पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/६२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

फीटना ३३०१ फुकार नीरस । वेजायका । जो खने में अच्छा न लगे। अरुचिकर । विशेष- इसमें अलमीनियम फासफेट और कुछ लोहे और तावे उ०—(क) माया तरवर विविध का साख विषय संताप । का योग होता है । अच्छा फीरोजा फारस की पहाड़ियो में शीतलता सपने नही फल फीका तन ताप । कबीर (शब्द०)। होता है जहाँ से रोम होता हुप्रा यह यूरोप गया । अमेरिका (ख) जे जल दीखा सोई फोका । ताकर काह सराहे नीका । से भी फीरोजा वहुत प्राता है। इसकी गिनती रत्नो में है -जायसी (शब्द॰) । (ग) प्रभु पद प्रीति न सामझ नीकी । और यह प्राभूषणो में जड़ा जाता है। हलके मोल के पत्थर तिन्हहिं कथा सुनि लागहि फीकी ।—तुलसी (शब्द०)। (घ) पच्चीकारी में भी काम पाते हैं। वैद्य लोग इसका व्यवहार देह गेह सनेह प्रपंण कमल लोचन ध्यान । सूर उनको भजन प्रौषध के रूप में भी करते हैं । यह कसैला, मीठा और दीपन देखत फीको लागत ज्ञान ।-सूर (शब्द०)। २. जो चटकीला कहा गया है। न हो। जो शोख न हो। धूमला। मलिन । उ०-- पर्या०- हरिताश्म भस्मांग । पेरोज । चटक न छाड़त घटत हूँ सज्जन नेह गंभरि । फीको परे न' फीरोजी-वि० [ फ़ा० फ़ोरोजी ] फोरोजे के रंग का ! हरापन लिए बरु फट रंग्यो चोल रंग चोर |–बिहारी (शब्द०)। नीला। विशेष-इस रंग में कपड़ा इस प्रकार रंगा जाता है। पहले क्रि० प्र०-करना ।-पकड़ना ।—होना। कपड़े को तूतिये के पानी में रंगते हैं, फिर तूतिये से चौगुना ३. बिना तेज का। वांतिहीन । प्रभाहीन । बे रौनक । मंद । चूना मिले पानी में उसे बोर देते हैं और फिर पानी में निथा- जैसे, चेहरा फीका पड़ना । उ०-दुलहा दुलहिन मिलि गए रतें हैं । यह क्रिया तीन बार करते हैं । फीकी परी बरात ।-कबीर (शब्द०)। ४. प्रभावहीन । व्यथं । निष्फल । उ०—(क) प्रभु सों कहत सकुचात ही परो फील -संज्ञा पुं० [ फा० फ़ील ] हाथी । उ०—झालरि झुकत झलकत झपे फीलन पै अली अकबर खां के सुभट सराह के । अरि उर जिनि फिरि फीको। निकट वोलि बलि बरखिए परिहरि रोर सोर परत संसार घोर बाजत नगारे नरवर नाह के ।- ख्याल पव तुलसीदास जड़ जी को।- तुलसी (शब्द०)। गुमान (शब्द०)। (ख) नीकी दई अनाकनी फोकी पड़ी गुहारि | मनो तज्यो यौ०-फीलपाँव = श्लीपद । दे० 'फीलपा'। तारन बिरद वारिक बारन तारि ।-विहारी (शब्द०) । फीटना-क्रि० स० [प्रा० फिट ( = ध्वस्त होना), हिं० फटना] फीलखाना-सज्ञा पुं॰ [ फ़ा० फ़ीलखानह ] हथिसार । हस्तिशाला । वह घर जहाँ हाथी वांधा जाता हो । १. फटना । अलग होना। दूर होना । हटना । उ०-फोटो फोलपा-सज्ञा पु० [फा० फ़ीलपा ] एक रोग जिसमे पर तिमिर मान तब ऊग्यो तर भयो प्रकासा रे ।-सुदर० फूलकर हाथी के पैर की तरह हो जाता है। यह रोग शरीर के दूसरे ग्रं० (जी०), भा० १, पृ० १७ । २. नष्ट होना । उ०-सहज पगों पर भी प्राक्रमण करता है। सुभाव भेरी तृष्ना फीटी, सीगी नाद संगि मेला ।-गोरख०, फोलपाया-सज्ञा पु० [फा० फ़ीलपायह ] १. ईटे का बना हुआ पृ० २०७। मोटा खंभा जिसपर छत ठहराई जाती है। इसे फोलपावा फीटिका-संज्ञा पुं० [स० स्फटिक, प्रा. फटिक ] दे॰ 'फटिक', भी कहते हैं। २. दे० 'फीलपा'। 'स्फटिक'। फीलवान -संज्ञा पु० [फा० फीलवान] हाथीवान । यौ०-फीटिकसील्या = स्फटिक का प्रस्तरखंड या शिला। फीली-सच्चा सी० [सं० पिण्ड ] पिंडली। घुटने के नीचे ऍड़ी तक फीटिकसिला। उ०-फीरिक सील्या दरस देखे जहाँ जाए का भाग । उ०—सिंह की चाल चले डग ढीली। रोवां बहुत गयंद दसन भरे ।-सं० दरिया, पृ०६६ । जाघ पौ फीली।—जायसी (शब्द०)। फीता-संशा पु० [ पुर्त १. नेवार फी पतली धज्जी, सूत, प्रादि फील्ड-संशा पु० [ 4० फील्ड ] १. खेत । मैदान । २. गेंद खेलने जो किसी वस्तु को लपेटने या बांधने के काम मे पाता है। का मैदान। उ०-खेलत चंग से चित्त चली ज्यों बंधी रघुराज के प्रेम फील्ड ऐंबुलेन्स-संज्ञा पुं० [प० फ़ील्ड ऐम्बुलेन्स] दे० 'एम्बुलेन्स' । के फीता ।-रघुराज (शब्द०)। २. पतला किनारा । फीवर-सञ्चा पु० [पं० फ़ोवर ] ज्वर । बुखार । पतली कोर । फीस-संशा स्त्री॰ [अं० फ़ीस ] १. कर । शुल्क । २. मेहनताना । फीफरी -संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'फेफरी' । उजरत । जैसे, डाक्टर की फीस, स्कूल की फीस फोफ-संज्ञा पुं॰ [सं० फुफ्फुस ] दे० 'फुफ्फुस' । उ०-सुरखी क्रि० प्र०-लगना। फीफसु पित विचि कीन्हा ।-प्राण, पृ० १६ । फुकरना-क्रि० अ० [हिं० फुकार ] फूत्कार छोड़ना। उ०—(क) फीरनी-संज्ञा स्त्री० [ फ़ा. फिरनी] एक प्रकार की खीर जो दूध तब चले वान कराल । फुकरत जनु बहु व्याल । -तुलसी मैं चावल का वारीक पाटा पकाकर बनाई जाती है । इसे (शब्द०)। (ख) कहै पद्माकर त्यो हुकरत कुंकरत, फैलत मुसलमान अधिक खाते हैं। फलात फाल वधित फलंका मे ।-पद्माकर (शब्द०)। फीरोजा-संज्ञा पुं॰ [फा०; मि० सं० परेज, पेरोज ] एक प्रकार का फुकार-सशा पुं० [ अनु० ] फूरकार । दे० 'फुकार' । उ०—ब धाइ धायो जाइ जगायो मानो छूटी हाथियाँ । सहस फन नग या बहुमूल्य पत्थर जो हरापन लिए नीले रंग का होता है। 'फुकार छाई जाई काली नाथियाँ । —सूर (शब्द०)।