पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/७२

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फूटा ३३११ । तनिक भी न मुहाना । वहुत बुरा लगना। अत्यंत अप्रिय लगना । जैसे,- अपनी चाल से वह फूटी पाखों नहीं भाता। (स्थि०)। फूटी वॉखों न देख सकना = बुरा मानना । जलना । कुढ़ना । जैसे,—वह मेरे लड़यो को फूटी पाखों नहीं देख सकती। ( स्त्रि०)। पास में फूटी कौड़ी न होना= पास में कुछ भी न होना । अकिंचन होना । फटे मुँह से न बोलना = दो बात भी न करना । अत्यंत उपेक्षा करना। टा-संज्ञा पुं० १. वह बालें जो टूटकर खेतों में गिर पड़ती हैं । २. जोड़ों का दर्द कतकार(यु-संक्षा पुं० [सं० फूस्कार दे० 'फूलकार'। उ०-जैसे प्रले काल में फनी के फनामडल ते, फैले फूतकारनि फुलिंग सरसत हैं ।-हम्मीर०, पृ० ३१ । कूत्कार-संशा पु० [ म• ] १. मुंह से हवा छोड़ने का शब्द । फूक । फुफकार । जैसे, सर्प का फूत्कार । २. साँप की फूक या फुफकार (फो०) । ३. दीड । चीत्कार (को०)। ४. सिसकना । सिसकी भरना (गो०)। फूत्कृति-संज्ञा स्त्री० [ सं०] २० 'फत्कार' (को० । फफा-सज्ञा पु० [हिं० फूफी ] फूफी का पति । बाप का बहनोई । फूफी-सशा स्त्री॰ [ अनु० अथवा स० पितृस्वसा, पा० पितुच्छा. प्रा० पिउच्चा, पिउच्छा; बंग० पिसी, या देशी ] बाप की बहन । वूमा। फूफ-सज्ञा स्त्री० [हिं० ] दे० 'फूफी' । फर-वि० [हिं० फुरना ] सत्य । सच। उ०—(क) कह गुलाल सो दिखे हजूर । को मान यह बचन फूर । -गुलाल० बानी, पृ० ६१ । (ख) चारि अवस्था सपने कहई । झूठो फूरो मानत रहई । -कवीर वी० (शिशु०), पृ० १०८ । फ्रना@-क्रि० प्र० [हिं० ] फूलना । स्फुरित होना । ३०- घावन प्रबल पल धूजत घरनि फन, कुंकरत फूरत फनीस लरजत हैं।-हम्मीर०, पृ० २५ । १- संज्ञा पुं० [सं० फुल्ल ] १. गर्भाधानवाले पौधो में वह ग्रंथि जिसमें फल उत्पन्न करने की शक्ति होती है और जिसे उभिदों की जननेंद्रिय कह सकते हैं । पुष्प । कुसुम । सुमन । विशेष-बड़े फूलों के पांच भाग होते हैं -कटोरी, हरा पुट, दल (पंसडी), गर्भसर और परागकेसर । नाल फा वह चौडा छोर, जिसपर फून का सारा ढाँचा रहता है, कटोरी कहलाता है । इसी 6 चारों ओर जो हरी पत्तियों सी होती हैं उनके पुट के भीतर कली की दशा मे फूल बंद रहता है । ये प्रावरणपत्र भिन्न भिन्न पौधों मे भिन्न भिन्न प्राकार प्रकार के होते हैं। घुडी के घाकार फा जो मध्य भाग होता है उसके चारों ओर रंग बिरंग के दल निकले होते हैं जिन्हे पंखड़ी कहते हैं । फूलो की शोभा बहुत कुछ इन्ही रंगीली पंखड़ियों के कारण होती है। पर यह ध्यान रसना चाहिए कि फूल में प्रधान वस्तु बीच की घुसी ही है जिसपर पराग- केसर और गर्भ केसर होते हैं। क्षुद कोटि के पौधो में पुट, पंखड़ी प्रादि कुछ भी नही होती, केवल तुली घुडी होती है । वनस्पति शास्त्र की दृष्टि से तो घुटी ही वास्तव