पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/७८

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- ३३१७ हैं। भीतर जो सांस खींची जाती है उसमें कारबन, जलवाष्प मुहा०—दिनों का फेर - सेमय को परिवर्तन । जमाने का बदलना। तथा अन्य हानिकारक पदार्थ बहुत कम मात्रा में होते है एक दशा से दूसरी दशा की प्राप्ति (विशेषतः अच्छी से और आक्सीजन गैस, जो प्राणियों के लिये प्रावश्यक है, अधिक वुरी दशा की) । उ०-(क) दिनन को फेर होत मेरु होत मात्रा में होती है पर, भीतर से जो सांस बाहर पाती है माटो को।-(शब्द०)। (ख) हंस बगा के पाहुना कोइ दिनन उसमें कारवन या अंगारक वायु अधिक और पाक्सीजन कम का फेर। बगुना कहा गरविया बैठा पंख विखेर ।-कबीर रहती है। शरीर के भीतर जो अनेक रासायनिक क्रियाएँ होती (शब्द०)। समय का फेर = दे० 'दिनों का फेर' । उ०- रहती हैं उनके कारण जहरीली कारवन गैस बनती रहती मरत प्यास पिंजरा परयो सुधा समय के फेर । मादर दै दै है। इस गैत के कारण रक्त का रंग कालापन लिए हो जाता बोलियत वायस बलि की बेर ।-बिहारी (शब्द०)। है । यह काला रक्त शरीर के सब भागों से इकट्ठा होकर दो कुफेर = (१) बुरे दिन । बुरी दशा । (२) बुरा अवसर । महाशिरामों के द्वारा हृदय के दाहने कोठे मे पहुंचता है । बुरा दांव । सुफेर=(१) अच्छे दिन । अच्छी दशा । (२) हृदय से यह दूषित रक्त फुप्फुसीय धमनी (दे० 'नाढी') द्वारा अच्छा अवसर । अच्छा मौका । उ०-पेट न फूलत बिनु दोनों फेफड़ो में आ जाता है। वहां रक्त की बहुत सी कारवन कहे कहत न लागत वेर । सुमति विचारे बोलिए समुझि गैस बाहर निकल जाती है और उसकी जगह प्राक्सिजन कुफेर सुफेर ।-तुलसी (शब्द०)। पा जाता है, इस प्रकार फेफड़ो में जाकर रक्त शुद्ध हो जाता ४. बल । अंतर । फक । भेद । जैसे—यह उनकी समझ का फेर है। लाल शुद्ध होकर फिर वह हृदय मे पहुंचता है और वही है। उ०—(क) कविरा मन दीया नही तन करि डारा से धमनियो द्वारा सारे शरीर में फैलकर शरीर को स्वस्थ जेर। अंतर्यामी लखि गया बात कहन का फेर ।-कबीर रखता है। (शब्द०)। (ख) नदिया एक घाट बहुतेरा। कहैं कवीर कि फेफड़ी' - संज्ञा स्त्री० [हिं० पपड़ी ] गरमी या खुश्की से अोठों के मन फा फेरा ।-कबीर (शब्द॰) । (ग) मीता ! तू या बात को हिथे गौर फरि हेर । दरदवंत बेदरद को निसि वासर ऊपर चमड़े की सूखी तह । प्यास या गरमी से सूखे श्रोठ का को फेर ।-रसनिधि (शब्द०)। चमड़ा। मुहा०-फेफड़ी वॉधना या पड़ना= प्रोठ सूखना। मुहा०-फेर पड़ना = अंतर या फर्क होना । भेद पड़ जाना । उ०- दरजी चाहत थान को कतरन लेहुँ चुराय। प्रीति ब्योंत में, फेफड़ो-संज्ञा स्त्री० [हिं० फेफड़ा ] चौपायों का एक रोग जिसमे उनके फेफड़े सूज पाते हैं और उनका रक्त सूख जाता है । भावते ! वड़ो फेर परि जाय ।-रसनिधि (शब्द०)। यौ०-हेर फेर । फेफरी-संशा स्त्री॰ [हिं० ] दे० 'फेफड़ी' । उ०-मथुरापुर में शोर परयो । गर्जत फंस वेस सब साजे मुख को नीर हरयो। पीरो ५. असमंजस । उलझन । दुबधा । अनिश्चय की दशा । कर्तव्य भयो, फेफरी अधरन हिरदय प्रतिहि डरयो । —सूर (शब्द०)। स्थिर करने की कठिनता । जैसे,—वह बड़े फेर मे पड़ गया है कि क्या करे। उ०-घट मह वकत चकतभा मेरू। मिलहिः फेरंड-संज्ञा पुं० [सं० फेरण्ड ] गीदड़ । सियार । न मिलहि परा तस फेरू । जायसी (शब्द०)। फेर-संज्ञा पुं० [हिं० फेरना ] १. चक्कर । घुमाव । घूमने की क्रिया दशा या भाव । उ०-(क) प्रोहि क खंड जस परबत मुहा०-- फेर में पड़ना = असमंजस में होना। कठिनाई में पड़ना। फेर में ढालना=प्रसमजस मे डालना। अनिश्चय मेरू । मेरुहि लागि होइ अति फेरू ।- जायसी (शब्द०) (ख) फेर सों फाहे को प्राण निकासत सूधेहि क्यों नहिं लेत की कठिनता सामने लाना । किंकर्तव्यविमूढ़ करना। जैसे- निकारी ।-हनुमान (शब्द॰) । तुमने तो उसे बड़े फेर में डाल दिया । ६. भ्रम । संशय । धोखा । जैसे,—इस फेर में न रहना कि रुपया' मुहा०-फेर खाना= घुमाव का रास्ता तय करना । सीधा न जाकर इधर उधर घूमकर अधिक चलना । जैसे,-मैं तो हजम कर लेंगे। उ०—माला फेरत जुग गया गया न मन इसी रास्ते जाऊँगा, उधर उतना फेर खाने कौन जाय ? फेर का फेर । कर का मनका छोड़ के मन का मनका फेर ।-- पड़ना= घुमाव का रास्ता पड़ना । साधा न पड़ना। जैसे,- ७. चाल का चक्कर। षट्चक्र। चाल- उघर से मठ जामो बहुत फेर पड़ेगा, मैं सीधा रास्ता बताता बाजी। जैसे-तुम उसके फेर में मत पड़ना, वह बड़ा धूर्त है। हूँ। फेर घंधना = क्रम या तार बंधना। सिलसिला लगना। मुहा०-फेर में आना या पढ़ना = घोखा खाना। फेर फार फेर याँधना=सिलसिला डालना। तार बांधना। फेर की की बात= चालाकी की वात । घात = घुमाव की बात । बात जो सीधी सादी न हो। ८. उलझाव । बखेड़ा । झंझट । जजाल । प्रपंच । जैसे,—(क) २. मोड़ । झुकाव । रुपए का फेर बड़ा गहरा होता है। (ख) तुम किस फेर में मुहा०-फेर देना= घुमाना । मोड़ना । रुख बदलना। पड़े हो, जामो अपना काम देखो। ३. परिवर्तन । उलट पलट । रद बदल | कुछ से कुछ होना। मुहा०—निन्नानबे का फेर= सौ रुपए पूरे करने की दुन । यौ०-उलट फेर। रुपया बढ़ाने का चसका। कबीर (शब्द०)।