पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/८८

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३३२७ चंग ब ब-हिंदी का तेईसवाँ व्यंजन और पवर्ग का तीसरा वर्ण । यह प्रोष्ठय बंकराज-संज्ञा पुं० [सं० व + राज] एक प्रकार का सर्प। उ०- वर्ण है और दोनों होठों के मिलाने से इसका उच्चारण होता पातराण, दूधराज, बंकराज, शंकरचूर और मणिचूर प्रादि है। इसलिये इसे स्पर्श वणं कहते हैं। यह अल्पप्राण है पोर साप बड़े फनवाले हैं। -सघात 'चकित्सा (शब्द०)। इसके उच्चारण में संवार, नाद और घोष नामक बाह्य बंकवा-संज्ञा पुं० [ स० बरः ] एक प्रकार का धान जो अगहन में प्रयत्न होते हैं। तैयार होता है। इसका चावल सैकड़ों वर्ष तक रह सकता है । वं-संज्ञा पुं० [अनुध्व.] 'ब' की ध्वनि । बंकसाल-सञ्ज्ञा पुं॰ [ देश० ] जहाज का वह बड़ा कमरा जिसमें मुहा०-बं बोलना = केवल ध्वनि करना । हिम्मत छोड़ बैठना । मस्तूलों पर चढानेवाली रस्सियां या जंजीरें प्रादि तैयार या उ०—शिमला छाडि बिलायत भागे लाट लिटिन व बोल ।- ठीक करके रखी जाती हैं। प्रेमघन०, भा॰ २, पृ० ३६१ । बंका-वि० [ सं० वङ्क ] [स्त्री० बंकी ] १. टेढ़ा । तिरछा । उ०- बंक'-वि० [सं० वक्र, वङ्क ] १. टेढा। तिरछा । उ०-कोर गढ़ वंका बको सुधर ।-ह. रासो, पृ० ५० । २. बांका। झिझकारें कोउन, बक जुग भौह मरोरै।-प्रेमघन०, भाग १, ३. पराक्रमी। बलशाली। उ०-बंका राव हमीर ।-ह. पृ० १० । २. पुरुषार्थी । विक्रमशाली । ३. दुर्गम । जिस तक रासो, पृ०५०। पहुँच न हो सके। उ०—(क) जो वंक गढ लंक सो ढका बंका-संज्ञा पुं० [ देश० ] हरे रंग का एक कीड़ा जो धान के पौषों ढकेलि ढाहिगो ।—तुलसी (शब्द॰) । (ख) लंक से बंक को हानि पहुंचाता है। महागढ दुर्गम ढाहिबे दाहिने को कहरी है। -तुलसी (शब्द०)। बंकाई-संज्ञा स्त्री० [सं० वक + पाई (प्रत्य॰)] टेढ़ापन । तिरथा- वंकर-संज्ञा पुं० [अं० बैंक ] वह कार्यालय या संस्था जो लोगों पन | वक्रता। का रुपया सूद देकर अपने यहां जमा करती प्रथवा सूद लेकर बंकिम-वि० [सं० वकिम ] टेढा । तिरछा । उ०-उर उर में लोगों को ऋण देती है। लोगों की हुडियाँ लेती पौर भेजती बंकिम धनु संग हग में फूलों के कुटिल विशिख ।-द्वद्व०, है तथा इसी प्रकार के दूसरे महाजनी के कार्य करती है। पृ० २३ । (ख) गढ़ बंकिम किए, निश्चल किंतु लोलुप, बंकट'-वि० [सं० वङ्क, प्रा० बंकुड ] १. वक्र । टेढा । उ०- वन्य बिलार ।-हिं० फा० प्र०, पृ० २५८ । (क) ठठकति चले मटफि मुह मोरै बंकट भौह मरोरै। बंकी-पंज्ञा स्त्री० [हिं० ] दे० 'बाँक' । सूर (शब्द०)। (ख) भृकुटि बकट चार लोचन रही युवती बंकुड़ा-वि० [ स० वक्र, प्रा० बंकुड़ ] उ०-घर में सब कोई देखि । -सूर (शब्द०) २. तिरछा | बांका । उ०—निपट बंकुड़ा मारहिं गाल अनेक । सुदर रण मै ठाहर सूर बंकट छवि अटके मेरे नैना ।-संतवाणी०, भाग २, पृ०७६ । धीर को एक !-सुदर० ग्रं॰, भा॰ २, पृ० ७३८ । ३. विकट । दुर्गम । उ०-ज तुम बंकट ठौर 1-पृ० रा०, बंकुर-वि० [सं० वक्र, प्रा० बकुद ] दे॰ बंक" । ६/१७३। बकुरता@-संज्ञा स्त्री॰ [ स० वक्रता अपवा सं० वक्र, प्रा. संकुड़, बंकट-संज्ञा पुं॰ [ ? ] हनुमान । (दि०)। हिं० वंकुर+ता (प्रत्य॰)] टेढ़ाई। टेढ़ापन। तिरछापन । चंकनाल-संज्ञा स्त्री० [हिं० बंक+नाल ] सुनारों की एक नली वक्रता। उ०-घानन में मुसकानि सुहावनि, बंकुरता जो बहुत बारीक टुकड़ों की जुडाई करने के समय चिराग की अंखियान छई हैं। -भिखारी० ग्रं॰, भा॰ २, पृ० १३ । लो फूकने के काम प्राती है। वगनहा । २. पारीर की एक वंफुस-वि० [सं० वक्र, हिं० बंकुर ] वक्र । टेढ़ा । तिरछा । उ०- नाड़ी। सुपुम्ना। उ०-वंकनाल की औघट घाटी, तहाँ न चढ्यो घन मत्त हाथी, पवन, महावत साथी, चपला को ग्रंकुस पग ठहराई। -कबीर० श०, मा० ३ पृ० ७८ । द बंकुस चलाए ।-नंद ०, पृ० ३७३ । चकनालि-संज्ञा स्त्री० [हिं० ] दे० 'बकनाल'-२। उ०-मूल सहन पवना बहै। बंकनालि तब बहत रहै । गोरख, वंग'-संज्ञा पुं० [सं० वङ्ग ] दे० 'वंग'। वग-संशा श्री० [फा० वाँग ] अजान की पावाज । उ०—(क) पृ० १८१। मुसलमान कलमा पढे तीस रोजा रहै, बंग निमाज वंकवला-संज्ञा पुं० [हिं० ] वह पर का एक प्राभूषण । उ०- धुनि करत गाढ़ी।-कवीर० २०, पृ० १६ । (ख) एकादशी वाहन में बाजू बंद बाँधे वंकवला बाहन पर साधे ।-भक्ति०, न व्रतहिं विचारौं। रोजा घरी न बंग पुकारी। -सुदर० पं०, भा० १, पृ० ३०४ । वंकम-संज्ञा पुं० [सं० वद्धिम ] कष्ट । दुःख । घुमाव । मोड़। बंग-सा स्त्री॰ [फा० । तुल० हिं० भग] भाग। विजया। एक उ०-जहँ जहँ सुदेव बंकम परिय करिय अभय तुम देव मादक बूटी। तवा-पृ० रा ६।६२ । पृ०६