में फूल है और बाकी तो उसकी रक्षा या शोभा के लिये हैं। दोनों प्रकार के सर पतले सूत्रपाकार के होते हैं। परागफेसर के सिरे पर एक छोटी टिकिया सी होती है जिसमें पराग या धूल रहती है। यह परागकेसर पुं० जननेंद्रिय है। गर्म केसर बिलकुल बीच में होते हैं जिनका निचला भाग या श्राधार कोश के प्राकार का होता है। जिसके भीतर गईट वंद रहते हैं और ऊपर का छोर या मुह कुछ चीड़ा सा होता है । जब परागणेसर का पराग भड़कर गर्भकेसर के इस मुह पर पड़ता है तब भीतर ही भीतर गर्भ कोश में जाकर गर्भाट यो गभित करता है, जिससे धीरे धीरे वह चीज के रूप में परिणत होता है और फल की उत्पत्ति होती है। गर्भाधान के विचार से पौधे कई प्रकार के होते हैं-एफ तो ये जिनमें एक ही पेड़ में स्त्री० फूल और पुं० फूल अलग अलग होते हैं । जैसे, कुम्हड़ा, कद्दू, तुरई, ककड़ी इत्यादि । इनमें कुछ फूलों में केवल गर्भ केसर होते हैं और कुछ फूलों में केवल परागकेसर। ऐसे पौषों में गर्भकोश के बीच पराग या तो हवा से उड़कर पहुंचता है या कीडों द्वारा पहुंचाया जाता है। मक्के के पौधे में पु० फूल उपर ठहनी के सिरे पर मंजरी के रूप में लगते हैं और जीरे कहलाते हैं और स्त्री० फूल पौधे के बीचोबीच इधर उधर लगते हैं पीर पुष्ट होकर पाल के रूप में होते हैं। ऐसे पौधे भी होते हैं जिनमें नर और माया अलग अलग होते हैं। नर पौधे में पगंग केसरवाले फूल लगते हैं और मादा पौधे में गर्भ केसरवाले । बहुत से पौधों में गर्भ केसर और परागफेसर एक ही फूल में होते हैं । किसी एक सामान्य जाति के अंतर्गत संकरजाति के पौधे भी उत्पन्न हो सकते हैं । जैसे किसी एक प्रकार के नीबू का पराग दूसरे प्रकार से नीबू के गर्भकोण में जा पड़े तो उससे एक दोगला नीबू उत्पन्न हो सकता है । पर ऐसा एक ही जाति के पौधो के बीच हो सकता है। फूल भनेक प्राकार प्रकार के होते हैं। कुछ फूल बहुत सूक्ष्म होते हैं घोर गुच्छों में लगते हैं। जैसे, प्राम के नीम के. तुलसी के । ऐसे फूलों को मंजरी कहते हैं । फलों का उपयोग बहुत प्राचीन काल से सजावट भोर सुगंध के लिये होता गाया है। अबतक संसार में बहुत सा सुगंध द्रव्य (तल, इत्र प्रादि) फलों ही से तैयार होता है । सुकुमारता, कोमलता पौर सौदर्य के लिये फल सब देश के कवियो में प्रसिद्ध रहा है। मुहा०-फूल थाना = फूल लगना । फूल उतारना फूल तोड़ना । फूल चुनना = फूल तोड़कर इकट्ठा करना । फूल माना - मुह से प्रिय पौर मधुर घातें निकलना । उ०-झरत फूल मुंह ते वह फेरी।-जायसी (शब्द०)। क्या फूल झड़ जायेंगे ? = क्या ऐसा सुकुमार है कि अमुक काम करने के योग्य नहीं है ? फूल लोढ़ना = फूल चुनना । फूल सा = अत्यंत सुकुमार, हलका या सुदर । फूल सूचकर रहना = बहुत कम साना । जैसे,—वह साती नहीं तो क्या फन सूप- कर रहती है ? (स्त्री० घ्यंग्य में): फूलों का गहना = = (१)