-क्रि० वि० [सं० मति+अनुसार ] बुद्धि के अनुसार सौदामिनी रूप रे लस देह धारी मनो। उ.-मत्यनुसार समस्त सृष्टि को उपदेश दिया ।वीर मत्तवारण-संज्ञा पु० [स०] १. मकान के पागे का दालान या म०, पृ० १६६। बरामदा । २. प्रांगन के ऊपर की छत । ३. मतवाला हाधी। मत्स-संज्ञा पु० [सं०] १. दे० 'मत्स्य' । उ०—मत्म माग्वेि चलत ४. पर्यंक । मच (को०)। ५. खूटी। नागदंत (को०)। ६. नदी तल ति गति चपल-प्रेमघन०, भा० १, पृ०४८ । सुपारी का चूर (को०)। मत्सर-संज्ञा पु० [ ] १. किसी का सुख या विभव न देख मत्तसमक-संशश पुं० [स०] चौपाई छंद का एक भेद जिसमे नवी सकना। साह । हसद । जलन । २. शोध । गुस्सा । ३. मात्रा अवश्य लघु होती है। गर्व । अभिमान (को०) । ४. सोम लता (को० । ५. मशक । मत्ता-संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बारह अक्षरों का एक वृत्त जिसके दंश । डाँस (को०)। प्रत्येक चरण में मगण, भगण, सगण और एक गुरु होता है मत्सर-वि० १. जो दूसरे की सुख संपत्ति देखकर जलता हो । डाह मौर ४, ६ पर यति होती है। जैसे,—मत्ता ह्र के हरि रस करनेवाला । २. कुपण । कजूस । ३. जो सदको अपनी निंदा सानी । धावै वंसी सुनत सयानी । २. मदिरा | शराब । करते देख कर अपने बापनो धिक्कारता हो। मत्ता-प्रत्य० भाववाचक प्रत्यय | पन । मत्सरता-संज्ञा स्त्री॰ [ स०] मत्सरयुक्त होने का भाव | डाह । विशेप-इसका प्रयोग शब्दों को भाववाचक बनाने में उसके अंत हसद । में होता है । जैसे, बुद्धिमत्ता । नीतिमत्ता । मत्सरी-सञ्ज्ञा पुं० [ स० मत्स रन ] वह जो दूसरों से मत्सर रखता मत्ता ३-सशा स्त्री॰ [ स० मात्रा, प्रा० मत्ता] दे० 'मात्रा' । हो । मत्सरपूर्ण । डाही वा द्वेषी व्यक्ति । उ-दस मत्ता के छंद में वृत्ति नवासी होइ । संमोहादिक मत्सरीकृता-संज्ञा स्त्री० [स० ] संगीत में एक मूछना का नाम । गतिन संग वरनत हैं सब कोइ।-भिखारी० ०, भा० १, इसका स्वरग्राम इस प्रकार है-म, प, ध, नि, स, रे, ग। पृ० १८७॥ ग, म, प, ध, नि, स, रे, ग, म, प, ध, नि । मत्ताक्रीड़ा-संज्ञा स्त्री० [सं० मत्त + थाक्रीडा ] तेईस अक्षरो का एक मत्स्यंडिका-संज्ञा स्त्री० [ स० मत्स्यणिका ] खाँड़ । राव । शक्कर छद जिसके प्रत्येक चरण में दो मगण, एक तगण, पार का मोटा और विना साफ हुमा उप [को०] । नगण और प्रत में एक लघु और एक गुरु अक्षर होता है । मत्स्यंडी-संज्ञा स्त्री० [सं० मत्स्य एदी ] राव । खाउको । जैसे,—यों रानी माधो जी वानी सुनि कह फस तिय असत मत्स्य-संश पुं० [सं०] १. मछली। २. प्राचीन विराट देश का कहत री। नाम। मत्तालव-संज्ञा पुं० [सं० मत्त+पालम्ब] भवन के चतुर्दिक की चहारदीवारी या प्राचीर (को॰] । विशेष-कुछ लोगो का मत है कि वर्तमान दीनाजपुर मौर मत्थ-सा पु० [सं० मस्तक ] दे० 'मत्था' । उ०-~-हस्थि मत्य पर रगपुर ही प्राचीन काल का मत्स्य देश है; और कुछ लोग सिंह बिनु प्रान न घाले घाव । -भूषण पं०, पृ० १०० । इरो प्राचीन पाचाल के अंतर्गत मानते है । मत्थना स० [सं० मन्थन ] दे० 'मथना' । उ०-दूध ३. छप्पय छंद के २३वे भेद का नाम | ४. नारायण । ५. को मत्य कर घितं न्यारा किया। बहुर फिर तत्त में ना वारहवीं राशि । मीन राशि । ६. अठारह पुराणों में से एक समावै।-कबीर० सा० सं०, पृ०६०। जो महापुराण माना जाता है। कहते हैं, जव विष्णु मत्था -सज्ञा पुं० [सं० मस्तक ] १. ललाट । भाल | माथा । २. भगवान् ने मत्स्य अवतार धारण किया था, तब यह पुराण सिर । मुड़। कहा था। ७. विष्णु के दस अवतारों में से पहला अवतार | कहते हैं, यह अवतार सतयुग मे हुआ था। इसका नीचे मुहा०—मत्था टेकना = प्रणाम करना । सिर झुकाफर अभिवादन का धंग रोहू मछली के समान, और रंग श्याम था। इसके फरना । मस्थापच्ची करना = खोपड़ो खणना। मग्ज मारना। सिर पर लोग थे,'चार हाथ थे, छाती पर लक्ष्मी थी और उ०-इतनी मत्थापच्ची कौन करे?-किन्नर०, पृ० २५ । सारे शरीर में कमल के चिह्न थे। सत्या मारना%Dसिरपच्ची करना। सिर खपाना। मत्थे पड़ना= सिर पड़ना। अपने ऊपर भार पाना । उ०- विशेष-महाभारत में लिखा है फि पारीन काल मे विवस्वान कृषिकारों के मत्थे पड़ा है।-प्रेमघन॰, भा० २, के पुत्र वैवस्वत मनु बहुत ही प्रसिद्ध धौर बड़े तपस्वी थे। एक बार एक छोटी मछली ने आकर उनसे कहा कि पृ० २६७। मुझे बड़ी बड़ी मछलियाँ नहुत सताती है, आप उनसे मेरी ३. किसी पदार्थ का अगला या ऊपरी भाग । रक्षा कीजिए। मनु ने उसे एक घड़े में रख दिया और वह मत्य-सचा पु० [ स०] १. हेगा। सिरावन २. दांती या हँसिया की दिन दिन बढ़ने लगी। जब वह बहुत बढ़ गई, तब मनु ने फो मूठ। ३. ज्ञान अर्जन का साधन । ४. हेगाने फी किया। उसे एक कुएं में छोड़ दिया। जब वह और बड़ी हुई, तब सेत पादि को हेगा से समतल करना [को०] । उन्होने उसे गंगा में छोड़ा, और पत में उसे वहाँ से भी