पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/९३

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बंदूकची ३३३२ बंधन रखना । वदूक चलाना, छोड़ना, मारना या लगाना=बंदूक प्राकृति या चित्र बन जाय । जैसे. छत्रवध, कमलबंध खगबंध, मे गोली भरकर उसका घोड़ा दबाना जिससे गोली निकलकर चमरवध इत्यादि । ६, जिससे कोई वस्तु बांधी जाय । बंधन निशाने पर जा लगे। बंदूक छतियाना = (6) बंदूक को छाती जैसे, रस्सी, फीता इत्यादि । १०. लगाव । फंसाव । उ०-वेघि फे साथ लगाकर उसका निशाना ठोक करना। बंदूक को रही जग वासना निरमल मेद सुगध । तेहि प्ररघान भंवर ऐसी स्थिति में करना जिससे गोली अपने ठीक निशाने पर जा सब लुबुधे तजहिं न बंध।-जायसी (भाब्द०)। ११. लगे। (२) वदूक चलाने के लिये तैयार होना । शरीर । १२. बननेवाले मकान की लंबाई और चौडाई का बंदूकचो 1-सञ्ज्ञा पुं॰ [ फ़ा० बंदूकची ] बंदूक चलानेवाला सिपाही । योग । १३. गिरवी रखा हुआ धन । १४. बधन ( मोक्ष का उलटा ) । १५. पट्टी शिनाग (को०)। १६. परिणाम । फल बदूखा-सज्ञा स्त्री० [ बंदूक ] दे॰ 'वद्क' । (को०)। १७. एका नेत्ररोग (को॰) । १८. केपा बाँधने का बंदूवाई-सज्ञा पु० [ हिं० ] दे० 'वधुपा'। उ०-तासो नारायण- फीता (को०)। १६. प्रदर्शन (को०) । २१. पक्डना । वधन मे दास ने सगरे बदूवा छोरि दिए हैं ।-दो सो वावन०, भा० डालना (को०) । २२. स्नायु (को०) । २१. शरीर की स्थिति । १, पृ० १२८ । अगन्यास (को०) । २४. पुल (को)। चंदेरो-शा स्त्री० [फा० बंद + ऐरी ( प्रत्य॰)] दासी । चेरी। बंधक-समा ० [ म० बन्धक ] १. वह वस्तु.जो लिए हुए ऋण बंदोबस्त-सा पु० [ फा०] १. प्रवध । इतिजाम । २. खेती के के बदले मे धनी के यहाँ रस दी जाय । रेहन । लिये भूमि को नापकर उसका राज्यकर निर्धारित करने विशेष--ऐसी वस्तु ऋण चुकाने पर वापस हो जाती है। का काम। क्रि० प्र०—करना ।-रखना।-धरना । यौ०-बंदोबस्त इस्तमरारी = भूमि सबधी वह करनिर्धारण २. विनमय । वदला । परिवर्तन । ३. वह जो बांधता हो। जिसमें फिर कोई कमी, बेशी न हो सके। मालगुजारी का बांधनेवाला। ४. बंधन (को०)। ५. पानी रोकने का पुरस । इस प्रकार ठहराया जाना कि वह फिर घट बढ़ न सके । वधि (को०)। ६. वादा (को०) । ७. अंगो की स्थिति। ३. वह महकमा या विभाग जिसके सुपुर्द खेतो पादि को नापकर मगन्या७ (को०)। उनका कर निश्चित करने का काम हो । ४. लगान तय करके बंधक-सशा पु० [ स० बन्ध ] कोक शास्त्र के अनुमार स्त्रीसभोग किसी को जोतने बोने के लिये खेत देना। का कोई प्रासन । दे० 'वर्ष'-५। उ०-चौरासी प्रासन पर वंध-संज्ञा पुं० [स० बन्ध ] १. बंधन । उ०-तासु दूत कि बध तर जोगी। खटरस बधक चतुर सो भोगी। जायसी (शब्द०)। पावा । प्रभु कारज लगि पापु बंधावा ।—तुलसी (शब्द॰) । बंधकरण--संज्ञा पु० [स० बन्धकरण ] बांधना । बघन में २. गाँठ। गिरह । उ०-जेतोई मजबूत के हित बध बांधो करना [को०] । जाय । तेतोई तामें सरस भरत प्रेम रस प्राय ।-रसनिधि बंधकपोपक-मज्ञा पुं॰ [स० ] रंडियो का दलाल । (शब्द०)। ३. कैद । उ०—कृपा कोप बघ वध गोसाई। विशेष-चाणक्य के समय में इनपर भी भिन्न भिन्न कर मोपर करिय दास की नाईं।-तुलसी (शब्द०)। ४. लगाते थे। ४. पानी रोकने का धुस्स । बाँध । ५. कोकशास्त्र के अनुसार बंधको-संज्ञा स्त्री० [सं०] १. व्यभिचारणी ली। बदचलन औरतः । रति के मुख्य सोलह आसनो मे से कोई प्रासन । उ०—परि २. वेश्या या रडी । ३. हस्तिनी । हथिनी (को०)। ४. बांझ रभन सुख रास हास मृदु सुरति केलि सुख साजे । नाना औरत । वध्या (को०)। बंध विविध रस क्रीड़ा खेलत स्याम अपार ।-सूर (शब्द०) । बंधतंत्र-संज्ञा पु० सं० वन्धतन्त्र] पूरी चतुरंगिणी सेना को०) । विशेष-मुश्य सोलह प्रासन ये हैं-(१) पद्मासन। (२) बंधन'-संशा पु० [ पं० बन्धन ] १. बांधने की किया। २. वह नागपाद । (३) लतावेष्ट । (४) अर्घसंपुट । (५) कुलिश । जिससे कोई चोज बांधी जाय । जैसे,—इसका वधन ढीला (६) सुदर। (७) केशर । (८) हिल्लोम। (६) नरसिंह । हो गया है । ३. वह जो किसी की स्वतंत्रता प्रादि में बाधक (१०) विपरीत । (११) क्षुब्धक । (१२) घेनुक । (१३) हो । प्रतिवध । फंसा रखनेवाली वस्तु । जैसे,-संसार मे उत्कंठ। (१४) सिंहासन । (१५) रतिनाग । (१६) विद्याधर । बाल बच्चों का भी बडा भारी बधन होता है। ४. वध । रतिमजरी में सोलह भासनो का उल्लेख किया गया । पर हत्या । ५. हिंसा । ६. रस्सी । ७. वह स्थान जहाँ कोई बांध अन्य लोग इसकी संख्या ८४ तक ले जाते हैं। कर रखा जाय । कारागार । कैदखाना । ८. शिव । महादेव । ६. योगशास्त्र के अनुसार योगसाधन की कोई मुद्रा। जैसे, ६. शरीर का सविस्पान । जोड़ । उड्डिपानबंध. मुलवध, जालंधरवंध, इत्यादि । ७. निवध- मुहा०-बंधन ढीला करना = बहुन अधिक मारना पीटना। रचना । गद्य या पद्य लेख तैयार करना । उ०-ताते तुलसी १०. पकड़ना । वशीभूत करना (को०)। ११. निर्माण । बनाना कृत कथा रचित महर्षि प्रबंध । विरौं उभय मिलाय (को०) । १२. पुल (को०)। १३. संयोग (को०)। १४. स्नायु के राम स्वयंवर बंध ।-रघुराज (पान्द०)। (को०)। १५. वृत या डंठल (को०) । १६. जंजीर । काव्य में छंद की ऐसी रचना जिससे किसी विशेष प्रकार की (को०)। ८. चित्र-